Book Title: Jain Tark Bhasha
Author(s): Shobhachandra Bharilla
Publisher: Tiloakratna Sthanakvasi Jain Dharmik Pariksha Board

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Page 53
________________ ४० जैन तर्क भाषा धर्मिणः प्रसिद्धिश्च क्वचित्प्रमाणात् क्वचिद्विकल्पात् क्वचित्प्रमाणविकल्पाभ्याम् । तत्र निश्चितप्रामाण्यकप्रत्यक्षाद्यन्यतमावधृतत्वं प्रमाणप्रसिद्धत्वम् । अनिश्चित-- प्रामाण्याप्रामाण्यप्रत्ययगोचरत्वं विकल्पप्रसिद्धत्वम् । तद्वयविषयत्वं प्रमाणविकल्पप्रसिद्धत्वम् । तत्र प्रमाणसिद्धो धर्मी यथा धूमवत्त्वादग्निमत्त्वे साध्ये पर्वतः, स खलु प्रत्यक्षेणानुभूयते । विकल्पसिद्धो धर्मी यथा सर्वज्ञोऽस्ति सुनिश्चितासम्भवद्वाधकप्रमाणत्वादित्यस्तित्वे साध्ये सर्वज्ञः, अथवा खरविषाणं नास्तीति नास्तित्वे साध्ये खरविषाणम् । अत्र हि सर्वज्ञखरविषाणे अस्तित्वनास्तित्वसिद्धिभ्यां प्राग विकल्पसिद्धे। उभयसिद्धो धर्मी यथा शब्दः परिणामी कृतकत्वादित्यत्र शब्दः, स हि वर्तमान (नः) प्रत्यक्षगम्यः, भूतो भविष्यंश्च विकल्पगम्यः, स सर्वोऽपि धर्माति प्रमाणविकल्पसिद्धो धर्मी। प्रमाणोभयसिद्धयोधर्मिणोः साध्ये कामचारः । विकल्पसिद्धे तु धर्मिणि सत्तासत्तयोरेव साध्यत्वमिति नियमः। तदुक्तम् "विकल्पसिद्ध तम्मिन् सत्तेतरे साध्ये" (परी. ३. २३) इति। अंग हैं और अभेदकी विवक्षा करके पक्षको अंग माना जाय तो दो ही अंग हैं ; यह दोनों ही पक्ष समझ लेना चाहिए। धर्मीकी सिद्धि कहीं प्रमाणसे, कहीं विकल्पसे और कहीं प्रमाण-विकल्प-दोनोंसे होती है। जिसकी प्रमाणता निश्चित है ऐसे प्रत्यक्ष आदिमें से किसी भी प्रमाणसे जो निश्चत हो वह प्रमाण-सिद्ध धर्मी कहलाता है । जिनकी न प्रमाणता सिद्ध है और न अप्रमाणता ही सिद्ध है, ऐसे ज्ञानसे जो सिद्ध हो वह विकल्पसिद्ध धर्मी कहलाता है। जो प्रमाण और विकल्प-दोनोंसे सिद्ध हो उसे, उभयसिद्ध धर्मी कहते हैं । पर्वत अग्निमान् है, क्यों कि धूमवान् है, यहाँ पर्वत प्रमाणसिद्ध धर्मी है, क्यों कि पर्वत प्रत्यक्ष प्रमाणसे दिखाई देता है। ___'सर्वज्ञ है, क्यों कि बाधक प्रमाणोंका अभाव सुनिश्चित है।' यहाँ अस्तित्व साध्यमें 'सर्वज्ञ विकल्प-सिद्ध धर्मी है। या खरविषाण नहीं है ; यहाँ नास्तित्व साध्यमें खरविषाण विकल्पसिद्ध धर्मी है। यहाँ सर्वज्ञ और खरविषाणमें अस्तित्व और नास्तित्वकी सिद्धि होने से पहले वे विकल्पसिद्ध हैं। ___ 'शब्द परिणामी है, क्यों कि कृतक है; यहाँ शब्द धर्मी उभय-सिद्ध है । क्यों कि वर्तमानकालीन शब्द प्रत्यक्षसिद्ध है और भूत-भविष्यत्कालीन विकल्पसिद्ध है । प्रमाणसिद्ध और विकल्पसिद्ध धर्मीमें इच्छानुसार किसी भी धर्मको साध्य बनाया जा सकता है; किन्तु विकल्पसिद्ध धर्मीमें सत्ता या असत्ता ही साध्य होते हैं। ऐसा नियम है । परीक्षामुख में कहा भी है-'विकल्पसिद्ध धर्मीमें सत्ता और असत्ता ही साध्य होते हैं।'

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