Book Title: Jain Tark Bhasha
Author(s): Shobhachandra Bharilla
Publisher: Tiloakratna Sthanakvasi Jain Dharmik Pariksha Board

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Page 49
________________ जैन तर्क भाषा ननु यद्येवं पक्षधर्मताऽनुमितो नांगं तदा कथं तत्र पक्षभाननियम इति चेत्; क्वचिदन्यथाऽनुपपत्त्यवच्छेदकतया ग्रहणात् पक्षभानं यथा नभश्चन्द्रास्तित्वं विना जलचन्द्रोऽनुपपन्न इत्यत्र, क्वचिच्च हेतुग्रहणाधिकरणतया यथा पर्वतो वहिनमान् धूमवत्त्वादित्यत्र धूमस्य पर्वते ग्रहणाद्वनरपि तत्र भानमिति । व्याप्तिग्रहवेलायां तु पर्वतस्य सर्वत्रानुवृत्त्यभावेन न ग्रह इति । यत्तु अन्तर्व्याप्त्या पक्षीयसाध्यसाधनसम्बन्धग्रहात् पक्षसाध्यसंसर्गभानम्, तदुक्तम्-"पक्षीकृत एव विषये साधनस्य साध्येन व्याप्तिरन्ताप्तिः, अन्यत्र तु बहि प्तिः" (प्र. न. ३. ३८) इति; तन्न; अन्तर्व्याप्त्या हेतोः साध्यप्रत्यायनशक्तौ सत्यां बहिर्याप्तेरुद्भावनव्यर्थत्वप्रतिपादनेन तस्याः स्वरूपप्रयुक्त (क्ता) व्यभिचारलक्षणत्वस्य, बहियाप्तेश्च सहचारमात्रत्वस्य लाभात्, सार्वत्रिक्या व्याप्तेविषयभेदमात्रेण भेदस्य दुर्वचत्वात् । न चेदेवं तदान्ताप्तिग्रहकाल एष एव (काल एव) धर्मत्व घटित करेंगे तो जगत्को पक्ष बनाकर काककी कृष्णतारूप हेतुसे प्रासादकी धवलता भी सिद्ध हो जायगी । अर्थात् यह जगत् प्रासादकी धवलतावान् है, क्योंकि काककी कृष्णतावान् है, यहाँ भी पक्षधर्मत्व घटित हो जायगा। शङ्का- अगर पक्षधर्मता अर्थात् हेतुका पक्षके धर्मरूपसे होना, यह अनुमितिका अंग नहीं है तो अनुमितिमें पक्षके ज्ञानका नियम कैसे सिद्ध होगा? समाधान-पक्षका ज्ञान कहीं-कहीं अन्यथानुपपत्तिके अवच्छेदक-विशेषणरूपमें हो जाता है, जैसे-'आकाश-चन्द्र के विना जल-चन्द्र संभव नहीं', यहाँ पर होता है । कहीं-कहीं हेतु-ग्रहणके आधारके रूप में पक्षका ज्ञान हो जाता है । 'जैसे-पर्वत अग्निमान् है, क्योंकि धूमवान् है', इस स्थलपर धूमका पर्वतमें ग्रहण होता है, अतः अग्निका भी पर्वतमें ही भान होता है । हाँ, व्याप्ति-ग्रहणके समय पर्वतकी सर्वत्र अनुवृत्ति नहीं, अतः वहाँ उसका भान भी नहीं होता । कोई कहते हैं- अन्तर्व्याप्तिके द्वारा पक्षगत साध्य-साधनसंबंधका ग्रहण होनेसे पक्ष और साध्यके संसर्गका भान हो जाता है। कहा भी है- पक्ष बनाये हुए ही विषयमें साधनकी साध्यके साथ व्याप्ति होना अन्तर्व्याप्ति है, और पक्षसे भिन्न विषयमें साधनकी साध्यके साथ व्याप्ति होना वहिर्व्याप्ति है । यह मान्यता संगत नहीं है; क्योंकि अन्तर्व्याप्ति के द्वारा हेतुकी साध्यको बतलानेकी शक्ति होनेपर बहिर्व्याप्तिका प्रकट करना (कहना) व्यर्थ बतलाया गया है । इससे यही लब्ध होता है कि अन्तर्व्याप्ति स्वाभाविक अप्मचार वाली है और वहिर्व्याप्ति उसकी सहचारिणी मात्र है । सर्वत्र-समस्त व्यक्तियों में समान रूपसे रहनेवाली व्याप्तिमें सिर्फ विषयके भेदसे भेद करना योग्य नहीं । अगर अन्तर्व्याप्तिमें पक्षधर्मत्वका भान होता ही है, ऐसा माना जाय तो अन्तर्व्याप्तिका ज्ञान होते समय ही यह

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