Book Title: Jain Tark Bhasha
Author(s): Shobhachandra Bharilla
Publisher: Tiloakratna Sthanakvasi Jain Dharmik Pariksha Board

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Page 10
________________ चौथा 'शब्द-प्रमाण' है। सर्वप्रथम इसका प्रयोग बौद्ध-आचार्य दिङ्नाग (४०० ई.) के ग्रंथों में मिलवा है। धर्मकीर्ति ने इसी नाम को लेकर प्रमाणवार्तिकनामक प्रसिद्ध ग्रंथ की रचना की। जैन एवं वैदिक परंपराओं में भी इस नाम का प्रयोग मिलता है। आन्वीक्षिकी से लेकर अब तक जिन नामों का निर्देश किया गया है उनका संबंध ज्ञान या परीक्षण के उपाय के साथ है । ज्ञेय को लेकर भी कुछ नाम मिलते हैं । इसका प्रारंभ वैशेषिक-मूत्र से होता है, जिसका दूसरा नाम पदार्थ-धर्म-संग्रह है। इसी आधार को लेकर प्रमेयरत्नावली. प्रमेयकमलमार्तण्ड, प्रमेयरत्नमाला आदि नाम मिलते हैं। जैन परंपरा में और भी कुछ नाम मिलते हैं। प्रथम है परीक्षा शब्द को लेकर, जैसे परीक्षामुख। द्वितीय नाम है स्याद्वाद को लेकर जैसे स्याद्वादरत्नाकर, स्यादवादमञ्जरी इत्यादि । स्याद्वाद जैनदर्शन की आधारशिला है। कुछ नाम अनेकांत को लेकर भी मिलते हैं, जैसे अनेकांतजयपताका इत्यादि । अनेकांत जैनतर्कशास्त्र की आधारशिला है। विमलदास का सप्तभङ्गीतरङ्गिणीनामक ग्रंथ सप्तभनी की व्याख्या के रूप जहाँ तक तर्कशब्द का प्रश्न है जैनपरंपरा में सर्वप्रथम इसका प्रयोग सिद्धसेन ने अपने 'सन्मतितर्कप्रकरण' में किया । १२ वीं शताब्दि में बौद्ध आचार्य मोक्षाकर ने तर्कभाषा नामक ग्रंथ की रचना की, जो बौद्ध तर्कशास्त्र का प्रारंभिक ग्रंथ है। १४ वीं शताब्दि में केशवमिश्र ने न्यायदर्शन को लेकर इसी नाम का ग्रंथ रचा । उसके पश्चात् अन्नं भट्ट ने 'तर्कसंग्रह' की रचना की। संभवतया यशोविजय ने भी इन्हीं से प्रेरणा प्राप्त करके अपने ग्रंथ का नाम 'जैनतर्कभाषा'रखा। उन्होंने अपनी साहित्य-साधना में जिन ग्रंथभांडारों का उपयोग किया था, उनमें भी उपर्युक्त 'तर्कभाषा' नामक ग्रंथों की हस्तलिखित प्रतियाँ मिली हैं, इससे भी प्रस्तुत धारणा की पुष्टि होती है। 'तर्क' शब्द का अर्थ जैन आचार्यों ने तर्क की व्याख्या व्याप्तिज्ञान के रूप में की है। व्याप्ति का अर्थ है हेतु और साध्य का परस्पर संबंध । जहाँ-जहाँ धुआँ है, अग्नि अवश्य होगी। धुआँ व्याप्य है और अग्नि व्यापक । फलस्वरूप जहां धुंए का अस्तित्व है, वहाँ अग्नि का अस्तित्व अवश्य होगा । इसी 'संबंध' को व्याप्ति कहा जाता है और इसके ज्ञान को तर्क । जबतक यह ज्ञान नहीं होता, अनुमान नहीं किया जा सकता । अतः तर्क अनुमान का जीवन है। न्यायदर्शन में इसे स्वतंत्र प्रमाण नहीं माना गया, किंतु इतने मात्र से उसका महत्त्व कम नहीं होता । वहाँ भी इसे अनुमान का आधार माना गया है। न्यायदर्शन तर्क को नीचे लिखे अनुसार उपस्थित करता है "यदि धूमो वहिनव्याप्यो न स्यात्, वहिनजन्यो न स्यात्" अर्थात् यदि धुआँ अग्नि का कार्य है तो उसे अग्नि का व्याप्य भी मानना होगा। व्याप्यता के बिना कार्यता की संभावना नहीं हो सकती। इस प्रकार हम देखते हैं कि तर्क अनुमान की आधारशिला है और अनुमान प्रमाणशास्त्र की । आगम एवं प्रत्यक्ष का प्रामाण्य भी अनुमान के आधार पर सिद्ध किया जाता है। इसीलिए 'तर्क' शब्द को इतना महत्त्व प्राप्त हो गया ।

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