Book Title: Jain Tark Bhasha
Author(s): Shobhachandra Bharilla
Publisher: Tiloakratna Sthanakvasi Jain Dharmik Pariksha Board

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Page 63
________________ जैन तर्क भाषा द्वितीयोऽविरुद्धानुपलब्धिनामा प्रतिषेध्याविरुद्धस्वभावव्यापककार्यकारणपूर्वचरोत्तरचरसहचरानुपलब्धिभेदात् सप्तधा। यथा नास्त्यत्र भूतले कुम्भः, उपलब्धिलक्षणप्राप्तस्य तत्स्वभावस्यानुपलम्भात् । नास्त्यत्र पनसः, पादपानुपलब्धेः । नास्त्यत्राप्रतिहतशक्तिकम् बीजम्, अंकुरानवलोकनात् । न सन्त्यस्य प्रशमप्रभृतयो भावाः, तत्त्वार्थश्रद्धानाभावात् । नोद्गमिष्यति मुहूर्तान्ते स्वातिः, चित्रोदयादर्शनात् । नोदगमत्पूर्वभद्रपदा मुहूर्तात्पूर्वम्, उत्तरभद्रपदोद्गमानवगमात् । नास्त्यत्र सम्यग्ज्ञानम्, सम्यग्दर्शनानुपलब्धेरिति । सोऽयमनेकविधोऽन्यथानुपपत्त्येकलक्षणो हेतुरुक्तोऽतोऽन्यो हेत्वाभासः। ( हेत्वाभासनिरूपणम् ) स त्रेधा-असिद्धविरुद्धानकान्तिकभेदात् । तत्राप्रतीयमानस्वरूपो हेतुरसिद्धः । स्वरूपाप्रतीतिश्चाज्ञानात्सन्देहाद्विपर्ययाद्वा । स द्विविधः-उभयासिद्धोऽन्यतरासिद्धश्च । आद्यो यया शब्द: परिणामी चाक्षुषत्वादिति । द्वितीयो यथा अचेतनास्तरवः, विज्ञा ____ जो हेतु स्वयं निषेध रूप हो और निषेधका ही साधक हो, वह 'अविरुद्धानुपलब्धि' है साध्यसे अविरुद्ध (१) स्वभावानुपलब्धि आदि उसके सात भेद कहे जाते हैं। १-स्वभावानुपलब्धि-इस भूतलपर कुंभ नहीं है, क्योंकि वह उपलब्धि के योग्य होने पर भी उपलब्ध नहीं हो रहा है । २-व्यापकानुपलब्धि-यहाँ पनस नहीं है, क्योंकि वृक्ष नहीं है । ३-कार्यानुपलब्धि-यहाँ अप्रतिहत शक्तिवाला-जिसके सामर्थ्य में कोई रुकावट न हो ऐसा बीज नहीं है, क्योंकि अंकुर नहीं देखा जाता है। ४-कारणानुपलब्धि-इस पुरुष में प्रशम आदि भाव नहीं हैं, क्योंकि तत्त्वार्थ-श्रद्धाका अभाव है। ५-पूर्वचरानुपलब्धि- मुहूर्त के बाद स्वाति नक्षत्रका उदय नहीं होगा, क्योंकि इस समय चित्राका उदय नहीं है । ६- उत्तरचरानुपलब्धि- मुहूर्त से पहले पूर्वभद्रपदाका उदय नहीं हुवा है क्योंकि इस समय उत्तरभद्रपदाका उदय नहीं है । ७ - सहचरानुपलब्धि-इस पुरुषमें सम्यग्ज्ञान नहीं है, क्योंकि सम्यग्दर्शन की अनुपलब्धि है। एक मात्र अन्यथानुपपत्ति लक्षणवाला हेतु अनेक प्रकारका कहा गया है । जो हेतु इससे भिन्न है अर्थात् जिसमें निश्चित अन्यथानुपपत्ति नहीं है, वह हेतु नहीं, है हेत्वाभास है। हेत्वाभास-इसके तीन भेद हैं- (१) असिद्ध (२) विरुद्ध और (३) अनैकान्तिक । जिस हेतुका स्वरूप अप्रतीत हो । सिद्ध न हो, वह असिद्ध हेत्वाभास कहलाता है । हेतु के स्वरूप का ज्ञान न होनेसे, उसमें संदेह होनेसे या विपर्यय होने से उसकी अप्रतीति होती है। असिद्ध हेत्वाभास दो प्रकार का है- उभयासिद्ध अर्थात् जो वादी और प्रतिवादीदोनोंको सिद्ध न हो और अन्यतरासिद्ध अर्थात् जो दोनोंमें से किसी एक को सिद्ध न हो।' शब्द परिणामी है, क्योंकि वह चक्षु इन्द्रियका विषय है, यह हेतु उभयासिद्ध है । 'वृक्ष अचेतन

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