Book Title: Jain Tark Bhasha
Author(s): Shobhachandra Bharilla
Publisher: Tiloakratna Sthanakvasi Jain Dharmik Pariksha Board

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Page 16
________________ प्रमाणपरिच्छेदः १ केचित्तु- "ततोऽर्थग्रहणाकारा शक्तिर्ज्ञानमिहात्मनः। करणत्वेन निर्दिष्टा न विरुद्धा कथंचन ॥" (तत्त्वार्थश्लोकवा० १.१.२२) इति-लब्धीन्द्रियमेवार्थग्रहणशक्तिलक्षणं प्रमाण सङ्गिरन्ते; तदपेशलम् ; उपयोगात्मना करणेन लब्धेः फले व्यवधानात्, शक्तीनां परोक्षत्वाभ्युपगमेन करग-फलज्ञानयोः परोक्षप्रत्यक्षत्वाभ्युपगमे प्राभाकरमतप्रवेशाच्च । अथ ज्ञानशक्तिरप्यात्मनि स्वाश्रये परिच्छिन्ने द्रव्यार्थतः प्रत्यक्षेति न दोष इति चेत्, न; द्रव्यद्वारा प्रत्यक्षत्वेन सुखादिवत् स्वसंविदितत्वाव्यवस्थितेः, 'ज्ञानेन घटं जानामि' इति करणोल्लेखानुपपत्तेच; न हि कलशसमाकलनवेलायां द्रव्यार्थतः प्रत्यक्षाणामपि कुशूलकपालादीनामुल्लेखोऽस्तीति। १ कोई-कोई आचार्य कहते हैं-कि “पदार्थोंको ग्रहण करने वाली आत्माकी शक्ति करण है । उसे कथंचित् करण (प्रमाण) मानने में कोई बाधा नहीं है ।'' ऐसा कहनेवाले पदार्थको ग्रहण करनेकी शक्तिरूप लब्धि-इन्द्रियको प्रमाण कहते हैं। किन्तु यह ठीक नहीं है, क्योंकि लब्धिके फलमें उपयोगरूप करणसे व्यवधान पड़ जाता है। अर्थात् लब्धि-इन्द्रिय ज्ञप्तिमें साक्षात् करण नहीं है । क्यों कि लब्धि होनेपर भी उपयोगके विना ज्ञप्ति नहीं होती। और , जो ज्ञप्तिमें साक्षात् करण न हो उसे प्रमाण नहीं कहा जा सकता। शक्तियाँ परोक्ष मानी गई हैं। अतः यदि शक्तिरूप करणज्ञानको परोक्ष और फलज्ञान को प्रत्यक्ष मानेंगे तो प्राभाकर मतका प्रवेश हो जायगा। कदाचित् यह कहा जाय कि शक्तिके आधारभूत आत्माका प्रत्यक्ष हो जानेपर द्रव्यतः ज्ञानशक्तिका भी प्रत्यक्ष हो जाता है; तो यह कहना भी योग्य नहीं है । द्रव्यतः प्रत्यक्ष हो जाने पर भी सुख आदिकी तरह ज्ञान स्वसंवेदी नहीं हो सकता। सुखके आधारभूत आत्माका प्रत्यक्ष होनेपर जैसे सुख आदिका द्रव्यतः प्रत्यक्ष हो जाता है, फिर भी सुख स्वसंवेदी नहीं होता, वैसे ही ज्ञान भी स्वसंवेदी नहीं हो सकेगा। इसके अतिरिक्त ज्ञानशक्तिको यदि द्रव्यतः प्रत्यक्ष होनेके कारण स्वसंविदित माना जाय तो 'मैं ज्ञानके द्वारा घटको जानता हूँ' इस स्थलपर ज्ञानका उल्लेख ( प्रत्यक्ष ) नहीं होना चाहिए; जैसे कि घटका प्रत्यक्ष होते समय द्रव्यसे प्रत्यक्ष होनेवाले कुशूल, कपाल-आदि पर्यायोंका उल्लेख नहीं होता। अभिप्राय यह है कि यदि उपयोगेन्द्रिय (ज्ञान व्यापार) के बदले लब्धीन्द्रिय (ज्ञानशक्ति) को प्रमाण माना जायगा तो प्रमाणका प्रत्यक्ष नहीं हो सकेगा; क्यों कि शक्ति परोक्ष मानी जाती है । कदाचित् यह कहा जाय कि ज्ञानशक्तिके आश्रयभूत आत्माका प्रत्यक्ष होनेसे ज्ञानशक्ति का भी प्रत्यक्ष मान लिया जाता है; तो इस प्रकार से प्रत्यक्ष होनेपर ज्ञानका उल्लेख नहीं हो सकता; ठीक उसी प्रकार जैसे घटका प्रत्यक्ष होनेपर द्रव्यतः कुशूल, कपाल आदि पर्यायोंका भी प्रत्यक्ष तो होता है, किन्तु घट-ज्ञानमें उनका उल्लेख नहीं होता।

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