Book Title: Jain Tark Bhasha
Author(s): Shobhachandra Bharilla
Publisher: Tiloakratna Sthanakvasi Jain Dharmik Pariksha Board

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Page 31
________________ १८ जैन तर्क भाषा ज्ञानजननस्वाभाव्यात् क्वचिदभ्यस्तेऽपायमात्रस्य दृढवासने विषये स्मृतिमात्रस्य चोपलक्षणेऽप्युत्पलपत्रशतव्यतिभेद इव सौक्षम्यादवग्रहादिक्रमानुपलक्षणात् । तदेवम् अर्थावग्रहादयो मनइन्द्रियः षोढा भिद्यमाना व्यञ्जनावग्रहचतुर्भेदैः सहाष्टाविंशतिर्मतिभेदा भवन्ति । अथवा बहु-बहुविध-क्षिप्रा-ऽनिश्रित-निश्चित-ध्रुवैः सप्रतिपक्षादशभिर्भेदैभिन्नानामेतेषां षट्त्रिंशदधिकानि त्रीणि शतानि भवन्ति । बह वादयश्च भेदा विषयापेक्षाः; तथाहि-कश्चित् नानाशब्दसमूहमाणितं बहुं जानाति-'एतावन्तोत्र शंखशब्दा एतावन्तश्च पटहादिशब्दाः' इति पृथग्भिन्नजातीयं क्षयोपशमविशेषात् परिच्छिनत्तीत्यर्थः । अन्यस्त्वल्पक्षयोपशमत्वात् तत्समानदेशोऽप्यबहुम् । अपरस्तु क्षयोपशमवैचित्र्यात् बहुविधम्, एककस्यापि शंखादिशब्दस्य स्निग्धत्वादिबहुधर्मान्वितत्वेनाप्याकलनात् । परस्त्वबहुविधम्, स्निग्धत्वादिस्वल्पधर्मान्वितत्वेनाकलनात्। किसी-किसी परिचित विषय में सिर्फ अपाय ही सीधा हो गया जान पड़ता है और जिस विषय में दृढ़ वासना होती है उसमें सीधी स्मृति हुई जान पड़ती है, फिर भी ऐसा होता नहीं है । जैसे कमल के सौ पत्ते, एकके बाद दूसरा और दूसरेके बाद तीसरा, इस प्रकार क्रमसे ही छेदे जाते हैं, उसी प्रकार अवग्रह, ईहा, अपाय और धारणा भी ऋमसे ही होते हैं; सिर्फ जल्दी-जल्दी हो जाने के कारण उनका क्रम मालूम नहीं होता। भेद-प्रभेद अर्थावग्रह, ईहा, अपाय और धारणामेसे प्रत्येक ज्ञान मन और पाँच इद्रियोसे-छह निमित्तोंसे उत्पन्न होता है. अतः सबके मिलकर चौवीस भेद होते हैं । इनमें चार प्रकार का व्यंजनावग्रह (पहले बतलाया जा चुका है कि व्यंजनावग्रह चक्षु ओर मनसे नहीं होता; उसके चार ही भेद हैं ।) मिला देने से मतिज्ञान के अट्ठाईस भेद हो जाते हैं। अथवा- बहु, बहुविध, क्षिप्र, अनिश्रित, निश्चित और ध्रुव तथा इनके उलटे अबहु, अबहुविध, अक्षिप्र, निश्रित, अनिश्चित और अध्रुव, इन बारह भेदों के साथ पूर्वोक्त २८ भेदों का गुणाकार करनेसे मतिज्ञानके तीन सौ छत्तीस भेद होते हैं। अट्ठाईस भेद कारणकी अपेक्षासे हैं और बहु आदि बारह भेद विषयकी अपेक्षासे हैं। बारह भेदोंका स्पष्टीकरण इस भाँति है-(१) कोई सुने हुए नाना शब्दसमूहों में से क्षयोपशमकी विशेषताके कारण पृथक्-पृथक् भिन्नजातीय बहु-बहुतको जानता है, जैसे इनमें शंखके इतने शब्द हैं और पटह आदिके इतने शब्द हैं। (२) दूसरा कोई व्यक्ति क्षयोपशमकी अल्पताके कारण उसी जगहपर स्थित हो कर भी इसप्रकार नहीं जान पाता वह अबहुको जानता है। (३) कोई तीसरा व्यक्ति क्षयोपशमकी विचित्रताके कारण एक-एक शंख आदिके शब्दको भी स्निग्धता- कोमलता-आदि बहुतसे धर्मों-सहित जानता है। (४) कोई इससे विपरीत-अबहुविध जानता है, अर्थात् स्निग्धता आदि स्वल धर्मोसे युक्त जानता है।

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