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जैन तर्क भाषा
ऽवधारयन्तो (यतो) ऽन्त्यावयवश्रवण-पूर्वावयवस्मरणोपजनितवर्णपदवाक्यविषयसङ्कलनात्मकप्रत्यभिज्ञानवत आवापोद्वापाभ्यां सकलव्यक्त्युपसंहारेण च वाच्यवाचकभावप्रतीतिदर्शनादिति । अयं च तर्कः सम्बन्धप्रतीत्यन्तरनिरपेक्ष एव स्वयोग्यतासामर्थ्यात्सम्बन्धप्रतीति च नयतीति नानवस्था।
प्रत्यक्षपृष्ठभाविविकल्परूपत्वान्नायं प्रमाणमिति बौद्धाः; तन्न; प्रत्यक्षपृष्ठभाविनो विकल्पस्यापि प्रत्यक्षगृहीतमात्राध्यवसायित्वेन सर्वोपसंहारेण व्याप्तिग्राहकत्वाभावात् । ताद्दशस्य तस्य सामान्यविषयस्याप्यनुमानवत् प्रमाणत्वात्, अवस्तुनिर्भासेऽपि परम्परया पदार्थप्रतिबन्धेन भवतां व्यवहारतःप्रामाण्यप्रसिद्धः। यस्तु-अग्निधूमव्यतिरिक्तदेशे प्रथमं धूमस्यानुपलम्भ एकः, तदनन्तरमग्नेरुपलम्भस्ततो धूमस्येकि 'घट' शब्द इस पदार्थका वाचक है । उसी समय वह घ् +अ + ट् + अके अन्तिम अवयव 'अ' का श्रवण करता है, पूर्व अवयव 'घ' का स्मरण करता है। इस श्रवण और स्मरणसे उसे वर्ण, पद, वाक्य और विषयका संकलनात्मक प्रत्यभिज्ञान उत्पन्न होता है । तत्पश्चात् आवाप और उद्वापके द्वारा समस्त व्यक्तियोंका उपसंहार करके अर्थात् जो-जो घट शब्द होते हैं, वे सब घटपदार्थके वाचक होते हैं और जो-जो घट पदार्थ होते हैं, वे सब घट शब्दके वाच्य होते हैं, इस प्रकारके वाच्य-वाचकभावकी उसे प्रतीति होती है, ऐसा देखा जाता है।
यह तर्क प्रमाण किसी दूसरे संबंध के ज्ञानकी अपेक्षा न रखता हुआ अपने ही सामर्थ्यके बलसे अविनाभाव या वाच्य-वाचकभावका ज्ञान उत्पन्न कर देता है, अतएव अनवस्था दोषके लिए कोई अवकाश नहीं है।
बौद्ध कहते हैं- तर्क, प्रत्यक्षके पश्चात् होनेवाला विकल्परूप ज्ञान है, अतएव वह प्रमाण १ नहीं है । उनका कहना ठीक नहीं। प्रत्यक्षके पश्चात् उत्पन्न होनेवाला विकल्प, प्रत्यक्ष द्वारा जाने हुए पदार्थको ही जान सकता है, उससे भिन्न पदार्थको नहीं; अतएव सर्वोपसंहार करके (समस्त धूम अग्निको व्याप्त करके) व्याप्तिका ग्राहक नहीं हो सकता। तर्क विकल्परूप होकर भी और सामान्यका ग्राहक होकर भी अनुमानकी तरह प्रमाण ही है। अवस्तु (सामान्य) के ज्ञान (अनुमान) में भी, परम्परासे पदार्थ (विशेष) का संबंध होनेके कारण, बौद्धोंने प्रमाणता मानी है।
किसी की मान्यता है कि-अग्नि और धूमसे रहित प्रदेशमें किसीको पहले-पहल धूम का एक अनुपलंभ हुआ-अर्थात् धूम मालूम नहीं हुआ। उसके पश्चात् अग्निका उपलंभ हुआ और फिर धूम का उपलंभ हुआ, इस तरह दो उपलंभ हुए। तत्पश्चात् अग्निका अनुपलंभ हुआ
१- बौद्ध निर्विकल्प ज्ञानको ही प्रमाण मानते हैं। २- सामान्यका ज्ञापक होनेपर भी मनुमानको बौद्धोंने प्रमाण माना है।