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प्रमाणपरिच्छेदः
१५ . १. ईहितस्य विशेषनिर्णयोऽवायः; यथा 'शब्द एवायम्', शाङ्खएवायम्' इति वा।
स एव दृढतमावस्थापन्नो धारणा। सा च त्रिविधा-अविच्युतिः, स्मृतिः, वासना च । तत्रैकार्थोपयोगसातत्यानिवृत्तिः अविच्युतिः। तस्यैवार्थोपयोगस्य कालान्तरे 'तदेव' इत्युल्लेखेन समुन्मीलनं स्मृतिः । अपायाहितः स्मृतिहेतुः संस्कारो वासना। द्वयोरवग्रहयोरवग्रहत्वेन च तिसृणां धारणानां धारणात्वेनोपग्रहान्न विभागव्याघातः।
__ केचित्तु-अपनयनमपायः, धरणं च धारणेति व्युत्पत्त्यर्थमात्रानुसारिण:'असद्भतार्थविशेषव्यतिरेकावधारणमपायः, सद्भतार्थविशेषावधारणं च धारणा'इत्याहः; तन्न; क्वचित्तदन्यव्यतिरेकपरामर्शात्, क्वचिदन्वयधर्मसमनुगमात्, क्वचि
नाना धर्मोका बोध होना संशय है। संशय विशेषकी ओर झुका हुवा नहीं होता, ईहाज्ञान विशेषकी ओर अभिमुख होता है । इस कारण यह संशयसे भिन्न है ।
अपायका स्वरूप १. ईहा द्वारा जाने हुए पदार्थमें विशेषका निश्चय हो जाना अपाय है । जैसे यह शब्द ही है' । अथवा 'यह शंखका ही शब्द है'।
धारणाका स्वरूप वह अपाय ही दृढतम अवस्थाको प्राप्त होकर धारणा कहलाता है । धारणा तीन प्रकारकी है (१) अविच्युति (२) स्मृति और (३) वासना । किसी एक पदार्थ-संबंधी उपयोगकी सततताका बना रहना-उपयोगका जारी रहना अविच्युति है। एक बार उपयोगके हट जानेपर फिर कालान्तरमें 'वह' इस प्रकारसे उसी पदार्थका उपयोग उत्पन्न होना, अर्थात् पहले जाने हुए पदार्थका पुनः याद हो जाना स्मृति है । अपायज्ञानसे प्राप्त होनेवाला और स्मृतिका जनक संस्कार वासना है ।
पूर्वोक्त दोनों अवग्रहों- व्यंजनावग्रह और अर्थावग्रहका सामान्य अवग्रहमें तथा तीनों प्रकारको धारणाओंका एक सामान्य धारणामें ही संग्रह हो जाता है, अतएव मतिज्ञानके पहले बतलाये चार भेदोंमें कोई बाधा नहीं आती। अपाय और धारणा शब्दोंके केवल व्युत्पत्ति-अर्थका अनुसरण करनेवाले कोई-कोई कहते हैं-अपनयन करना (हटाना) अपाय है, अर्थात् वस्तुमें जो धर्म नहीं पाये जाते उनके निषेधका निश्चय करना अपाय है। और धारण करना धारणा है, अर्थात् वस्तुमें जो विद्यमान धर्म हैं उनका निश्चय करना धारणा है । जैसे- 'यह रूप, रस या अन्य कुछ नहीं है, यह निश्चय हो जाना अपाय, और 'शब्द ही है' यह निश्चय होना धारणा है।
यह मान्यता ठीक नहीं । अपाय कहीं अविद्यमान धर्मों के निषेधका निश्चय करता हुआ, कहीं विद्यमान धर्मके सद्भावका निश्चय करता हुआ और कहीं दोनों प्रकारसे होता