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सम्पादकीय
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इस प्रकार के अनुवाद को न लेकर मैंने उल्लिखित ग्रन्थों में से किसी एक के आधार से- तथा उनमें से भी जहाँ तक सम्भव हुआ प्राचीनतम ग्रन्थ के प्राश्रय से - अनुवाद किया है एवं साथ में उसकी क्रमिक संख्या का निर्देश भी उसके पूर्व में कर दिया है। हां, यदि अन्य ग्रन्थगत विवक्षित लक्षण में कहीं कुछ विशेषता दिखी है तो उसके प्राधार से भी अनुवाद कर दिया है तथा उसके पूर्व में उसकी भी क्रमिक संख्या का निर्देश कर दिया है ।
५ कहीं-कहीं ग्रन्थगत विवक्षित लक्षण के स्थल को न देखने के कारण लक्ष्य शब्द व उस लक्षण का अनुवाद दोनों ही असम्बद्ध हो गये थे । जैसे—धवला (पु. १३, पृ. ६२ ) में परिहार प्रायश्चित्त के इन दो भेदों का निर्देश किया गया है - 'प्रणवटुग्रो' और 'पारंचिनो' । 'प्रणवट्टओ' का संस्कृत रूपान्तर 'अनुवर्तक' स्वीकार करते हुए उसका अनुवाद इस प्रकार किया गया थाजघन्य से छह मास और उत्कर्ष से बारह वर्ष तक कायभूमि से परे ही विहार करने वाला, प्रतिवन्दना से रहित, गुरु के अतिरिक्त शेष समस्त जनों में मौन रखनेवाला; उपवास, श्राचाम्ल, एकस्थान, निविकृति आदि के द्वारा शरीर के रस, रुधिर और माँस का सुखानेवाला साधु धनुवर्तक परिहारविशुद्धिसंयत कहलाता है ।
यह विसंगति ग्रन्थगत 'परिहारो दुविहो' में केवल ' परिहार' शब्द को देखकर उससे 'परिहारविशुद्धिसंयत' समझ लेने के कारण हुई है । पर वास्तव में वहां उसका कोई प्रकरण ही नहीं है, प्रकरण वहां आलोचनादि दस प्रकार के प्रायश्चित्त का ही है, जिन्हें धवलाकार के द्वारा स्पष्ट किया गया है ।
ऐसी ही कुछ कठिनाइयां मेरे सामने रही हैं, जिन्हें दूर करने के लिए विवक्षित लक्षणों से सम्बद्ध अधिकांश ग्रन्थों को देखना पड़ा है । इसी कारण समय कुछ कल्पना से अधिक लग गया ।
यद्यपि इस स्पष्टीकरण की यहाँ कुछ भी प्रावश्यकता नहीं थी, पर चूंकि मेरे सामने कितनी ही बार यही प्रश्न आया है कि ग्रन्थ तो तैयार रखा था, फिर उसके प्रकाशन में इतना बिलम्ब क्यों हो रहा; अतएव इतना स्पष्ट करना पड़ा है ।
इसके अतिरिक्त सन् १६६६ के दिसम्बर में मैं अस्वस्थ हो गया और इस कारण मुझे चालू काम को छोड़कर अपने बच्चों के पास चला जाना पड़ा । स्वास्थ्यसुधार के लिए मुझे उनके पास लगभग १० माह रहना पड़ा । इस बीच मैंने अपनी अस्वस्थता के कारण प्रकृत कार्य के सम्पन्न करा लेने के लिए अन्य कुछ व्यवस्था कर लेने के विषय में भी प्रार्थना की थी, पर वैसा नहीं हुआ । अन्त में कुछ स्वस्थ हो जाने पर अधिकारियों की प्रेरणा से मैं वापिस चला श्राया व कार्य को गतिशील कर दिया । इस प्रकार प्रस्तुत ग्रन्थ का यह स्वरान्त (प्र-प्री ) प्रथम भाग पाठकों के हाथों में पहुँच रहा है ।
यद्यपि मैंने यथासम्भव इसे अच्छा बनाने का प्रयत्न किया है, रहित होगा, यह नहीं कहा जा सकता - अल्पज्ञता व स्मृतिहीनता के रह जाना सम्भव है | वास्तव में ऐसे महत्त्वपूर्ण कार्य अनेक विद्वानों के
हमें इस बात का विशेष दुःख है कि साहित्य-गगन के सूर्यस्वरूप जिन श्रद्धेय मुख्तार सा. ने इसकी योजना प्रस्तुत की थी और तदनुसार कुछ कार्य भी कराया था, वे आज अपनी इस कृति को देखने के लिए हमारे बीच नहीं रहे ।
फिर भी वह त्रुटियों से सर्वथा कारण उसमें अनेक त्रुटियों का सहकार की अपेक्षा रखते हैं ।
श्राभार
मई १९६७ में सम्पन्न हुए पं. गो. बरैया स्मृति ग्रन्थ के समारम्भ के समय उसके निमित्त से अनेक मूर्धन्य विद्वानों का यहाँ शुभागमन हुआ था । इस अवसर का लाभ उठाकर उन्हें वीर सेवा मन्दिर के भवन में प्रस्तुत लक्षणावली-विषयक विचार-विमर्श के लिए श्रामन्त्रित किया गया था । तदनुसार
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