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जैन तर्क भाषा
न्यस्तो हेतुरन्यतरासिद्धो निग्रहाधिकरणम्, यथा सांख्यस्य जैनं प्रति 'अचेतना: सुखादय उत्पत्तिमत्त्वात् घटवत्' इति ।
___ साध्यविपरीतव्याप्तो विरुद्धः। यथा अपरिणामी शब्दः कृतकत्वादिति । कृतकत्वं द्यपरिणामित्वविरुद्धेन परिणामित्वेन व्याप्तमिति।
। यस्यान्यथानुपपत्तिः सन्दिह्यते सोऽनकान्तिकः । स द्वेधा-निर्णीतविपक्षवृत्तिकः सन्दिग्धविपक्षवृत्तिकश्च । आद्यो यथा नित्यः शब्दः प्रमेयत्वात् । अत्र हि प्रमेयत्वस्य वृत्तिनित्ये व्योमादौ सपक्ष इव विपक्षेऽनित्ये घटादावपि निश्चिता। द्वितीयो यथा अभिमतः सर्वज्ञो न भवति वक्तृत्वादिति । अत्र हि वक्तृत्वं विपक्षे सर्वज्ञे संदिग्धवृत्तिकम्, सर्वज्ञः किं वक्ताऽऽहोस्विन्नेति सन्देहात् । एवं स श्यामो मित्रापुत्रत्वादित्याद्यप्युदाहार्यम्।
अकिञ्चित्कराख्यश्चतुर्थोऽपि हेत्वाभासभेदो धर्मभूषणेनोदाहृतो न श्रद्धयः । सिद्धसाधनो बाधितविषयश्चेति द्विविधस्याप्यप्रयोजकाह वयस्य तस्य प्रतीत-निराकृताख्यपक्षाभासभेदानतिरिक्तत्वात् । न च यत्र पक्षदोषस्तत्रावश्यं हेतुदोषोऽपि वाच्यः, और वह निग्रहका स्थान है । जैसे सांख्य, जैनोंके प्रति कहे-'सुख आदि अचेतन हैं, क्योंकि वे उत्पत्तिमान् हैं' जैसे घट । यहाँ उत्पत्तिमत्त्व स्वयं सांख्यको अभिमत नहीं है तथापि जैनों को अभिमत समझकर वह प्रयुक्त करता है। अतएव यह हेतु अन्यतरासिद्ध है ।
. जो हेतु साध्यसे विपरीतके साथ व्याप्त हो वह विरुद्ध हेत्वाभास कहलाता है । जैसेशब्द अपरिणामी है, क्योंकि वह कृतक है । यहाँ कृतकत्व हेतुकी अपरिणामित्व साध्यसे विरुद्ध परिणामित्वके साथ व्याप्ति है।
जिस हेतुकी व्याप्ति संदिग्ध हो, वह अनैकान्तिक कहलाता है। इसके दो भेद हैं(१) निर्णीतविपक्षवृत्तिक अर्थात् जिसका विपक्ष में रहना निश्चित हो और (२) संदिग्धविपक्षवृत्तिक अर्थात् जिसका विपक्षमें रहना संदिग्ध हो । 'शब्द' नित्य है, क्योंकि प्रमेय है । यह निर्णीतविपक्षवृत्तिक अनैकान्तिक हेत्वाभास है। यहाँ प्रमेयत्व हेतु जिस प्रकार आकाश आदि सपक्षमें रहता है, उसी प्रकार विपक्ष अनित्य घट आदिमें भी निश्चित रूपसे रहता है। 'विवक्षित पुरुष सर्वज्ञ नहीं है, क्योंकि वह वक्ता है' यह संदिग्धविपक्षवृत्तिक है यहाँ वक्तृत्व हेतुका विपक्ष सर्वज्ञमें रहना संदिग्ध है, क्योंकि क्या सर्वज्ञ वक्ता होता है । अथवा नहीं ? ऐसा सन्देह होता है । इसी प्रकार 'गर्भस्थ मित्रपुत्र श्याम है, क्योंकि वह मित्राका पुत्र है' इत्यादि उदाहरण भी यहाँ समझ लेने चाहिए।
धर्मभूषणने अकिंचित्कर नामक चौथा हेत्वाभासका भेद बतलाया है । वह श्रद्धेय नहीं है । अकिंचित्करके दो भेद हैं-सिद्धसाधन और बाधितविषय । मगर यह दोनों प्रकारका अप्रयोजक हेत्वामास प्रतीतपक्षाभास और निराकृतपक्षाभासमें अन्तर्गत हो जाता है। जहाँ