Book Title: Jain Ganitanuyog
Author(s): Vijayshree Sadhvi
Publisher: Vijayshree Sadhvi

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Page 166
________________ इनमें उत्पन्न देवों के मुकुट पर मेंढक का चिह्न रहता है। इनका देहमान 5 हाथ और उत्कृष्ट आयु 14 सागरोपम की होती है। 14,000 वर्ष बाद ही आहार की इच्छा होती है। ये सभी देव, देवियों का रूप मात्र देखकर ही काम सुख की तृप्ति कर लेते हैं। 7.महाशुक्र देवलोक-छठे देवलोक की सीमा से पाव राजू व समभूमि से पोने चार राजू ऊपर और सवा 7 राजू घनाकार विस्तार में घनवात और घनोदधि के आधार पर सातवाँ महाशुक्र देवलोक है। इसमें चार प्रतर है, जिनमें 800 योजन ऊँचे और 2,400 योजन की अंगनाई वाले 40,000 विमान है। इन विमानों में उत्पन्न होने वाले देवों की देह 4 हाथ की होती है, आयुष्य 17 सागरोपम का और 17,000 वर्ष के बाद ही आहार की इच्छा होती है। इनके मुकुट पर अश्व का चिह्न होता है। 8. सहस्रार देवलोक-सातवें देवलोक की सीमा से पाव राजू तथा समभूमि से 4 राजू ऊपर सवा 7 राजू घनाकार विस्तार में, घनवात और घनोदधि के आधार से ही आठवाँ सहस्रार देवलोक है। इसमें 4 प्रतर है, जिसमें 800 योजन ऊँचे और 2,400 योजन की अंगनाई वाले 6,000 विमान हैं। यहाँ देवों की काया 4 हाथ की है। आयुष्य उत्कृष्ट 18 सागरोपम और 18,000 वर्ष के बाद आहार की इच्छा वाले ये देव होते हैं। इनके मुकुट में हस्ति का चिह्न होता है। सातवें-आठवें देवलोक के देवों को देवियों के अंगोपांग देखने से ही तृप्ति हो जाती है। देवियों का आगमन भी यहीं तक सीमित है, यहाँ से ऊपर देवियाँ नहीं जा सकती हैं। यद्यपि देवियाँ दूसरे देवलोक तक ही होती हैं तथापि 8वें देवलोक तक के देव पहले-दूसरे देवलोक की अपरिगृहिता देवियों को अपने स्थान पर ले जा सकते हैं। 9-10. आनत-प्राणत देवलोक-आठवें देवलोक की सीमा से आधा राजू व समभूमि से 4/ राजू ऊपर 12राजू घनाकार विस्तार में मेरु पर्वत से दक्षिण दिशा में आकाश के आधार पर स्थित नौवाँ आनत देवलोक और उत्तर दिशा में दसवाँ प्राणत देवलोक है। दोनों में 4-4 प्रतर हैं। इन प्रतरों में 900 योजन ऊँचे और 2,300 योजन की अंगनाई वाले दोनों के मिलाकर 400 विमान हैं। इन देवलोकों के देवों की आयु नवमें की उत्कृष्ट 19 और दसवें की 20 सागरोपम की है। उतने ही हजार वर्ष में उन्हें आहार की भी इच्छा होती है। इनके मुकुट में क्रमश:सर्प और गेंडे का चिह्न होता है। ___11-12. आरण और अच्युत देवलोक-नौवें और दसवें देवलोक की सीमा से आधा राजू तथा समभूमि से 5 राजू ऊपर और साढ़े दस राजू घनाकार विस्तार में मेरू पर्वत से दक्षिण दिशा में आकाश के आधार से ग्यारहवाँ आरण देवलोक है और उत्तर दिशा में बारहवाँ अच्युत देवलोक है। इन दोनों में भी 4-4 प्रतर हैं, जिनमें हजार योजन ऊँचे और 2,200 योजन की अंगनाई वाले दोनों देवलोकों के मिलाकर 300 अर्द्धचन्द्राकार विमान हैं। 9 से 12 देवलोक तक देह 3 हाथ की, उत्कृष्ट आयु ग्यारहवें की 21 सागरोपम तथा बारहवें की 22 सागरोपम की है, इतने ही हजार वर्षों में उन्हें आहार की इच्छा होती है। इनके मुकुट पर क्रमशः बैल और मृग का चिह्न होता है। नवें, दसवें, ग्यारहवें और बारहवें देवलोक के देव अपने स्थान पर जब भोग की इच्छा करते हैं, तो उनके भोग में आने योग्य प्रथम या दूसरे देवलोक में रही हुई देवियों का मन उनकी ओर आकर्षित हो जाता है। वे देव 144AAS SAN सचित्र जैन गणितानुयोग

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