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नयपरिच्छेदः म्बमानः पुनरपरसंग्रहः । संग्रहेण गोचरीकृतानामर्थानां विधिपूर्वकमवहरणं येनाभिसन्धिना क्रियते स व्यवहारः । यथा यत् सत् तद् द्रव्यं पर्यायो वा । यद् द्रव्यं तज्जीवादि षड्विधम् । यः पर्यायः स द्विविधः-क्रमभावी सहभावी चेत्यादि।
ऋजु वर्तमानक्षणस्थायिपर्यायमात्रं प्राधान्यतः सूचयन्नभिप्राय ऋजुसूत्रः। यथा सुखविवर्तः सम्प्रत्यस्ति । अत्र हि क्षणस्थायि सुखाख्यं पर्यायमात्रं प्राधान्येन प्रदर्श्यते, तदधिकरणभूतं पुनरात्मद्रव्यं गौणतया नार्म्यत इति ।
कालादिभेदेन ध्वनेरर्थभेदं प्रतिपद्यमानः शब्दः । कालकारकलिंगसङ्ख्यापुरुषोपसर्गाः कालादयः । तत्र बभूव भवति भविष्यति सुमेरुरित्यत्रातीतादिकाल भेदेन सुमेरोर्भेदप्रतिपत्तिः, करोति क्रियते कुम्भ इत्यादौ कारकभेदेन, तटस्तटी तटमित्यादौ लिंगभेदेन, दाराः कलत्रमित्यादौ संख्याभेदेन, यास्यसि त्वम्, यास्यति भवानित्यादौ पुरुषभेदेन, सन्तिष्ठते अवतिष्ठते इत्यादावुपसर्गभेदेन । (विशेषों) के प्रति उपेक्षा धारण करनेवाला दृष्टिकोण अपरसंग्रहनय है । (३) संग्रहनयके विषयभूत पदार्थोंमें विधिपूर्वक भेद करनेवाला अभिप्राय व्यवहारनय है। यथा जो सत् है वह या तो द्रव्य होता है या पर्याय । और जो द्रव्य है उसके जीवादि छह भेद हैं। पर्याय भी दो प्रकारका है-क्रमभावी और सहभावी पर्याय, इत्यादि । तात्पर्य यह है कि वस्तुमें एकत्व (सामान्य) और अनेकत्व (विशेष) दोनों धर्म विद्यमान हैं। संग्रहनय उनमेंसे एकत्वको ग्रहण करता है और व्यवहारनय उनमें अनेकत्व खोजता है। (४) ऋजु अर्थात् सिर्फ वर्तमानकालवर्ती पर्यायको मान्य करनेवाला अभिप्राय ऋजुसूत्रनय है, यथा-इस समय सुखपर्याय है । यहाँ क्षणस्थायी सुख नामक पर्यायको प्रधान माना गया है किन्तु उसके आधार आत्मद्रव्य को गौण कर दिया है अतः विवक्षित नहीं किया गया है। (५) काल, कारक, लिंग, वचन, पुरुष और उपसर्ग (प्र, पर, सम् आदि) का भेद होनेसे जो शब्दके अर्थमें भेद स्वीकार करता है, वह शब्दनय कहलाता है। यथा-(अ) कालभेद-सुमेरु था, है और होगा यहाँ अतीत, वर्तमान और भविष्यत् कालके भेदसे यह नय सुमेरुको भिन्न-भिन्न मानता है । (आ) कारकभेद- कुंभार घटको बनाता है, कुंभारके द्वारा घट बनाया जाता है; यहाँ कर्तृकारक और करणकारकके भेदसे घटमें भेद मानता है । (इ) लिंगभेद-तट, तटी, (या पोथा और पोथी), यहाँ पुंलिंग और स्त्रीलिंगके भेदसे तट और तटीमें भेद मानता है। (ई) वचनभेद- 'दारा' पद बहुवचनान्त है और 'कलत्रम्' एक वचनान्त है। यद्यपि दार और कलत्र शब्द एक ही. अर्थ-पत्नीके वाचक हैं, मगर वचनभेदके कारण यह नय दोनोंका अर्थ पृथक्-पृथक् मानता है। (ड) पुरुषभेद-'यास्यसि त्वम्, यास्यति भवान्' यहाँ मध्यमपुरुष और प्रथमपुरुषके भेदसे भेद मानता है। (ऊ) उपसर्गभेद-'सन्तिष्ठते' 'अवतिष्ठते' इत्यादिपदोंमें मूलधातु एक ही होने पर भी 'सम्' और 'अव' उपसगोंके भेदके कारण शब्दनय अर्थ में भेद स्वीकार करता है ।