Book Title: Jain Tark Bhasha
Author(s): Shobhachandra Bharilla
Publisher: Tiloakratna Sthanakvasi Jain Dharmik Pariksha Board

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Page 25
________________ जैन तर्क भाषा अर्थावग्रहेऽव्यक्तशब्दश्रवणस्यैव सूत्रे निर्देशात्, अव्यक्तस्य च सामान्यरूपत्वादनाकारोपयोगरूपस्य चास्य तन्मात्रविषयत्वात् । यदि च व्यञ्जनावग्रह एवाव्यक्तशब्दग्रहणमिष्येत तदा सोऽप्यर्थावग्रहः स्यात्, अर्थस्य ग्रहणात् । १ केचित्तु-'संकेतादिविकल्पविकलस्य जातमात्रस्य बालस्य सामान्यग्रहणम्, परिचितविषयस्य त्वाद्यसमय एव विशेषज्ञानमित्येतदपेक्षया 'तेन शब्द इत्यवगृहीतः' इति नानुपपन्नम्'-इत्याहुः; तन्न; एवं हि व्यक्ततरस्य व्यक्तशब्दज्ञानमतिक्रम्यापि सुबहुविशेषग्रहप्रसङ्गात् । न चेष्टापत्तिः; 'न पुनर्जानाति क एष शब्दः' इति सूत्रावयवस्याविशेषणोक्तत्वात्, प्रकृष्टमतेरपि शब्दं मिणमगृहीत्वोत्तरोत्तरसुबहुधर्मग्रहणानुपपत्तेश्च। ___ अन्ये तु-'आलोचनपूर्वकमर्थावग्रहमाचक्षते, तत्रालोचनमव्यक्तसामान्यग्राहि, अर्थावग्रहस्त्वितरव्यावृत्तवस्तुस्वरूपग्राहीति न सूत्रानुपपत्तिः'-इति; तदसत्; समाधान-'शब्द' 'शब्द' ऐसा तो प्ररूपक ही अपनी तरफसे कहता है, अर्थावग्रहमें तो अव्यक्त ( अस्पष्ट ) शब्दका श्रवण होना ही सूत्रमें कहा गया है । अव्यक्त वस्तु सामान्यरूप ही होती है और निराकार उपयोग सामान्यको ही विषय करता है, अगर व्यंजनावग्रहमें ही अव्यक्त शब्दका ग्रहण मान लिया जाय तो वह भी अर्थावग्रह हो जायगा. क्योंकि उसने अर्थ (सामान्य) का ग्रहण किया है १ कोई-कोई ऐसा कहते हैं कि जो संकेत आदि विकल्पोंसे रहित है, अर्थात् जिसने शब्द और अर्थका संकेत नहीं समझा है, ऐसा तत्काल जन्मा हआ बालक सिर्फ सामान्यको ग्रहण करता है, किन्तु जो विषयसे परिचित है, उसे पहले समयमें ही विशेषका ज्ञान हो जाता है । इसी अपेक्षासे उसने 'शब्द' ग्रहण किया, यह कहा गया है। अतएव यह कथन अयुक्त नहीं है । उनका यह कहना भी ठीक नहीं, इस तरह तो जो ज्यादा समझदार है-विद्वान् है- वह व्यक्त शब्दज्ञानसे भी आगे बढ़ कर शब्दगत बहुत से विशेषोंको ग्रहण करने लग जायगा। अगर कोई कहे कि यह तो इष्टापत्ति ही है, अर्थात हम ऐसा मानते ही हैं, सो ठीक नहीं, क्योंकि इस सूत्रमें आगे यह भी कहा गया है कि वह यह नहीं जानता कि किसका क्या यह शब्द है?" सूत्रका यह भाग सभी-नासमझ-समझदार के लिए समानरूपसे ही कहा गया है, सिर्फ नासमझके लिए नहीं । अतएव अति उत्कृष्ट बुद्धिवाला भी शब्दधर्मी ( सामान्य ) को ग्रहण किये विना उत्तरोत्तर बहुत-से धर्मों को-मधुरता-कर्कशता आदि को नहीं ग्रहण कर सकता। कोई-कोई कहते हैं-अर्थावग्रह आलोचनपूर्वक होता है, इसमें अप्रकट सामान्य (शब्दमात्र) को ग्रहण करनेवाला आलोचन होता है और अन्यव्यावृत्त वस्तु ( यथा रूप रस आदिसे भिन्न शब्द ) के स्परूप को अर्थावग्रह ग्रहण करता है। ऐसी व्याख्या करनेसे नन्दी सूत्रका उक्त कथन ठीक बैठ जाता है।

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