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जैन तर्क भाषा
प्रतिपत्त्यर्थमप्रतीतमिति विशेषणम् । प्रत्यक्षादिविरुद्धस्य साध्यत्वं मा प्रसाइ.क्षीदित्यनिराकृतग्रहणम् । अनभिमतस्यासाध्यत्वप्रतिपत्तयेऽभीप्सितग्रहणम् ।
कथायां शङ्कितस्यैव साध्यस्य साधनं युक्तमिति कश्चित् तन्न; विपर्यस्ताव्युत्पन्नयोरपि परपक्षदिक्षादिना कथायामुपसर्पणसम्भवेन संशयनिरासार्थमिव विपर्ययानध्यवसायनिरासार्थमपि प्रयोगसम्भवात्, पित्रादेविपर्यस्ताव्युत्पन्नपुत्रादिशिक्षणप्रदानदर्शनाच्च । न चेदेवं जिगीषुकथायामनुमानप्रयोग एव न स्यात्, तस्य साभिमानत्वेन विपर्यस्तत्वात् ।
__ अनिराकृतमिति विशेषणं वादिप्रतिवाद्युभयापेक्षया, द्वयोः प्रमाणेनाबाधितस्य कथायां साध्यत्वात् । अभीप्सितमिति तु वाद्यपेक्षयव, वक्तुरेव स्वाभिप्रेतार्थप्रतिपादनायेच्छासम्भवात् । ततश्च परार्थाश्चक्षुरादय इत्यादौ पारार्थ्यमात्राभिधानेऽप्यात्मार्थत्वमेव सायं (०मेव साध्यं) सिध्यति । अन्यथा संहतपरार्थत्वेन बौद्धश्चक्षु
जिसमें शंका हो, विपरीत ज्ञान हो रहा हो या अनध्यवसाय हो वही वस्तु साध्य होती है, यह सूचित करनेके लिए 'अप्रतीत' पदका प्रयोग किया है। जो प्रत्यक्ष आदिसे बाधित है-वह साध्य न हो जाय, यह सूचित करने के लिए 'अनिराकृत' पद रक्खा है । जिसे वादी स्वयं ही स्वीकार नहीं करता, उसकी असाध्यता प्रकट करनेके लिए 'अभीप्सित' पदका प्रयोग किया गया है।
किसी-किसी का कहना है कि कथा (वाद) में संदिग्ध साध्य को सिद्ध करना ही उचित है; किन्तु यह कथन ठीक नहीं । क्यों कि विपर्यस्त (विपरीत धारणा वाला) और अव्युत्पन्न (जिसे किसी पक्ष का ज्ञान न हो वह) भी परकीय पक्षको देखने-जाननेकी इच्छासे वादमें उतर सकता है । अतएव जैसे संशयका निवारण करनेके लिए अनुमानप्रयोग किया जाता है, उसी प्रकार विपर्यय और अनध्यवसायका निवारण करने के लिए भी अनमानका प्रयोग हो सकता है। लोक में भी माता-पिता आदि अपने विपर्यस्त और अव्यत्पन्न पुत्र आदिको शिक्षा देते देखे जाते हैं । अगर ऐसा न माना जाय तो जिगीषुवादम अनुमानका प्रयोग ही नहीं होना चाहिए, क्योंकि जिगीषुकथामें प्रतिवादी अभिमान- युक्त होनेके कारण विपर्यस्त होता है-संदेहग्रस्त नहीं होता।
साध्यके लक्षण में 'अनिराकृत' विशेषण वादी और प्रतिवादी दोनोंकी अपेक्षा है। जो प्रमाणसे बाधित न हो उसे ही दोनोंको साध्य बनाना चाहिए ।
'अभीप्सित' विशेषण सिर्फ वादी की अपेक्षासे है; क्योंकि वादीको ही अपने इप्ट अर्थका प्रतिपादन करनेकी इच्छा हो सकतो है । अतएव 'चक्षु आदि इन्द्रियाँ परार्थ हैं, इस स्थल पर सामान्य रूप से परार्थ मात्र कहने पर भी 'आत्मार्थ साध्य होता है । यहाँ 'परार्थ'