Book Title: Jain Tark Bhasha
Author(s): Shobhachandra Bharilla
Publisher: Tiloakratna Sthanakvasi Jain Dharmik Pariksha Board

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Page 19
________________ बन तक भाषा संकेतकाले श्रुतानुसारित्वेऽपि व्यवहारकाले तदनुसारित्वात्, अभ्यासपाटववशेन श्रुतानुसरणमन्तरेणापि विकल्पपरम्परापूर्वकविविधवचनप्रवृत्तिदर्शनात् । अंगोपांगादौ शब्दाद्यवग्रहणे च श्रुताननुसारित्वान्मतित्वमेव, यस्तु तत्र श्रुतानुसारी प्रत्ययस्तत्र श्रुतत्वमेवेत्यवधेयम् । ( मतिज्ञानस्य अवग्रहादिभेदेन चातुर्विध्यप्रकटनम् । ) १ मतिज्ञानम्-अवग्रहेहापायधारणाभेदाच्चतुर्विधम् । अवकृष्टो ग्रहः-अवग्रहः । स द्विविधः-व्यञ्जनावग्रहः, अर्थावग्रहश्च । व्यज्यते प्रकटीक्रियतेऽर्थोऽनेनेति व्यञ्जनम्-कदम्बपुष्पगोलकादिरूपाणामन्तनिवृत्तीन्द्रियाणां शब्दादिविषयपरिच्छेदहेतुशक्तिविशेषलक्ष गमुपकरणेन्द्रियम्,शब्दादिपरिणतद्रव्य निकुरुम्बम्,तदुभयसम्बन्धश्च । ततो व्यञ्जनेन व्यञ्जनस्यावग्रहो व्यञ्जनावग्रह इति मध्यमपदलोपी समासः। २ अथ अज्ञानम् अयं बधिरादीनां श्रौत्रशब्दादिसम्बन्धवत् तत्काले ज्ञानानुपलम्भादिति चेत् समाधान-श्रुतनिश्रित अवग्रह आदि भी जब संकेतका ज्ञान कराते हैं, तब श्रुतानुसारि होते हैं । व्यवहार कालमें तो उन्हें श्रुतके अनुसरणकी आवश्यकता नहीं होती । अभ्यासकी अति पटुताके कारण, श्रुतानुसरण न होते हुए भी केवल विकल्पोंकी परम्पराके आधारसे विविध प्रकारके शब्दोंकी प्रवृत्ति देखी जाती है । अंग-उपांग आदि शास्त्रोंका शब्दविषयक अवग्रह आदि श्रुतानुसारि नहीं होता, अतएव वह मतिज्ञान ही है, किन्तु उन शब्दोंके बोधके बाद जो अर्थज्ञान होता है, वह श्रुतानुसारि होनेसे श्रुतज्ञान कहा जाता है। . मतिज्ञान के भेद १ मतिज्ञान चार प्रकारका है- अवग्रह, ईहा, अपाय, और धारणा। अवग्रहके दो भेद हैं-व्यंजनावग्रह और अर्थावग्रह । जिसके द्वारा अर्थ व्यक्त-प्रकट किया जाय वह 'व्यंजन' कहलाता है । व्यंजनके तीन अर्थ हैं। ?-कदम्बके फूल तथा गोलक आदि आभ्यन्तर निर्वृत्तिरूप इन्द्रियोंकी श द आदि विषयोंको ग्रहण करनेकी कारणभूत शक्ति, जिसे उपकरणेन्द्रिय कहते हैं, 'व्यंजन' कहलाती है । २ शब्द आदिके रूपमें परिणत पुद्गल द्रव्योंका समूह भी व्यंजन कहलाता है ३) तथा उपकरणेन्द्रिय और विषयका संबंध भी व्यंजन कहलाता है । अतएव व्यंजन ( उपकरणेन्द्रिय ) के द्वारा व्यंजन (विषय ) का ग्रहण होना व्यंजनावग्रह है । व्यंजनावग्रहमें मध्यमपदलोपी समास है, अर्थात् 'व्यंजनव्यंजनावग्रह' मेसे बीचके 'व्यंजन' पदका लोप हो गया है । २ शंका-जसे बहिरे आदमीके कानोंके साथ शब्दका संबंध होनेपर भी ज्ञान उत्पन्न नहीं होता, उसी प्रकार व्यंजनावग्रहके समय भी ज्ञानोत्पत्ति नहीं होती, अतः व्यंजनावग्रह ज्ञान नहीं, अज्ञान है।

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