Book Title: Jain Lakshanavali Part 1
Author(s): Balchandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 18
________________ दो शब्द १३ जैन लक्षणावली या परिभाषात्मक शब्द कोष का एक नमूना अनेकान्त के तीसरे वर्ष की प्रथम किरण में देने का विचार किया । अतः दिगम्बर-श्वेताम्बर के लक्ष्य शब्दों के अनुसार लक्षणों का संकलन करना शुरू किया गया। और उसमें दोनों सम्प्रदाय के लक्षणों को अलग-अलग दिया, कारण कि एक क्रम करने पर उसमें शताब्दीवार करने में बड़ी कठिनाई उपस्थित होती थी। दूसरे, प्राचार्यों के समय का कालक्रम निर्णीत नहीं था। फिर लक्षणों का सम्पादन संशोधन करके उसे प्रकाशन के योग्य बना दिया. पर उसके साथ हिन्दी नहीं दी जा सकी। इस कारण उसमें विवाद होना स्वाभाविक था। इसी से उन्हें अलग रक्खा गया। (देखो, अनेकान्त वर्ष ३ किरण १) इस नमूने पर से लोगों के अनेक मन्तव्य पाये, जिनका संकलन मुख्तार सा० ने रक्खा । लक्षणों का कार्य प्रायः समाप्त हो गया, और कुछ ऐसे ग्रन्थ जरूर रह गये जो उस समय प्राप्त नहीं हो सके, जैसे महाबन्ध आदि, उसके कुछ वर्षों बाद उनका भी संग्रह कर लिया गया। पर लक्षणावली का सम्पादन प्रकाशन पड़ा रहा। क्योंकि मुख्तार सा० अपने को अनवकाश से घिरा हा बतलाते थे, और दूसरे किसी ऐसे विद्वान की तलाश भी नहीं हुई, जो उस कार्य को सम्पन्न कर सकता, तलाश हुई भी तो उन्होंने उस कार्य की ओर विशेष ध्यान नहीं दिया। अतः वर्षों वह कार्य यों ही पड़ा रहा। पं.दीपचन्द जी पाण्डया लगभग एक वर्ष रहे और पं. हीरालाल जी सिद्धान्त-शास्त्री वीर सेवा. मन्दिर में पांच वर्ष रहे, किन्तु लक्षणावली का कार्य जो हुआ, वह अपूर्ण और अव्यवस्थित रहा। इसलिए उसका एक भाग भी प्रकाशित नहीं हो सका।। एक बार पं. हीरालाल शास्त्री ने बा. छोटे लाल जी से कहा कि लक्षणावली का एक खण्ड प्रकाशन के योग्य हो गया है। उन्होंने वह उसे मुख्तार सा. को देखने के लिए दिया । मुख्तार साहब ने उसे देखा, तब उन्होंने फुलिस्केप साइज के दो पेजों में उसकी त्रुटियों को लिखकर दिया और कहा यह सामग्री तो अपूर्ण और त्रुटियों से भरी हुई है, अतः प्रकाशन के अयोग्य है। त्रुटियां बता देने के बाद भी उनका सुधार नहीं हुआ, और न मूल लक्षणों का संशोधन ही किया गया। पं. हीरालाल जी घर चले गए और लक्षणावली का वह कार्य यों ही पड़ा रहा। पं. दीपचन्द जी पाण्डया ने लक्षणावली का कार्य किया. किन्तु वे भी बीच में चले गए और कार्य तदवस्थ रहा। बाब छोटेललजी को लक्षणावली के प्रकाशन की बड़ी चिन्ता रही, पर वह उनके जीवन काल में प्रकाशित नहीं हो सकी। अंत में पं. दरबारीलाल जी की प्रेरणा से पं. बालचन्द जी सि. शास्त्री की वीर सेवा मन्दिर में नियुक्ति हई। तब उन्होंने लक्षणावली का कार्य सम्हाला और लक्षणावली के मूल लक्षणों का संशोधन तथा अनुवाद कार्य किया। और अब उसका प्रथम खण्ड छप कर तैयार हो गया है। इसमें दि. श्वे. लक्षणों का क्रम एक रखते हुए भी उनमें ऐतिहासिक क्रम यथाशक्य दिया गया है। अनुवाद किसी एक ग्रन्थगत लक्षण के आधार पर किया गया है। यदि कहीं कुछ विशेषता लक्षणों में दष्टिगोचर हई तो अन्य ग्रन्थों का भी अनुवाद दे दिया गया है, जिससे पाठकों को कोई भ्रम न हो। T की प्रस्तावना में १०२ ग्रन्थों और ग्रन्थकर्ताओं का परिचय इस खण्ड में दिया गया है, और शेष ग्रन्थों का परिचय अगले खंड में दिया जायगा। परिशिष्टों में ग्रन्थों का प्रकारादि क्रम दिया गया है, उनमें उनके संस्करणों व प्रकाशन स्थान आदि को भी सूचित कर दिया गया है। संकेत-सूची, प्राचार्यों का ऐतिहासिक कालक्रम भी दे दिया गया है। जिससे पाठकों को किसी तरह की असुविधा न हो। इस तरह लक्षणावली (पारिभाषिक शब्द कोश) के एक भाग का कार्य सम्पन्न हो पाया है। इस महान कार्य के लिए सम्पादक प. बालचन्दजी सिद्धान्त शास्त्री और संस्थाके संचालक धन्यवाद के पात्र हैं। -परमानन्द जैन शास्त्री Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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