Book Title: Jain Tark Bhasha
Author(s): Shobhachandra Bharilla
Publisher: Tiloakratna Sthanakvasi Jain Dharmik Pariksha Board

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Page 21
________________ जैन तर्क भाषा पत्तेः। मृतनष्टादिवस्तुचिन्तने, इष्टसंगमविभवलाभादिचिन्तने च जायमानौ दौर्बल्योरः क्षतादि-वदनविकासरोमाञ्चोद्गमादिलिंगकावुपघातानुग्रहौ न मनसः, किन्तु मनस्त्वपरिणतानिष्टेष्टपुद्गल निचयरूपद्रव्यमनोऽवष्टम्भेन हृन्निरुद्धवायुभेषजाभ्यामिव जीवस्यैवेति न ताभ्यां मनसः प्राप्यकारित्वसिद्धिः। ननु यदि मनो विषयं प्राप्य न परिच्छिनत्ति तदा कथं प्रसुप्तस्य 'मेर्वादौ गतं मे मनः' इति प्रत्यय इति चेत्, न; मेर्वादौ शरीरस्येव मनसो गमनस्वप्नस्यासत्यत्वात्, अन्यथा विबुद्धस्य कुसुमपरिमलाद्यध्वजनितपरिश्रमाद्यनुग्रहोपघातप्रसंगात् । ननु स्वप्नानुभूतजिनस्नात्रदर्शन-समीहितार्थालाभयोरनुग्रहोपघातौ विबुध (ख) स्य सतो दृश्यते एवेति चेत्; दृश्येतां स्वप्नविज्ञानकृतौ तौ, स्वप्नविज्ञानकृतं क्रियाफलं तु तृप्त्यादिकं नास्ति, यतो विषयप्राप्तिरूपा प्राप्यकारिता मनसो युज्यतेति ब्रूमः । क्रियाफलमपि स्वप्ने व्यञ्जनवि प्रिय स्वजनकी मृत्यु और इष्ट वस्तुके विनाशके चिन्तनसे जो दुर्बलता, उर:क्षत आदि मनका उपघात होता है, अथवा इष्ट वस्तुके लाभ और वैभव आदिकी प्राप्तिका चिन्तन करनेसे वदनविकास और रोमांच हो जाने आदिसे प्रतीत होनेवाला अनुग्रह होता है, वह उपघात और अनुग्रह मनका नहीं होता; किन्तु मनरूपसे परिणत शुभ-अशुभ पुद्गल-पिंडरूप द्रव्य मनकी सहायतासे जीवका होता है । जैसे हृदयमें वायुके रुक जानेसे जीवका उपघात और औषधसे जीवका अनुग्रह होता है, उसी प्रकार इष्ट-अनिष्टके चिन्तनसे भी जीवका ही अनुग्रह और उपघात होता है । अतएव इस प्रकारके अनुग्रह और उपघातसे मन प्राप्यकारी सिद्ध नहीं होता। ___शंका- यदि मन विषयको स्पर्श करके नहीं जानता तो सुप्त पुरुषको ऐसा भान क्यों होता है कि- 'मेरा मन मेरु आदि पर गया' ? समाधान-जैसे मेरु पर शरीरके जानेका स्वप्न असत्य है उसी प्रकार मनके मेरुगमनका स्वप्न भी असत्य है । शरीरके मेरुगमनका स्वप्न असत्य न हो तो नन्दनवनके पुष्पोंके सौरभ आदिके कारण अनुग्रह और मार्ग चलनेके परिश्रमके कारण थकावटका अनुभव होना चाहिए। शंका- स्वप्नमें अनुभूत जिन भगवान्के अभिषेकको देखनेसे और इष्ट अर्थकी अप्राप्तिसे, जागने पर भी अनुग्रह और उपघात देखा जाता है । इसका क्या कारण है ? समाधान-वह अनुग्रह और उपघात स्वप्नमें होनेवाले विज्ञानसे होते हैं, स्वप्नसे नहीं, किन्तु स्वप्न-विज्ञानद्वारा की जाने वाली क्रियाका तृप्ति आदि फल नहीं होता है जिससे कि मनकी विषयप्राप्तिरूप प्राप्यकारिता सिद्ध हो सके ! शंका-स्वप्नमें स्त्रीसंभोग करनेसे वीर्यपातरूप क्रिया-फल भी तो देखा जाता है ?

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