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प्रमाणपरिच्छेदः
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बाह्यानर्थान् पुनस्तदन्यथाऽनुपपत्त्याऽनुमानेनैव परिच्छिनत्तीत्ति द्रष्टव्यम् । तद् द्विविधम्-ऋजुमति- विपुलमतिभेदात् । ऋज्वी सामान्यग्राहिणी मतिः ऋजुमतिः । सामान्यशब्दोऽत्र विपुलमत्यपेक्षबाऽल्पविशेषपरः, अन्यथा सामान्यमात्रग्राहित्वे मनःपर्यायदर्शनप्रसंगात् । विपुला विशेषग्राहिणी मतिविपुलमतिः । तत्र ऋजुमत्या घटादिमात्रमनेन चिन्तितमिति ज्ञायते, विपुलमत्या तु पर्यायशतोपेतं तत् परिच्छिद्यत इति । एते च द्वे ज्ञाने विकलविषयत्वाद्विकलप्रत्यक्षे परिभाष्येते । ( ३ - केवलज्ञानस्य निरूपणम् । )
निखिलद्रव्यपर्यायसाक्षात्कारि केवलज्ञानम् । अत एवैतत्सकलप्रत्यक्षम् । तच्चावरणक्षयस्य हेतोरक्याद्भेदरहितन् । आवरणं चात्र कर्मैव, स्वविषयेऽप्रवृत्तिमतोऽ
मन:पर्ययज्ञान मनकी पर्यायोंको चिन्तनीय पदार्थके निमित्तसे उत्पन्न होनेवाली आकृतियोंअवस्थाओं-परिणामोंको ही प्रत्यक्ष रूपसे जानने में समर्थ होता है । मनमें जिन बाह्य पदार्थों का चिन्तन किया जाता है, वे पदार्थ अनुमानसे हीं जाने जाते हैं । मनः पर्यायज्ञानी ऐसा अनुमान करता है कि 'अमुक पदार्थका चिन्तन किये विना मनकी अमुक प्रकारकी आकृति नहीं हो सकती ।' इसप्रकार की अन्यथानुपपत्ति से वह बाह्य घट-पट आदि पदार्थोंको भी जान लेता है ।
मन:पर्ययज्ञान दो प्रकारका है - ऋजुमति और विपुलमति । ऋजु अर्थात् सामान्यको ग्रहण करनेवाली मति ऋजुमति है । यहाँ सामान्यका अर्थ है विपुलमतिकी अपेक्षा थोडे विशेष धर्म । अगर ऋजुमति विशेष धर्मोको न जाने और सिर्फ सामान्य को ही जाने तो वह मन:पर्याय दर्शन हो जायगा ।
विपुल अर्थात् बहुत से विशेषोंको जानने वाली मति विपुलमति कहलाती है । ऋजुमति से इतना ही मालूम होता है कि इसने घटका चिन्तन किया है, विपुलमतिसे वही घट सैकडों पर्यायों - सहित मालूम होता है । अभिप्राय यह है कि ऋजुमति मन की स्थूल पर्यांयोंको प्रत्यक्ष करता है, अतएव उनसे बाहय पदार्थोंकी भी थोडी सी ही विशेषताओं को समझ पाता है । विपुलमति मनकी पर्यायोंकी सूक्ष्मतर विशेषताओं को भी प्रत्यक्ष करता है, अतएव वह बाह्य पदार्थों की भी सैकडों विशेषताओं का अनुमान कर लेता है ।
अवधिज्ञान और मनः पर्यायज्ञान विकल - विषयक अर्थात् समस्त पदार्थों को न जान कर सिर्फ रूपी पदार्थोंको ही जानते हैं, अतएव इन्हें विकलप्रत्यक्ष कहते हैं ।
३- समस्त द्रव्यों और समस्त पर्यायोंको प्रत्यक्ष करनेवाला ज्ञान केवलज्ञान है । यह ज्ञान समस्त पदार्थों को जानता है । अतः यह सकल प्रत्यक्ष कहलाता है । केवलज्ञानका कारण आवरण का क्षयरूप एक ही है, अतएव केवल ज्ञानके भेद नहीं हैं वह एक ही प्रकारका है ।
यहाँ आवरण कर्म ही समझना चाहिए। अपने विषय में प्रवृत्ति न करनेवाला हम लोगों