Book Title: Jain Tark Bhasha
Author(s): Shobhachandra Bharilla
Publisher: Tiloakratna Sthanakvasi Jain Dharmik Pariksha Board

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Page 75
________________ जैन तक भाषा ... पर्यायशब्देषु निरुक्तिभेदेन भिन्नमथं समभिरोहन समभिरूढः । शब्दन्यो हि पर्यायभेदेऽप्यर्थाभेदमभिप्रेति, समभिरूढस्तु पर्यायभेदे भिन्नानानभिमन्यते । अभेदं त्वर्थगतं पर्यायशब्दानामुपेक्षत इति, यथा इन्दनादिन्द्रः, शकनाच्छक्रः, पूरणात्पुरन्दर इत्यादि। शब्दानां स्वप्रवृत्तिनिमित्तभूतक्रियाविष्टमर्थ वाच्यत्वेनाभ्युपगच्छन्नेवम्भूतः । यथेन्दनमनुभवन्निन्द्रः । समभिरू हुनयो हीन्दनादिक्रियायां सत्यामसत्यां च वासवादेरर्थस्येन्द्रादिव्यपदेशमभिप्रेति, क्रियोपलक्षितसामान्यस्यैव प्रवृत्तिनिमित्तत्वात्, पशुविशेषस्य गमनक्रियायां सत्यामसत्यां च गोव्यपदेशवत्, तथारूढः सद्भावात् । एव म्भूतः पुनरिन्दनादि क्रियापरिणतमर्थं तक्रियाकाले इन्द्रादिव्यपदेशभाजमभिमन्यते । न हि कश्चिदक्रियाशब्दोऽस्यास्ति । गौरश्व इत्यादिजातिशब्दाभिमतानामपि क्रिया शब्दत्वात्, गच्छतीति गौः, आशुगामित्वादश्व इति । शुक्लो, नील इति गुणशब्दाभिमता अपि क्रियाश दा एव, शुचीभवनाच्छुक्लो, नीलनान्नील इति । देवदत्तो यज्ञदत्त (६) निरुक्ति (व्युत्पत्ति) के भेदसे पर्यायवाची शब्दोंके अर्थ में भेद स्वीकार करनेवाला दृष्टिकोण समभिरूढनय कहलाता है। शब्दनय पर्यायवाचक शब्दोंका (यदि उनमें लिंगभेद आदि न हों तो ) अर्थ एक ही मानता है, किन्तु यह समभिरूढनय पर्यायभदसे ही भेद मानता है। पर्यायवाची शब्दों में अर्थगत जो अभेद है, उसकी यह उपेक्षा करता है । यथाशब्दनयको दृष्टिसे इन्द्र, शकेन्द्र और पुरन्दर-इन तीनों शब्दों का एक ही अर्थ है, किन्तु समभिरूढनय भिन्न-भिन्न अर्थ मानता है-जो इन्दनक्रिया करे वह इन्द्र, जो शकनक्रिया करे वह शक और जो शत्रुनगरको विदारण करे वह पुरन्दर । (७) शब्दोंकी प्रवृत्तिकी निमित्तरूप क्रियासे युक्त पदार्थको ही शब्दोंका वाच्य स्वीकार करने वाला अभिप्राय एवंभूतनय कहलाता है । यथा-जब इन्दनक्रियाका अनुभव कर रहा हो तभी वह इन्द्र कहलाता है ( किसी अन्य क्रियाको करते समय नहीं । ) समभिरूढनय इन्दनक्रियाकी विद्यमानता होने पर अथवा न होने पर भी देवोंके स्वामीको 'इन्द्र' शब्द का वाच्य मानता है, क्योंकि उसके मतानुसार क्रियायुक्त सामान्य ही शब्दका प्रवृत्ति-निमित्त है, जैसे गमनक्रियाके होने अथवा न होनेपर भी सास्नादिमान् पशुको 'गो' कहा जाता है। गमनक्रिया न होने पर भी गाय रूढिसे 'गो' कहलाती है । लेकिन एवंभूतनय इस मान्यताको स्वीकार नहीं करता। वह तो इन्दनक्रियायुक्त पदार्थको उस क्रियाके काल में ही 'इन्द्र' कहता है । __ एवंभूतनयकी दृष्टि में ऐसा कोई शब्द नहीं है जो क्रियावाचक न हो। (१) 'गो' 'अश्व' आदि शब्द, जो जातिवाचक समझे जाते हैं वे भी वास्तव में क्रियाशब्द हैं-जो गान करे सो गौ, आशु (शीघ्र) गमन करे सो अश्व । इसी प्रकार (२) गुणवाचक माने ज ने वाले 'शुक्ल' नील आदि शब्द भी क्रियाशब्द हैं-शुचि होनेसे 'शुक्ल' और नीलन करनसे 'नं ल'

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