________________ | सिद्धशिला / सर्वार्थसिद्ध विमान से 12 योजन ऊपर 11 रज्जू वलयाकार विस्तार में 45 लाख योजन की लम्बी-चौड़ी उत्तान छत्र के आकार वाली सिद्धशिला है। इसके आठ नाम हैं (1) ईषत्-रत्नप्रभा आदि सात पृथ्वियों की अपेक्षा यह पृथ्वी छोटी है, (2) ईषत्प्राग्भार-अन्य पृथ्वियों की अपेक्षा इसकी ऊँचाई कम है, (3) तन्वी-शेष पृथ्वियों से पतली है, (4) तनुतन्वी-मक्षिका के पंख से भी इसका चरम भाग अधिक पतला है, (5) सिद्धि-यह सिद्धक्षेत्र के समीप है अथवा यहाँ पहुँच कर जीव कृतकृत्य हो जाता है, (6) सिद्धालय-यह सिद्धों का स्थान है, (7) मुक्ति-यहाँ कर्मों से मुक्त जीव है, (8) मुक्तालय-यह मुक्त जीवों का स्थान है। इसके अतिरिक्त लोकाग्र, लोकाग्रस्तूपिका (शिखर) लोकाग्र बुध्यमान और सर्व प्राण-भूत-जीव-सत्त्व सुखावहा-ये चार नाम और भी हैं। मनुष्य क्षेत्र की तरह ही सिद्धशिला की लम्बाई-चौड़ाई भी 45 लाख योजन है। इसकी परिधि 1 करोड़ 42 लाख 30 हजार 249 योजन से कुछ अधिक है। इसका मध्य भाग 8 योजन मोटा है। उसके आगे चारों ओर इस पृथ्वी की मोटाई क्रमशः प्रति योजन अंगुल पृथक्त्व कम होती-होती चरम भाग में मक्खी के पंख से भी अधिक पतली हो गई है। इसका वर्ण शंख, चन्द्रमा, गोक्षीर और कुंदपुष्प से भी कई गुना श्वेत है, यह सम्पूर्ण स्फटिक रत्नमयी है। इस पृथ्वी के एक योजन ऊपर एक कोस के छठे भाग में जो 333 धनुष और 32 अंगुल परिमाण है वहाँ अनंत सिद्ध भगवान विराजमान हैं। यहीं लोक का अंत हो जाता है। लोक के चारों ओर अनन्त और असीम अलोकाकाश है। अलोकाकाश में आकाश द्रव्य के अतिरिक्त और कोई द्रव्य नहीं होता। एकमात्र आकाश ही आकाश है। (चित्र क्रमांक 99) सिद्धक्षेत्र में सिद्धों की अवस्थिति-सिद्धशिला के ऊपर और लोकांत के नीचे जो एक योजन का मध्यभाग है उसमें भी ऊपर के एक कोस का छठवाँ भाग ही सिद्धक्षेत्र है। सभी मुक्तात्माओं के आत्मप्रदेश इसी सिद्धक्षेत्र में अवस्थित है। मात्र विशेषता यह है कि जिनके अंतिम शरीर की जो भी अवगाहना होती हे, उसके दो-तिहाई भाग में उनके आत्मप्रदेश घनीभूत होकर रहते हैं। सिद्ध होने से पूर्व जघन्य दो हाथ, मध्यम 7 हाथ और उत्कृष्ट 500 धनुष की अवगाहना वाले जीवों की सिद्धक्षेत्र में 2/3 भाग अवगाहना होती है, अतः सिद्धों की अवगाहना जघन्य 1 हाथ 8 अंगुल, मध्यम 4 हाथ 16 अंगुल, उत्कृष्ट 333 धनुष 32 अंगुल की रहती है। सिद्धात्माओं के शिरोभाग की अंतिम ऊँचाई के जो आत्मप्रदेश हैं, वे नियम से लोकान्त का स्पर्श करके रहे हुए हैं। क्योंकि लोकान्त के बाहर धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय की सत्ता नहीं हैं, अत: सिद्धजीव लोकान्त तक जाकर वहीं स्थिर हो गये हैं। जैसे गैसयुक्त विभिन्न कद के गुब्बारे किसी हॉल में छोड़े जाएँ तो उन सबका उपरिम भाग हॉल की छत का स्पर्श करके ही रहता है, उसी प्रकार सभी सिद्धों के आत्मप्रदेश भी लोकान्त का ही स्पर्श करके रहे हुए हैं। अंतिम समय की जो भी मुद्रा बैठी हुई,खड़ी हुई अवस्था हो वह सिद्ध होने के पश्चात् भी 1. एक कोस 2,000 धनुष का होता है, अत: 2,000 धनुष का छठा भाग यानि 2,000 : 6 = 333 धनुष 32 अंगुल। सचित्र जैन गणितानुयोग - 153 153