________________ तीसरा सनत्कुमार देवलोक और उत्तर दिशा में चौथा माहेन्द्र देवलोक पूर्वोक्त प्रथम द्वितीय देवलोक के समान ही पूर्ण चन्द्राकार में स्थित है। दोनों में 12-12 प्रतर हैं। इन प्रतरों में 600-600 योजन ऊँचे और 2,600-2,600 योजन नींव वाले विमान हैं। तीसरे देवलोक में 12 लाख और चौथे देवलोक में 8 लाख विमान हैं। तीसरे देवलोक के देवों की जघन्य दो सागरोपम उत्कृष्ट सात सागरोपम तथा चौथे देवलोक में उत्पन्न देवों को सात-सात हजार वर्ष में भूख लगती है। इनका देहमान छह हाथ का है। इन्हें देवियों के स्पर्श मात्र से ही कामसुख की प्राप्ति हो जाती है। इनके मस्तक, मुकुट पर क्रमशः सुअर तथा सिंह के चिह्न होते हैं। _5. ब्रह्म देवलोक-उक्त दोनों देवलोकों की सीमा से पोन राजू अर्थात् समभूमि से सवा 3 राजू ऊपर 18-3/4 राजू घनाकार विस्तार में मेरु पर्वत के ठीक ऊपर मध्य में घनवात के आधार पर पूर्णचन्द्राकार पाँचवाँ ब्रह्मदेवलोक है। इसमें छह प्रतर हैं, जिसमें 700 योजन ऊँचे और 2,500 योजन नींव वाले 4 लाख विमान हैं। इनमें उत्पन्न देवों की काया 5 हाथ की, आयुष्य उत्कृष्ट 10 सागरोपम की है। इन्हें 10 हजार वर्ष के पश्चात् आहार की इच्छा होती है। ये देवियों का रूप देखकर ही संतुष्ट हो जाते हैं। ये मस्तक मुकुट पर बकरे के चिह्न से पहचाने जाते हैं। आठ कृष्णराजियाँ-ब्रह्मदेवलोक में कृष्ण वर्ण की आठ महाशिलाएँ हैं, जिन्हें कृष्णराजियाँ कहते हैं। तमस्काय और कृष्णराजियाँ दोनों काले वर्ण के पुद्गलों का परिणाम है। तथापि दोनों एक नहीं हैं। तमस्काय को अप्काय माना गया है और कृष्णराजियों को पृथ्वी रूप। तमस्काय का वर्णन पीछे असंख्यात द्वीप-समुद्रों के साथ दिया गया है, अब कृष्णराजियों का वर्णन किया जाता है। कृष्णराजियाँ कुल आठ हैं। ये खुले मैदान (अखाड़ा) के आकार की पाँचवें देवलोक के तीसरे अरिष्ट नामक प्रतर के पास दक्षिण दिशा में त्रसनाड़ी के भीतर हैं। कृष्ण अर्थात् काला पाषाण, राजि अर्थात् लम्बी शिलाएँ। ये आठों महाशिलाएँ काले वर्ण की हैं। इनमें चन्द्र-सूर्य की कांति नहीं है। ये इतनी सघन कृष्णवर्णी हैं कि कोई भी प्रकाश इन्हें प्रकाशित नहीं कर पाता। जैसे कतिपय अंधकार प्रकाशक पदार्थों से नष्ट हो जाते हैं. किन्तु कुछ अंधकार ऐसे होते हैं जिन्हें प्रकाशक पदार्थ ठीक उसी रंग में दिखा तो देते हैं किन्तु नष्ट नहीं कर पाते। जैसे मशाल के ऊपर निकल रहे काले धएँ को मशाल की ज्योति नष्ट नहीं कर पाती अपित उसे दिखाती है, उसी प्रकार ये राजियाँ भी काले वर्ण की दीवार या वस्त्रों की तरह प्रतीत होती हैं। ये आठों ही राजियाँ असंख्यात हजार योजन लम्बी और संख्यात हजार योजन चौड़ी हैं। इनकी परिधि असंख्यात हजार योजन की है। आठ कृष्णराजियों के नाम-1. कृष्णराजि, 2. मेघराजि, 3. मेघा, 4. माघवती, 5. वातपरिघा (आँधी के समान सघन), 6. वातपरिक्षोभ, 7. देवपरिघा (देवों के लिये भी दुर्लध्य), 8. देव परिक्षोभ (देवों को भी भय पैदा कराने वाली)। ये दो पूर्व में, दो पश्चिम में, दो उत्तर में और दो दक्षिण में-इस प्रकार चारों दिशाओं में कुल आठ हैं। पूर्व-पश्चिम की बाहर वाली दो कृष्णराजियाँ षट्कोण हैं तथा इन्हीं दो दिशाओं के अंदर वाली दो राजियाँ चतुष्कोण हैं। इसी प्रकार उत्तर-दक्षिण के बाहर की दो राजियाँ त्रिकोणाकार एवं इन्हीं दोनों दिशाओं की आभ्यंतर दो राजियाँ चतुष्कोण हैं। ये दो-दो कृष्णराजियाँ एक-दूसरे को एक किनारे से स्पर्श करती हैं। सचित्र जैन गणितानुयोग 141