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प्रमाणपरिच्छेदः
अन्यस्तु क्षिप्रम्, शीघ्रमेव परिच्छेदात् । इतरस्त्वमा चिर्विमन्धिकलमात् । परस्त्वनिश्रितम्, लिगं विना स्वरूपत एव परिच्छेदात्
बिपतम, लिंगनिश्रयाऽऽकलनात् । [कश्चित्तु निश्चितम्, विरुद्धधर्मानालिंगितत्वेनावगतेः। इतरस्त्वनिश्चितम्, विरुद्धधर्माङ्किततयावगमात् । ] अन्यो ध्रुवम् बहुवादिरूपेणावगतस्य सर्वदैव तथा बोधात् । अन्यस्त्वध्रुवम्, कदाचिद्बह्वादिरूपेण कदाचित्त्वबवादिरूपेणाबगमादिति । उक्ता मतिभेदाः ।
( श्रुतज्ञानं चतुर्दशधा विभज्य तन्निरूपणम् । ) . श्रुतभेदा उच्यन्ते-श्रुतम् अक्षर-सज्ञि-सम्यक्-सादि-सपर्यवसित-गमिकाऽङ्गप्रविष्टभेदैः सप्रतिपक्षश्चतुर्दशविधम् । तत्राक्षरं त्रिविधम्-सञ्ज्ञा-व्यञ्जन-लब्धिभेदात्। सज्ञाक्षरं बहुविधलिपिभेदम्, व्यञ्जनाक्षरं भाष्यमाणमकारादि-एते चोपचारात् श्रुते। लब्ध्यक्षरं तु इन्द्रियमनोनिमित्तः श्रुतोपयोगः, तदावरणक्षयोपशमो वा । एतच्च परोपदेशं विनापि नासम्भाव्यम्, अनाकलितोपदेशानामपि मुग्धानां गवादीनां च शब्द(५) कोई क्षिप्र-शीघ्र ही जान लेता है (६) कोई अक्षिप्र देर तक सोच-विचार करके जानता है । (७) कोई अनिश्रित को अर्थात् लिंगके विना स्वरूपसे ही जान लेता है। (८) कोई लिंग के आधारसे जानता है [ (९) कोई निश्चितको-विरुद्ध धर्मोसे रहित वस्तुको जानता है। (१० कोई अनिश्चित को अर्थात् विरुद्ध धर्मोंसे युक्त रूपमें जानता है। ] (.११) कोई ध्रुव रूपसे अर्थात् बहु अदि रूपसे जाने हुए पदार्थको सर्वदा बहु आदि रूपसे ही जानता है (१२) कोई अध्रुव रूपसे अर्थात् कभी बहुरूपसे तो कभी अबहुरूपसे जानता है । मति भेद कहे जा चुके ।
अब श्रुतज्ञान के भेद कहे जाते हैं । श्रुतज्ञःन चौदह प्रकार का है- (१) अक्षरश्रुत (२) अनक्षरश्रुत (३) संज्ञिश्रुत (४) असंज्ञिश्रुत (५) सम्यक्श्रुत (६) मिथ्याश्रुत (७) सादिश्रुत (८) अनादिश्रुत (९) सपर्यवसितश्रुत (१०) अपर्यवसितश्रुत (११) गमिकश्रुत (१२) अगमिक श्रुत (१३) अंगप्रविष्टश्रुत (१४) अनंगप्रविष्ट-अंगबाह्यश्रुत ।
अक्षर तीन प्रकार के हैं-(१) संज्ञाक्षर (२) व्यंजनाक्षर और (३) लब्धि-अक्षर । नाना प्रकार की लिपियों के अक्षर संज्ञाक्षर कहलाते हैं और बोले जाने वाले 'अ' आदि अक्षर व्यंजनाक्षर कहलाते हैं। यह दोनों प्रकार के अक्षर ज्ञानरूप न होने के कारण उपचार से ही श्रुत कहलाते हैं । इन्द्रिय और मन के निमित्त से होनेवाला श्रुतज्ञान का उपयोग अथवा श्रुतज्ञानावरण का क्षयोपशम लब्ध्यक्ष र है । श्रुत यह परोपदेश के विना भी असंभव नहीं है ; अर्थात् अक्षरश्रुत यद्यपि परोपदेश-जनित होता है, तथापि यह परोपदेश जन्यता संज्ञाक्षर और व्यंजनाक्षर के लिए ही समझनी चाहिए, लब्ध्यक्षरश्रुत क्षयोपशम आदि से 'परोपदेश के विना भी हो सकता है; क्यों कि जिन्हें उपदेश का लाभ नहीं हुआ ऐसे मुग्ध