Book Title: Jain Pooja Kavya Ek Chintan
Author(s): Dayachandra Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 12
________________ लक्ष्य से इस शोध प्रबन्ध का अभिलेख किया गया है। कृतज्ञता प्रकाशन डॉ. हरिसिंह गौर विश्वविद्यालय सागर के संस्कृत विभागाध्यक्ष डॉ. राधावल्लभ जी त्रिपाठी के हम अत्यन्त कृतज्ञ हैं जिनके कार्यकाल में प्रस्तुत विषय पर अनुसन्धान कार्य करने की स्वीकृति संस्कृत-शोधोपाधि समिति ने प्रदान की। शासकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय दमोह के संस्कृत प्राकृत विभागध्यक्ष एवं जैन विधाओं के अग्रगण्य मनीषी प्रियवर डॉ. भागचन्द्र जी जैन 'भागेन्दु' ने अत्यन्त आत्मीय भाव से मेरे शोध कार्य का कुशल निर्देशन किया हैं। उनका एवं उनके सम्पूर्ण परिवार का आत्मीय भाव श्लाघनीय है। अतः उनके प्रति सादर कल्याण कामना करता हूँ। बाल्यकाल में स्वयं शिक्षा देकर तथा छात्र जीवन में प्रेरणा से विद्याभ्यास में साधक, अध्यात्मवेत्ता, संगीतज्ञ पं. भगवानदास जी भाई जी पूज्यपिता श्री के प्रति हम अतिकृतज्ञ हैं जिनके प्रभाव से यह प्रबन्ध लिखा गया ! शासकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय, दमोह के सेठ गिरधारीलाल राजाराम जैन पारमार्थिक न्यास, गढ़ाकोटा, श्री गणेश दि. जैन संस्कृत महाविद्यालय सागर, डॉ, हरिसिंह गौर विश्वविद्यालय, सागर, डॉ. आर. जी. भाण्डारकर प्राच्य विद्या संस्थान पूना, रमारानी जैन शोध संस्थान मूडबिद्री आदि के सर्वश्री डॉ. भागचन्द्र जी 'भागेन्दु' दमोह, सिंघई जीवेन्द्र कुमार जी सागर, श्री वीरेन्द्र कुमार जी इटोरिया दमोह, श्री सिंघई सन्तोष कुमार जी (बैटरी वाले ) सागर आदि के निजी पुस्तक-संग्रहालयों का भरपूर उपयोग किया है। अतएव उक्त सभी संस्थाओं के पुस्तकालयाध्यक्षों एवं विभिन्न महानुभावों के प्रति अपनी कृतज्ञता प्रकट करता हूँ। अनुसन्धान यज्ञ की पूर्णता में मेरी पुत्री आयुष्मती किरण जैन शास्त्री एम. ए. ने अविस्मरणीय सहयोग किया है। अतः इसे मंगलकामना पूर्वक शुभाशीष प्रदान करता हूँ। इन सबके अतिरिक्त प्रत्यक्ष-परोक्ष रूप से जिन महानुभावों और मित्र वर्ग का सहयोग मुझे प्राप्त हुआ है उन सभी का सहज भाव से आभार स्वीकार करता अनुसन्धाता द्वारा विहित 'जैन पूजा-काव्य' के अध्ययन-अनुशीलन से समाज, साहित्य, संस्कृति, कला, पुरातत्त्व, दर्शन चिन्तन, विद्वज्जनों, मुमुक्षुओं, धर्म श्रद्धालुओं और अनुसन्धाताओं को यदि किञ्चिदपि 'अल्पादप्यल्पतरम्' लाभ हो सका तो मैं अपने श्रम को सार्थक समझेंगा। अन्त में-इस मंगलवाक्य से अपने प्राक्कथन को विराम देता हूँ कि "क्षेमं सर्वप्रजानां प्रभवतु बलवान् धार्मिको भूमिपालः, काले काले च सम्यग्वितरतु मघवा व्याधयो यान्तु नाशम् । प्राक्कधन ::15

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