Book Title: Jain Ganitanuyog
Author(s): Vijayshree Sadhvi
Publisher: Vijayshree Sadhvi

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Page 168
________________ पाँचों विमानों में शुद्ध संयम का पालन करने वाले चौदह पूर्वधारी साधु ही उत्पन्न होते हैं। पाँचों अनुत्तर विमानवासी देव एकान्त सम्यक दृष्टि हैं। चार अनुत्तर विमानों के देव एक या दो भव करके मोक्ष प्राप्त करते हैं, और सर्वार्थ सिद्ध विमान के देव एक ही मनुष्य का भव करके मोक्ष प्राप्त करते हैं। यहाँ के देव सर्वाधिक सुख को भोगते हैं। इनकी उपपात शय्या के चंदरवे पर 32 मन के विविध जाति के मोती लटके हुए हैं, उनके परस्पर टकराने से जो मधुर ध्वनि निकलती है, उस ध्वनि के आनन्द में ही इनके साढ़े सोलह सागरोपम व्यतीत हो जाते हैं। देवों के विमान-समपृथ्वी से असंख्यात क्रोडाकोड़ी योजन ऊपर प्रथम सौधर्म और दूसरा ईशान देवलोक है। वहाँ से असंख्यात क्रोडाकोड़ी योजन ऊपर तीसरा सनत्कुमार और चौथा माहेन्द्र देवलोक है। ये चारों विमान अर्ध चन्द्राकार हैं। उसके बाद पाँचवाँ, छठा, सातवाँ और आठवाँ-ये चार देवलोक पूर्ण चन्द्राकार हैं। उसके बाद तीन त्रिक में नवग्रैवेयक विमान हैं, उसके पश्चात् चार अनुत्तर विमान चार दिशा में त्रिकोणाकार और मध्य में एक लाख योजन विस्तृत गोलाकार सर्वार्थसिद्ध विमान हैं। विमानों का आकार-देवलोकों में विमान दो प्रकार के होते हैं-(1) संख्यात योजन विस्तार वाले, (2) असंख्यात योजन विस्तार वाले। संख्यात योजन विस्तार वाले विमान जम्बूद्वीप के तुल्य हैं। असंख्यात योजन विस्तार वाले विमान उतनी ही विस्तृत परिधि में हैं। विमानों में दो प्रकार होते हैं-(1) आवलिका प्रविष्ट-पंक्तिबद्ध, (2) पुष्पावकीर्ण-पुष्प के समान बिखरे हुए। (1) आवलिका प्रविष्ट-प्रत्येक देवलोक के प्रतरों के बीच मध्य में एक मुख्य विमान होता है, उसे 'इन्द्रक' कहते हैं, वह गोल होता है। इन्द्र विमान 45 लाख योजन का है वह अढ़ाईद्वीप के ठीक ऊपर है। उसकी चारों दिशाओं में चार विमान त्रिकोण, उसके पश्चात् के विमान चौरस, पश्चात् क्रमश: गोल, त्रिकोण और चौरस विमान चारों दिशाओं की प्रत्येक पंक्ति में है। आवलिकागत विमानों का परस्पर अन्तर असंख्याता योजन का है। (2) पुष्पावकीर्ण-आवलिकाबद्ध विमानों के बीच-बीच में सर्वत्र बिखरे हुए पुष्पों के समान जो विमान होते हैं, वे प्रकीर्णक विमान पुष्पावकीर्ण कहे जाते हैं। इन विमानों का परस्पर अन्तर संख्यात योजन का भी होता है और असंख्यात योजन का भी। ये विविध आकार के होते हैं। जैसे-स्वस्तिक, नंद्यावर्त आदि। पाँच अनुत्तर विमान में मध्यवर्ती सर्वार्थसिद्ध विमान गोलाकार हैं और उसकी चारों दिशाओं में चार अनुत्तर विमान त्रिकोण आकार के हैं। वहाँ चतुष्कोण विमान नहीं है। (चित्र क्रमांक 97) विमानों का स्वरूप-बारह देवलोक, नौ ग्रैवेयक और पाँच अनुत्तर विमान इन छब्बीस देवलोकों में कुल मिलाकर 62 प्रतर और 84,97,023 विमान हैं। सभी विमान रत्नमय, अनेक स्तम्भों से परिमंडित विविध चित्रावली से चित्रित, अनेक खूटियों और लीलायुक्त पुतलियों से सुशोभित, सूर्य के समान जगमगाते हुए और सुगंध से मघमघायमान है। प्रत्येक विमान के चारों ओर उपवन रत्नमय बावड़ियाँ निर्मल जल और सहस्रदल वाले कमलों से परिपूर्ण होती है। मणि-रत्नों के सुंदर वृक्ष, लताएँ, गुच्छे और पत्र-पुष्प वायु से हिलते हुए जब 146 A सचित्र जैन गणितानुयोग

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