________________ इनमें 1. पूर्व उत्तर कोण के अर्चिविमान (ईशान) में सारस्वत नामक जाति के देव, 2. पूर्व दिशा के अर्चिमाली विमान में आदित्य जाति के देव, 3. आग्नेय दिशा के वैरोचन विमान में वह्नि देव, 4. दक्षिण दिशा के प्रभंकर विमान में वरुण देव, 5. नैऋत्य भाग के सूर्याभ विमान में गर्दतोय देव, 6. पश्चिम दिशा के सूर्याभ विमान में तुषित देव, 7. वायव्य दिशा के शुक्राभ विमान में अव्याबाध, 8. उत्तर दिशा के सुप्रतिष्ठाभ विमान में अग्नि देव और 9. इन सबके मध्य रिष्ट विमान में अरिष्ट देवों के विमान हैं। इन विमानों से लोकान्त असंख्यात योजन दूर है। सारस्वत और आदित्य का 700 देवों का परिवार है। वह्नि और वरुण का 14,000 देवों का, गर्दतोय और तुषित का 7,000 देवों का अव्याबाध, अग्नि और अरिष्ट देव का 6,000 देवों का परिवार है। क्रम दिशा देवों का परिवार 1. 700 700 14,000 पूर्व पूर्व दक्षिण दक्षिण पश्चिम पश्चिम उत्तर कृष्णराजियाँ एवं नौ लोकान्तिक विमान स्थान आकार - स्पर्श देव विमान देव (कृष्णराजि) बाह्य | षट्कोण 8-1- अर्चिविमान | सारस्वत आभ्यंतर | चतुष्कोण | 2-3 अर्चिमाली आदित्य बाह्य / त्रिकोण 2-3 वैरोचन वह्मि आभ्यंतर | चतुष्कोण | 4-5 | प्रभंकर वरुण बाह्य षट्कोण | 4-5 चंद्राभ गर्दतोय आभ्यंतर | चतुष्कोण | 6-7 सूर्याभ तुषित बाह्य | त्रिकोण / 6-7 शुक्राभ अव्याबाध आभ्यंतर 8-1 अग्नि मध्य मध्य | रिष्टाभ | अरिष्ट 14,000 7,000 7,000 6,000 6,000 उत्तर 6,000 इन विमानों में रहने वाले सभी देव पाँच हाथ की काया वाले 8 सागरोपम की आयु वाले सम्यक्दृष्टि देव होते हैं। तीर्थंकरों की दीक्षा के अवसर पर वे जय-जय नन्दा जय-जय भद्दा स्वरूप मधुर भाषा में प्रभु से दीक्षा ग्रहण कर तीर्थ प्रवर्त्तन करने की विनती करते हैं। वैसे तो तीर्थंकर स्वयं ही ज्ञानी एवं बोध प्राप्त होते हैं, तथापि लोकान्तिक देवों का यह जीताचार है। ये सभी देव कुछ ही भवों में मोक्ष प्राप्त करने की योग्यता वाले होते हैं। सभी शुक्ल लेश्यी भद्रिक परिणामी होने से देवर्षि नाम से भी जाने जाते हैं। 6. लान्तक देवलोक-पाँचवे देवलोक की सीमा से पाव राजू और समभूमि से 37 राजू ऊपर 18-3/4 राजू घनाकार विस्तार में, घनोदधि और घनवात के आधार पर छठा लान्तक देवलोक है। इसमें पाँच प्रतर है जिनमें 700 योजन ऊँचे और 2500 योजन की अंगनाई वाले, पूर्ण चन्द्रमा के आकार के 50,000 विमान हैं। सचित्र जैन गणितानुयोग 143