Book Title: Jain Tark Bhasha
Author(s): Shobhachandra Bharilla
Publisher: Tiloakratna Sthanakvasi Jain Dharmik Pariksha Board

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Page 52
________________ प्रमाणपरिच्छेदः रादीनामभ्युपगमा (त् साधनवैफल्या) दित्यनन्वयादिदोषदुष्टमेतत्सांख्यसाधनमिति वदन्ति । स्वार्थानुमानावसरेऽपि परार्थानुमानोपयोग्यभिधानम्, परार्थस्य स्वार्थपुरःसरत्वेनानतिभेदज्ञापनार्थम् । व्याप्तिग्रहणसमयापेक्षया साध्यं धर्म एव, अन्यथा तदनुपपत्तः, आनुमानिकप्रतिपत्त्यवसरापेक्षया तु पक्षापरपर्यायस्तद्विशिष्टः प्रसिद्धो धर्मी । इत्थं च स्वार्थानुमानस्य त्रीण्यङ्गानि धर्मी साध्यं साधनं च । तत्र साधनं गमकत्वेनांगम्, साध्यं तु गम्यत्वेन, धर्मी पुनः साध्यधर्माधारत्वेन, आधारविशेषनिष्ठतया साध्याद्धे (साध्यसिद्धे)-रनुमानप्रयोजनत्वात् । अथवा पक्षो हेतुरित्यंगद्वयं स्वार्थानुमाने, साध्यधर्मविशिष्टस्य धर्मिणः पक्षत्वात् इति धर्मधर्मभेदाभेदविवक्षया पक्षद्वयं द्रष्टव्यम् । . का अभिप्राय 'आत्मार्थ' न माना जाय तो यह अनुमान ही व्यर्थ हो जाएगा, क्यों कि चक्षु आदि इन्द्रियोंको संहतपरार्थ रूपमें तो बौद्ध भी स्वीकार करते ही हैं, किन्तु वे पर अर्थात् आत्माको नहीं मानते अतएव इस अनुमानके द्वारा आत्मसिद्धि कराना सांख्यको इष्ट है । बौद्ध सांख्यके इस साधनको अनन्वय आदि दोषोंसे दुष्ट कहते हैं। तात्पर्य यह है कि सोध्य वादीकी इच्छानुरूप ही होता है। इसी कारण आत्माका अस्तित्व सिद्ध करने के लिए सांख्य जब कहता है कि चक्षु आदि परार्थ हैं, तो उसका अर्थ 'आत्मार्थ है; यही समझा जाता है । स्वार्थानुमानके प्रकरणमें परार्थानुमानके समय उपयोगी होनेवाले विषयका कथन यह दिखलाने के लिए किया है कि परार्थानुमान, स्वार्थानुमान-पूर्वक होता है; अतः दोनों में बहुत अधिक अन्तर नहीं है। व्याप्तिग्रहग के समय की अपेक्षा धर्म ही साध्य होता है । उस समय अगर धर्म को ही साध्य न बनाया जाय और धर्मी (पक्ष-पर्वत) को भो साध्य बना लिया जाय तो व्याप्ति बन नहीं सकेगी। जैसे-जहाँ धूम होता है वहाँ अग्नि होती है, इस तरह व्याप्ति बनती है, परन्तु जहाँ धूम होता है, वहाँ पर्वतमें अग्नि होती है, ऐसी व्याप्ति नहीं बन सकती । ___अनुमान करते समय साध्यधर्मसे युक्त धर्मी साध्य होता है। धर्मीको पक्ष भी कहते हैं और वह धर्मी प्रसिद्ध होता है। (अनुमान करते समय सिर्फ यही कहा जाय कि-अग्नि है, क्यों कि धूम है तो यह कहना चूक हो जायगा, क्यों कि इससे अग्नि सामान्य की ही सिद्धि होगी और उसे सिद्ध करना व्यर्थ है-वह तो सिद्ध ही है।) इस प्रकार स्वार्थानुमान के तीन अंग हैं-धर्मी, साध्य और साधन । साधन गमक होने के कारण, साध्य गम्य होने के कारण और धर्मी साध्य का आधार होने के कारण अंग हैं । किसी खास आधार में ही साध्य को सिद्ध करना अनुमान का प्रयोजन होता है । अथवा-स्वार्थानुमानमें पक्ष और हेतु यही दो अंग होते हैं; क्यों कि साध्य धर्मसे . युक्त धर्मी पक्ष कहलाता है। इस प्रकार धर्म और धर्मीके भेदकी विवक्षाकी जाय तो तीन

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