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नयपरिच्छेदः २. नयपरिच्छेदः।
(नयानां स्वरूपनिरूपणम् ।) प्रमाणान्युक्तानि । अथ नया उच्यन्ते । प्रमाणपरिच्छिन्नस्यानन्तधर्मात्मकस्य वस्तुन एकदेशग्राहिणस्तदितरांशाप्रतिक्षेपिणोऽध्यवसायविशेषा नयाः । प्रमाणकदेशत्वात् तेषां ततो भेदः । यथा हि समुद्रैकदेशो न समुद्रो नाप्यसमुद्रस्तथा नया अपि न प्रमाणं न वाऽप्रमाणमिति । ते च द्विधा-द्रव्याथिकपर्यायाथिकभेदात् । तत्र प्राधान्येन द्रव्यमात्रग्राही द्रव्याथिकः । प्राधान्येन पर्यायमात्रग्राही पर्यायाथिकः । तत्र द्रव्याविकस्त्रिधा नैगमसंग्रहव्यवहारभेदात् । पर्यायाथिकश्चतुर्धा ऋजुसूत्रशब्दसमभिरूदेवभूतभेदात् । ऋजुसूत्रो द्रव्याथिकस्यैव भेद इति तु जिनभद्रगणिक्षमाश्रमणाः ।
___ तत्र सामान्य विशेषाद्यनेकधर्मोपनयनपरोऽध्यवसायो नैगमः, यथा पर्याययोड़व्ययोः पर्यायद्रव्ययोश्च मुख्यामुख्यरूपतया विवक्षणपरः। अत्र सच्चतन्यमात्मनीति पर्याययोर्मुख्यामुख्यतयाविवक्षणम् । अत्र चैतन्याख्यस्य व्यञ्जनपर्यायस्य विशेष्यत्वेन
नयपरिच्छेद (नयोंका स्वरूप) प्रमाणोंका स्वरूप कहा जा चुका है, अब नयोंका कथन किया जाता है ।
श्रुतप्रमाण के द्वारा गृहीत अनन्त धर्मात्मक वस्तुके एक देश-धर्म-को ग्रहण करनेवाला किन्तु उस गृहीत धर्मसे इतर धर्मोका निषेध या विरोध न करनेवाला अभिप्राय नय कहलाता है।
प्रमाण अनन्तधर्मात्मक समस्त वस्तुका ग्राहक होता है जब कि नय केवल एक धर्मको ग्रहण करता है । इस कारण नय, प्रमाणका एक अंश है । यही प्रमाण और नयमें अन्तर है। जैमे समुद्रका एक अंश न समुद्र कहा जा सकता है और न असमुद्र ही; इसी प्रकार नय न प्रमाण है और न अप्रमाण है-वह प्रमाणका एक अंश है।
नयके दो भेद हैं-(१) द्रव्याथिक नय और (२) पर्यायाथिकनय । प्रधान रूपसे केबल द्रव्यको ही ग्रहण करनेवाला द्रव्यार्थिक और प्रधान रूपसे पर्याय मात्रका ग्राहक पर्यायार्थिक नय है । द्रव्याथिकनय तीन हैं- (१) नैगम (२) संग्रह और (३) व्यवहार । पर्यायार्थिक नय चार प्रकारके हैं-(१) ऋजुसूत्र (२) शब्द (३) समभिरूढ और (४) एवंभूत । किन्तु जिनभद्रगणि क्षमाश्रमणके मतसे ऋजुसूत्र नय द्रव्याथिक नयका ही भेद है।
(१) सामान्य तथा विशेष आदि अनेक धर्मोको ग्रहण करनेवाला अभिप्राय नैगमनय कहलाता है । यह भय दो द्रव्योंमेंसे, दो पर्यायोंमेंसे तथा द्रव्य एवं पर्यायमेंसे किसी एकको मुख्य और दूसरेको गौण कर देता है । जैसे-(अ) ,आत्मामें सत् चैतन्य है' यहाँ सत्त्व और चैतन्य, यह दोनों पर्याय हैं, किन्तु चैतन्य रूप व्यंजन पर्यायको विशेष्य बनाकर मुख्यता