________________ रत्नप्रभा पृथ्वी के ऊपर और नीचे के दो क्षुल्लक (लघुतम) प्रतरों में तिरछालोक के मध्य भाग रूप गाय के स्तन के आकार के आठ रूचक प्रदेश हैं। जो चार ऊपर की ओर तथा चार नीचे की ओर सदा अवस्थित रहते हैं। इन रूचक प्रदेशों से ही पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण-ये चार दिशा, ईशान, आग्नेय, नैऋत्य व वायव्य-ये चार विदिशा तथा ऊर्ध्व और अधः-इस प्रकार 10 दिशाएँ निकली हैं। ऊर्ध्व-अधो दिशा ऊपर से नीचे तक चार-चार प्रदेशी हैं। विदिशाएँ आदि से अन्त तक एक-एक प्रदेशी हैं तथा चार दिशाएँ प्रारम्भ में दो-दो प्रदेशी है, फिर आगे दो-दो प्रदेश बढ़ते जाते हैं। मेरु पर्वत उत्तर दिशा में है, इसी प्रकार रात्रि में जिस दिशा में ध्रुवतारा दिखाई देता है, वह भी उत्तर दिशा है। उसके पीछे की दक्षिण दिशा है। उसकी दाँयी ओर पूर्व दिशा और बाँयी ओर पश्चिम दिशा होती है। इस दृष्टि से निर्णित हुई चारों दिशाओं को आगम में क्षेत्र दिशा कहा है। चार दिशाओं के बीच की दिशाएँ विदिशा कहलाती हैं जैसे उत्तर-पूर्व के मध्य का कोण 'ईशानकोण', पूर्ण-दक्षिण के मध्य का कोण 'आग्नेय कोण', दक्षिण-पश्चिम के मध्य का कोण नैऋत्य कोण' और पश्चिम-उत्तर के मध्य का कोण वायव्य' कोण है। (चित्र क्रमांक 11) दिशाओं का यह निर्धारण क्षेत्र की दृष्टि से (Naumenal Point of View) है, व्यवहार में सूर्य से दिशा का निर्णय किया जाता है-अर्थात् जिधर सूर्य का उदय होता है, वह पूर्व दिशा मानी जाती है और फिर इसके आधार पर अन्य दिशा विदिशाओं का निर्धारण किया जाता है। इस प्रकार निर्णित हुई दिशा को आगम में 'ताप' दिशा कहते हैं। क्षेत्र दिशा निश्चित और स्थायी है। ताप दिशा में सूर्य के मंडल बदलते रहने के कारण पूर्व दिशा में सूर्योदय और पश्चिम दिशा में सूर्यास्त निश्चित एक स्थान पर नहीं होता। किंचित् स्थान परिवर्तन होता है। इस प्रकार पूरे जम्बूद्वीप के अलग-अलग तरफ के क्षेत्रों की अपेक्षा दिशा बदल जाती है। सूर्य-चन्द्र आदि मेरू पर्वत को केन्द्र में रखकर अयन मार्ग (Spiral root) में भ्रमण करते हैं। दस दिशाओं के नाम-प्रत्येक दिशा के अधिपति देव के आधार से इन दिशाओं के नाम इस प्रकार हैं-(1) पूर्व दिशा के अधिपति देव ‘इन्द्र' हैं, अतः इसे 'ऐन्द्री' दिशा कहते हैं। (2) अग्निकोण के स्वामी अग्निदेव हैं, अत: इसे 'आग्नेयी' कहते है। (3) आठ रूचक प्रदेश से निकलती चार दिशाएँ व विदिशाएँ दक्षिण दिशा के अधिपति 'यम' हैं, अतः इसे 'याम्या' दिशा कहते हैं। (4) नैऋत्यकोण के स्वामी 'नैऋति' हैं, अतः यह 'नैऋत्य' दिशा है। उत्तर दिशा (5) पश्चिम दिशा के अधिपति वरुण' देव हैं, इस कारण इसे 'वारुणी' कहते हैं। (6) वायव्य कोण | के स्वामी 'वायु' देव हैं, अतः यह 'वायव्य' दिशा कहलाती है। (7) उत्तर दिशा के अधिपति 'सोम' देव होने से उसे 'सौम्या' कहते हैं। (8) ईशानकोण के अधिपति 'ईशान' देव हैं, अतः उसे 'ईशान' दो प्रतर दिशा दिशा कहते हैं। (9) ऊर्ध्व दिशा में अंधकार नहीं है, वह निर्मल है, अतः उसे 'विमला' दिशा कहते चार रुचक प्रदेश हैं। (10) अधोदिशा में गाढ़ अंधकार होने से उसे एक राजू 'तमा' दिशा कहा है। इन दशों दिशाओं का उत्पत्ति चित्र क्र. 11 स्थान आठ रुचक प्रदेश हैं। ऊवं दिशा वायव्य ईशान पश्चिम दिशा पूर्व दिशा समभूतल स्थान नेऋत्य आग्नेय रल प्रभा पृथ्वी के दक्षिण अधो दिशा 8 सचित्र जैन गणितानुयोग