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प्रमाणपरिच्छेदः नेन्द्रियायुनिरोधलक्षणमरणरहितत्वात्, अचेतनाः सुखादयः उत्पत्तिमत्त्वादिति वा।
नन्वन्यतरासिद्धो हेत्वाभास एव नास्ति, तथाहि-परेणासिद्ध इत्युद्भाविते यदि वादी न तत्साधकं प्रमाणमाचक्षीत, तदा प्रमाणाभावादुभयोरप्यसिद्धः। अथाचक्षीत तदा प्रमाणस्यापक्षपातित्वादुभयोरपि सिद्धः। अथ यावन्न परं प्रति प्रमाणेन प्रसाध्यते, तावत्तं प्रत्यसिद्ध इति चेत् ; गौणं तद्यसिद्धत्वम्, न हि रत्नादिपदार्थस्तत्त्वतोऽप्रतीयमानस्तावन्तमपि कालं मुख्यतया तदाभासः। किञ्च, अन्यतरासिद्धो यदा हेत्वाभासस्तदा वादी निगृहीतः स्यात्, न च निगृहीतस्य पश्चादनिग्रह इति युक्तम् । नापि हेतुसमर्थनं पश्चाद्युक्तम्, निग्रहान्तत्वाद्वादस्येति । अत्रोच्यते-यदा वादी सम्यग्घेतुत्वं प्रतिपद्य मानोऽपि तत्समर्थनन्यायविस्मरणादिनिमित्तेन प्रतिवादिनं प्राश्निकान् वा प्रतिबोध यतुं न शक्नोति, असिद्धतामपि नानुमन्यते, तदान्यतरासिद्धत्वेनैव निगृह्यते । तथा, स्वयमनभ्युपगतोऽपि परस्य सिद्ध इत्येतावाने (इत्येतावत) वोपहैं क्योंकि वे विज्ञान, इन्द्रिय और आयुनिरोध रूप मरणसे रहित हैं, यह तथा 'सुख आदि अचेतन हैं, क्योंकि वे उत्पत्तिमान हैं 'यह हेतु अन्यतरासिद्ध है। इनमें प्रथम जैनोंको और दूसरा सांख्यको सिद्ध नहीं है।
शङ्का-कोई हेत्वाभास अन्यतरासिद्ध हो ही नहीं सकता। वादीने हेतुका प्रयोग किया और प्रतिवादीने उसमें असिद्धता दोषका उद्भावन किया। ऐसी स्थितिमें यदि वादी उसे सिद्ध करने के लिये कोई प्रमाण उपस्थित न करे तो प्रमाण के अभावमें दोनोंके लिए ही वह असिद्ध हो जायगा, इसके विपरीत यदि वादी साधक प्रमाण उपस्थित कर दे तो दोनोंके लिये सिद्ध हो जायगा । प्रमाण पक्षपाती नहीं होता कि एकके लिये सिद्ध कर दे और दूसरे के लिये न करे । कदाचित् कहा जाय कि जबतक प्रतिवादीके प्रति प्रमाणसे सिद्ध नहीं किया गया तबतक उसके लिये असिद्ध होनेसे अन्यतरासिद्ध हेतु कहलाता है, तो यह असिद्धता गौण है, वास्तविक नहीं । कोई रत्न आदि पदार्थ जबतक रत्न आदिके रूप में प्रतीत न हो तबतक वह वास्तव में रत्नाभास नहीं कहा जा सकता। इसके अतिरिक्त अन्यतरासिद्ध यदि हेत्वाभास है तो उसका प्रयोग करनेसे वादी निग्रहस्थानको प्राप्त हो जाएगा और निगृहीतका फिर अनिग्रह होना युक्त नहीं है । निगृहीत हो जाने के पश्चात् हेतुका समर्थन करना भी योग्य नहीं है, क्योंकि निगृहीत होनेपर वादका अन्त हो जाता है।
. समाधान-जब वादी सम्यक् हेतुको स्वीकार करता हुआ भी उसके समर्थन करनेवाली युक्तिके विस्मरण आदि किसी कारणसे प्रतिवादीको या प्राश्निकों (सम्यों) को समझा नहीं सकता और अपने हेतुकी असिद्धताको भी स्वीकार नहीं करता, तब अन्यतरासिद्धसे ही वह निगृहीत हो जाता है । इसके अतिरिक्त, जिस हेतुको वादी स्वयं स्वीकार न करता हो किन्तु प्रतिवादीको सिद्ध है, ऐमा समझकर प्रयुक्त कर दे तो वह हेतु अन्यतरासिद्ध होता है