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जैन तर्क भाषा
च 'अयं गवयपदवाच्यः' इति प्रतीत्यथं प्रत्यभिज्ञातिरिक्तं प्रमाणमाश्रीयते तदा आमलकादिदर्शनाहित संस्कारस्य बिल्वादिदर्शनात् 'अतस्तत् सूक्ष्मम्' इत्यादिप्रतीत्यर्थं प्रमाणान्तरमन्वेषणीयं स्यात् । मानसत्वे चासामुपमानस्यापि मानसत्वप्रसंगात् । 'प्रत्यभिजानामि' इति प्रतीत्या प्रत्यभिज्ञानत्वमेवाभ्युपेयमिति दिक् ।
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( ३ तर्कस्य निरूपणम् । )
सकल देशकालाद्यवच्छेदेन साध्यसाधनभावादिविषय ऊहस्तर्कः, यथा 'यावान् कश्चिद्धमः स सर्वो वह्नौ सत्येव भवति, र्वाहन विना वा न भवति' 'घटशब्दमात्रं घटस्य वाचकम्' घटमात्रं घटशब्दवाच्यम्' इत्यादि । तथा हि-स्वरूपप्रयुक्ताऽव्यभिचारलक्षणायां व्याप्तौ भूयो दर्शनसहितान्वयव्यतिरेक सहकारेणापि प्रत्यक्षस्य तावद - विषयत्वादेवाप्रवृत्तिः, सुतरां च सकलसाध्यसाधनव्यक्त्युपसंहारेण तद्ग्रह इति
'यह गवय शब्दका वाच्य है ऐसी प्रतीतिके लिए अगर प्रत्यभिज्ञानसे अलग उपमान प्रमाण माना जायगा तो आंबले के दर्शनसे प्राप्त संस्कारवाला पुरुष जब बिल्व ( बेल ) को देखेगा और उसे 'इससे वह छोटा है, ऐसी प्रतीति होगी तो इस प्रकारकी प्रतीतियोंके लिए उपमान से अलग प्रमाण मानने पड़ेंगे ।
कदाचित् 'यह उससे छोटा है, यह उससे बड़ा है, यह उससे विलक्षण हैं' इत्यादि प्रतीतियोंको मानसिक ज्ञान मानो तो फिर उपमानका भी मानस ज्ञान ही मान लेना चाहिए तात्पर्य यह है कि 'प्रत्यभिजानामि' इस प्रकारकी प्रतीति से इन सब संकलनात्मक ज्ञानोंको प्रत्यभिज्ञान ही स्वीकार करना चाहिए ।
३ समस्त देश और समस्त काल-संबंधी साध्य - साधनभाव ( अविनाभावव्याप्ति) आदि ( वाच्यवाचकभाव ) को जानने वाला ज्ञान तर्क है । जैसे 'जो भी कोई धूम होता है, वह सब अग्नि होने पर ही होता है. अग्निके बिना नहीं होता । ' तथा जो-जो घट शब्द होते हैं, वे सब घट (अर्थ) के वाचक होते हैं, जो-जो घट पदार्थ हैं, वे सब 'घट' शब्दके वाच्य होते हैं, इत्यादि ।
स्वाभाविक अव्यभिचार* रूप व्याप्तिमें भूयोदर्शन - सहित अन्वय और व्यतिरेकंकी सहायता से भी प्रत्यक्ष की प्रवृत्ति नहीं हो सकती, क्यों कि व्याप्ति प्रत्यक्षका विषय ही नहीं है । आशय यह है कि प्रत्यक्ष इन्द्रियसम्बद्ध और वर्तमानकालीन वस्तुको ही जान सकता है, त्रिकाल - त्रिलोक-संबंधी व्याप्तिको नहीं, किन्तु सकल साध्य और साधनके उपसंहार-द्वारा
* अव्यभिचार दो प्रकारका है अनोपाधिक और सोपाधिक, जहाँ धूम होता है वहाँ अग्नि होती है. यहाँ नपाधिक अव्यभिचार है । यही स्वाभाविक अव्यभिचार कहलाता है । किन्तु जहाँ अग्नि होती है वहाँ धूम होता है, यहाँ सोपाधिक अव्यभिचार है, क्योंकि यहाँ गीले ईंधनका संयोग रूप उपाधि है, असल में व्याप्ति वही है जहाँ स्वाभाविक अनोपाधिक अव्यभिचार हो ।