Book Title: Jain Tark Bhasha
Author(s): Shobhachandra Bharilla
Publisher: Tiloakratna Sthanakvasi Jain Dharmik Pariksha Board

View full book text
Previous | Next

Page 18
________________ प्रमाणपरिच्छेदः ( सांव्यवहारिकप्रत्यक्षस्य निरूपणम्, मतिश्रुतयोविवेकश्च । ) १ एतच्च द्विबिधम्-इन्द्रियजम्, अनिन्द्रियजं च। तत्रेन्द्रियजं चक्षुरादिजनितम्, अनिन्द्रियजं च मनोजन्म । यद्यपीन्द्रियजज्ञानेऽपि मनो व्यापिपति; तथापि तत्रेन्द्रियस्यैवासाधारणकारणत्वाददोषः। द्वयमपीदं मतिश्रुतभेदाद् द्विधा। तत्रेन्द्रियमनोनिमित्तं श्रुताननुसारि ज्ञानं मतिज्ञानम्, श्रुतानुसारि च श्रुतज्ञानम् । श्रुतानुसारित्वं च संकेतविषयपरोपदेशं श्रुतग्रन्थं वाऽनुसृत्य वाच्यवाचकभावेन संयोज्य 'घटो घटः' इत्याद्यन्तर्जन्या (जल्पा) कारग्राहित्वम् । २ नन्वेवमवग्रह एव मतिज्ञानं स्यान्नत्वीहादयः,, तेषां शब्दोल्लेखसहितत्वेन श्रुतत्वप्रसङ्गादिति चेत्, न; श्रुतनिश्रितानामप्यवग्रहादीनां क्यों कि हम (छद्मस्थ) लोगोंका प्रत्यक्ष, सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष-इन्द्रिय और मनकी सहायतासे, आत्माके व्यापारसे उत्पन्न होता है, अतः वह अनुमानके समान वास्तवमें परोक्ष ही है । इन्द्रियजन्य और मनोजन्य ज्ञान वास्तवमें परोक्ष हैं, क्योकि उनमें संशय, विपर्यय और अनध्यवसाय हो सकते हैं, जैसे असिद्ध विरुद्ध और अनैकान्तिक अनुमान । जैसे शाब्द-ज्ञान संकेत की सहायतासे होता है और अनुमान व्याप्तिके स्मरणसे उत्पन्न होता है, अतएव वे परोक्ष हैं, इसी प्रकार सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष इन्द्रिय और मनसे व्यवहित आत्मव्यापारकी सहायतासे उत्पन्न होता है, अतएव वह भी परोक्ष है। सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष और मतिश्रुत ज्ञान १ सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष दो प्रकारका है-(१) इन्द्रियज और (२) अनिन्द्रियज । चक्षु आदि इन्द्रियोंसे उत्पन्न होनेवाला इन्द्रियज कहलाता है और मनोजनितको अनिन्द्रियज कहते हैं । यहाँ यह बात ध्यान रखने योग्य है कि इन्द्रियजनित ज्ञान में भी मनका व्यापार होता है-मनकी सहायताके विना वह नहीं हो सकता, तथापि वहाँ मन साधारण कारण और इन्द्रिय असाधारण कारण है, अतएव उसे इन्द्रियज कहने में कोई दोष नहीं है । इन्द्रियज और अनिन्द्रियज-दोनों प्रकारके ज्ञान मतिज्ञान और श्रुतज्ञानके भेदसे दो-दो प्रकारके हैं। जो ज्ञान इन्द्रिय और मनके निमित्तसे हो किन्तु श्रुतका अनुसरण न करता हो वह मतिज्ञान कहलाता है और जो इन्द्रिय-मनोजन्य होते हुए श्रुतका अनुसरण करे वह श्रुतज्ञान कहलाता है । संकेत करनेवाले परोपदेश अथवा श्रुतग्रंथका अनुसरण करके, वाच्य-वाचकभावका संयोजन करके, 'घट घट', इस प्रकारके अन्तर्जल्पके आकारको ग्रहण करनेवाला ज्ञान श्रुतानुसारि या श्रुतका अनुसरण करनेवाला कहलाता है। शंका-इस प्रकार व्याख्या करनेसे तो अवग्रह ही मतिज्ञान कहलाएगा, ईहा आदि नहीं क्योंकि ईहादि शब्दोल्लेखसे सहित होनेके कारण श्रुतज्ञान हो जाएंगे।

Loading...

Page Navigation
1 ... 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110