Book Title: Jain Tark Bhasha
Author(s): Shobhachandra Bharilla
Publisher: Tiloakratna Sthanakvasi Jain Dharmik Pariksha Board

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Page 66
________________ ५३ प्रमाणपरिच्छेदः दृष्टान्तादिदोषस्याप्यवश्यं वाच्यत्वापत्तेः। एतेन कालात्ययापदिष्टोऽपि प्रत्युक्तो वेदितव्यः । प्रकरणसमोऽपि नातिरिच्यते, तुल्यबलसाध्यतद्विपर्ययसाधकहेतुद्वयरूपे सत्यस्मिन् प्रकृतसाध्यसाधनयोरन्यथानुपपत्त्यनिश्चयेऽसिद्ध एवान्तर्भावादिति संक्षेपः। (५ आगमप्रमाणनिरूपणम्) आप्तवचनादाविर्भूतमर्थसंवेदनमागमः । न च व्याप्तिग्रहणबलेनार्थप्रतिपादकत्वाद्धूमवदस्यानुमानेऽन्तर्भावः, कूटाकूटकार्षापणप्रवणप्रत्यक्षवदभ्यासदशायां व्याप्तिग्रहनरपेक्ष्यणवास्यार्थबोधकत्वात् । यथास्थितार्थपरिज्ञानपूर्वकहितोपदेशप्रवण आप्तः, वर्णपदवाक्यात्मकं तद्वचनम्, वर्णोऽकारादिः पौद्गलिकः, पदं सङ्केतवत्, अन्योऽन्यापेक्षाणां पदानां समुदायो वाक्यम् । पक्ष-संबंधी दोष हो वहाँ हेतुमें भी अवश्य दोष होना चाहिए, ऐसा कहना उचित नहीं है । अगर पक्षके दोषसे हेतु दूषित माना जाय तब तो दृष्टान्त आदिके दोषसे भी हेतुमें दोष मानना पड़ेगा । इस कथनसे कालात्ययापदिष्ट नामक हेत्वाभासका भी निषेध समझ लेना चाहिए, क्योंकि वह भी निराकृतपक्षाभासमें सम्मिलित है । प्रकरणसमनामक हेत्वाभास भी पृथक् नहीं है जिस हेतुका तुल्यबलवाला विरोधी. हेतु विद्यमान हो वह प्रकरणसम कहलाता है। साध्यको और साध्यविपर्ययको सिद्ध करनेवाले दोनों हेतुओंकी व्याप्ति निश्चित न होनेसे असिद्ध हेत्वाभासमें ही उनका अन्तर्भाव हो जाता है । ५-जो वस्तुस्वरूपका यथार्थ ज्ञाता और यथार्थ वक्ता हो ऐसे आप्त पुरुषके वचनसे उत्पन्न होनेवाला पदार्थका संवेदन 'आगम' कहलाता है। वैशेषिकोंकी मान्यता है कि आगम प्रमाण तो है, किन्तु वह धूमानुमानकी तरह अनुमानमें ही अन्तर्गत है । जैसे अनुमान प्रमाण व्याप्ति-ग्रहणके बलसे अर्थका प्रतिपादन करता है, उसी प्रकार आगम भी। अतएव उसे पृथक् प्रमाण नहीं मानना चाहिए। उनकी मान्यता समीचीन नहीं है । असली या नकली कार्षापण (सिक्का-विशेष) का निर्णय करनेवाला प्रत्यक्ष जैसे अभ्यस्त (परिचित) दशामें व्याप्तिके ग्रहणकी अपेक्षा नहीं रखता और व्याप्तिग्रहणके विना ही अर्थबोधक होता है, उसी प्रकार अनुमान भी अभ्यासदशामें व्याप्तिग्रहणकी अपेक्षा नहीं रखता। अतएव अनुमानमें उसका अन्तर्भाव नहीं हो सकता। (अनभ्यासदशामें जहाँ व्याप्तिग्रहणकी आवश्यकता रहती है वहाँ उसे अनुमानरूप मानने में कोई बाधा नहीं।) जो पुरुष पदार्थके वास्तविक स्वरूपको जान कर हितका उपदेश करने में कुशल हो, वह आप्त कहलाता है। उसके वचन, वर्ण, पद और वाक्यरूप होते हैं। भाषावर्गणाके पुद्गलोंसे बने हुए 'अकार' आदि वर्ण कहलाते हैं। जिसमें किसी अर्थका संकेत होसके अर्थात् जो वर्णसमूह सार्थक हो, वह पद कहलाता है। परस्पर सापेक्ष पदोंका समूह-जिसे अर्थबोध करानेमें किसी अन्य पदकी अपेक्षा न हो, वाक्य कहलाता है।

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