Book Title: Jain Ganitanuyog
Author(s): Vijayshree Sadhvi
Publisher: Vijayshree Sadhvi

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Page 170
________________ वैमानिक के प्रतरों का दूरवर्ती दर्शन चौकोर गोलाकारत्रिकोणाकार पुष्पावकीर्ण त्रस नाड़ी चित्र क्र.98 नवोत्पन्न देव यह सुनकर भव प्रत्यय (देव योनि के स्वभाव से प्राप्त हुए) अवधिज्ञान से अपने पूर्व जन्म को देखता है और अपने स्वजन मित्रों की याद करता है, साथ ही पृथ्वी पर आने को तैयार होता है, किन्तु देव कहते हैं-"आप वहाँ जाकर क्या कहोगे? पहले मुहूर्त भर यहाँ के दिव्य सुख-नाटक आदि तो देख लो।" उसी समय नृत्यकार-अनीक जाति के देव अपनी दाहिनी भुजा से 108 कुमार और बाँयी भुजा से 108 कुमारियाँ निकालकर 32 प्रकार के नाटक करते हैं। गंधर्व-अनीक जाति के देव 49 प्रकार के वाद्यों के साथ 6 राग और 30 रागनियों को मधुर स्वर से अलापते हैं। इस प्रकार अलौकिक आश्चर्यजनक अद्भुत दृश्य देखते-देखते यहाँ के 2,000 वर्ष व्यतीत हो जाते हैं। तब तक वह देव वहाँ के दिव्य सुखों में ऐसा लुब्ध हो जाता है कि मनुष्य लोक में आना ही पसंद नहीं करता। मनुष्यलोक की दुर्गन्ध देवों को 400-500 योजन ऊपर तक आती है। इसे वे सहन नहीं कर पाते तथापि कभी-कभी तीर्थंकरों के पंचकल्याणक या साधु-संतों के तप / / केवलज्ञान महोत्सव या कभी स्नेह और कभी वैर का बदला लेने के लिए भी आ जाते हैं। देवों के दिव्य स्वरूप-देवों के शरीर की कांति अत्यन्त मनोरम व दिव्य होती है। इनके समचतुरस्र संस्थान युक्त सुन्दर वैक्रिय शरीर होता है। उसमें खून, मांस, केश, रोम, नाखून, हड्डियाँ, चरबी, चमड़ी, / 148 सचित्र जैन गणितानुयोग

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