Book Title: Jain Tark Bhasha
Author(s): Shobhachandra Bharilla
Publisher: Tiloakratna Sthanakvasi Jain Dharmik Pariksha Board

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Page 54
________________ ૪૨ प्रमाणपरिच्छेदः अत्र बौद्धः सत्तामात्रस्यानभीप्सितत्वाद्विशिष्टसत्तासाधने वानन्वयाद्विकल्पसिद्धे धर्मिणि न सत्ता साध्येत्याह; तदसत्; इत्थं सति प्रकृतानुमानस्यापि भङ्गप्रसङ्गात्, वह्निमात्रस्यानभीप्सितत्वाद्विशिष्टवनेश्चानन्वयादिति । अथ तत्र सत्तायां साध्यायां तद्धेतुः- भावधर्मः, भावाभावधर्मः, अभावधर्मो वा स्यात् ? आद्येऽसिद्धि:, असिद्धसत्ताके भावधर्मासिद्धेः । द्वितीये व्यभिचारः, अस्तित्वाभाववत्यपि वृत्तेः । तृतीये च विरोधाभा ( विरोधोऽभा) वधर्मस्य भावे क्वचिदप्यसम्भवात्, तदुक्तम्"नासिद्धे भावधर्मोऽस्ति व्यभिचार्युभयाश्रयः । धर्मो विरुद्धोऽभावस्य सा सत्ता साध्यते कथम् ? ॥" ( प्रमाणवा० १.१९२ ) इति चेत्; न; इत्थं बहिनमद्धर्मत्वादिविकल्पैर्धूमेन वहन्यनुमानस्याप्युच्छेदापत्तेः । विकल्पस्याप्रमाणत्वाद्विकल्पसिद्धो धर्मो नास्त्येवेति नैयायिकः । तस्येत्थं वचनस्यैवानुपपत्तेस्तूष्णीम्भावापत्तिः, विकल्पसिद्धधर्मिणोऽप्रसिद्धौ तत्प्रतिषेधानुपपत्तेरिति । इदं त्ववधेयम् - विकल्पसिद्धस्य धर्मिणो नाखण्डस्यैव भानम सत्ख्यातिप्रसंगा 1 बौद्धोंने परस्पर विलक्षण, क्षणिक, निरंश और विशेष पदार्थोंको ही वास्तविक तत्त्व स्वीकार किया है । वे सत्ता (सामान्य) को स्वीकार नहीं करते । अतः कहते हैं- विकल्पसिद्ध धर्मी में जो सत्ता सिद्ध की जाती हैं, वह सामान्य सत्ता है या विशिष्ट सता? सामान्य सत्ता सिद्ध करना अभीष्ट नहीं है और विशिष्ट सत्ता सिद्ध की जायगी तो अन्वय ( व्याप्ति) नहीं बनेगीं । अतएव विकल्पसिद्ध धर्मीमें सत्ता साध्य नहीं हो सकती । उनका यह कहना असत् है । इस प्रकार तो धूमसे अग्निके अनुमानका भी अभाव हो जायगा । वहाँ भी यही कहा जा सकता है कि धूम हेतु से अग्नि- सामान्य सिद्ध करना है या कोई विशिष्ट अग्नि ? सामान्य अग्नि सिद्ध करना अभीष्ट नहीं, क्योंकि वह तो सिद्ध ही है। विशिष्ट अग्निको सिद्ध करना है तो व्याप्ति नहीं बन सकती । अर्थात् जहाँ घूम होता है, वहाँ विशेष अग्नि ( पर्वतनिष्ठ अग्नि) होती है, ऐसा अन्वय नहीं बन सकता । नैयायिका कथन है- 'विकल्प अप्रमाण होता है, अतएव विकल्पसिद्ध धर्मी नहीं हो सकता, अर्थात् जब विकल्प स्वयं अप्रमाण है तो उससे धर्मीकी सिद्धि कैसे हो सकती है ? मगर उसका इस प्रकार कहना ही संगत नहीं है । यदि विकल्पसिद्ध धर्मी नहीं है तो उसका निषेध करनेके लिए उसे मौन ही रहना चाहिए । विकल्पसिद्ध धर्मीकी प्रसिद्धि के अभाव में उसका निषेध भी नहीं हो सकता । तात्पर्य यह है - विकल्पसिद्ध धर्मी नहीं है' इस प्रतिज्ञावाक्य में 'विकल्पसिद्ध धर्मी स्वयं विकल्पसिद्ध धर्मी है । उसे स्वीकार किये विना उसका निषेध नहीं हो सकता । यहाँ ध्यान देने योग्य तथ्य यह है - विकल्पसिद्ध धर्मीका ज्ञान तीन प्रकारसे हो सकता है - अखण्ड रूपसे, विशिष्ट रूपसे या खण्डशः प्रसिद्ध रूपसे । अखण्ड रूपसे उसका ज्ञानमानने से असत्व्याप्तिका प्रसंग आता है ( वह जैनसिद्धान्त से विरुद्ध है, क्योंकि जैनदर्शनने असत्का

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