________________ मल-मूत्र, विष्ठा आदि अशुचिकारक पदार्थ नहीं होते हैं बल्कि इनकी देह पुष्प की तरह कोमल और निर्मल सुगंधित श्वासोच्छ्वास से युक्त होती है। इनके शरीर में रज, मैल, पसीना आदि भी नहीं होता। वृद्धावस्था और रोग से रहित काया वाले इन देवों का शरीर सदा ही तेजस्वी व कांतिमान रहता है। __देवता सदा अनिमेष नयन वाले, मन से कार्य साधने वाले, पुष्पशय्या में उत्पन्न होने वाले, भूमि से चार अंगुल ऊपर चलने वाले एवं अर्द्धमागधी भाषा बोलने वाले होते हैं। दीर्घ-प्रदीर्घ आयु वाले होते हैं। कम से कम इनकी आयु 10,000 वर्ष की ओर अधिक से अधिक 33 सागरोपम की होती है। ये रोग से, वृद्धावस्था में या अकस्मात् नहीं मरते वरन् आयुष्य पूर्ण होने पर ही मरते हैं। तब इनका वैक्रिय शरीर कपूर की तरह आकाश मण्डल में तिरोहित हो जाता है। मृत्यु से छह माह पूर्व इनके कण्ठ में रही पुष्पमाला के मुरझाने से इन्हें पता चल जाता है कि मृत्यु निकट है। देवता देवलोक से च्यवकर स्वकर्मानुसार मनुष्य या तिर्यंच गति में पैदा होते हैं, वे नरक में नहीं जाते। देवों के प्रकार-देव दो प्रकार के हैं-1. कल्पोपपन्न और 2. कल्पातीत। कल्प अर्थात् आचार-मर्यादा, व्यवस्था। जिन देवलोकों में नियम, मर्यादा व्यवस्था होती है, वे कल्पोपपन्न देव कहे जाते हैं और जहाँ नियम-मर्यादा की आवश्यकता नहीं, उन्हें कल्पातीत देव कहते हैं। भवनपति वाणव्यंतर, ज्योतिष और वैमानिक के 12 देवलोक प्रशासनिक व्यवस्था के अधीन चलने वाले होते हैं। वहाँ स्वामी सेवक के अनुसार व्यवहार का पालन करना पड़ता है, अत: वे कल्पोपपन्न या कल्पवासी देव कहलाते हैं। इसके पश्चात् नौ ग्रैवेयक और पाँच अनुत्तर विमान 9 + 5 = 14 देवलोकों में स्वामी-सेवक का व्यवहार नहीं है, वहाँ न कोई छोटा है न बड़ा, वे सभी अहमिन्द्र अर्थात् कल्पातीत देव कहे जाते हैं। | कल्पोपपन्न देवों के दस प्रकार-मनुष्य लोक में जैसे राजा और प्रजा की सारी सुरक्षा व्यवस्था और व्यवहार सुचारू रूप से चलाने के लिए राजा, जागीरदार, पुरोहित, महामात्य, अंगरक्षक, द्वारपाल, सभासद और चांडाल आदि भिन्न-भिन्न प्रकार की श्रेणी के लोग होते हैं। उसी प्रकार देवलोकों में भी दस प्रकार की श्रेणी के देव होते हैं। उनसे देवलोक का शासन सुव्यवस्थित रूप से चलता है। वेदस प्रकार निम्नलिखित हैं। 1. इन्द्र-ये अणिमा आदि ऋद्धि एवं ऐश्वर्य सम्पन्न सभी देवों के स्वामी होते हैं। राजा की तरह इनकी आज्ञा का पालन सभी देव करते हैं। 2. सामानिक-आज्ञा और ऐश्वर्य के अतिरिक्त कांति, वैभव आदि में ये इन्द्र के समान ही ऋद्धिशाली होते हैं। . 1 3. त्रायस्त्रिंशक-राज पुरोहित के समान इन्द्रों के 33 त्रायस्त्रिंशक देव होते हैं। ये देवलोक के विमानों व देवों का ध्यान रखने वाले, पुरोहित की तरह शांतिक-पौष्टिक कर्म करने वाले होते हैं। संख्या में 33 ही होने के कारण त्रायस्त्रिंशक कहलाते हैं। 4. पारिषद-इन्द्र के मित्र के समान देव पारिषद कहलाते हैं। परिषदा अर्थात् सभा तीन प्रकार की होती है-(क) आभ्यंतर परिषद के देव-सलाहकार मंत्री के समान जो इन्द्र के बुलाने पर ही आते हैं। सचित्र जैन गणितानुयोग Vo 149