Book Title: Jain Ganitanuyog
Author(s): Vijayshree Sadhvi
Publisher: Vijayshree Sadhvi

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Page 117
________________ 11. विजय क्षेत्रों के खण्ड 12. विजय क्षेत्रों के देश | विजय क्षेत्रों के आर्य देश | वैताढ्य पर्वत की श्रेणियाँ 4334 (34 x 6= ) 204 _408| 408 1020 10,88,000 | 21,76,000/ 21,76,000/ 54,40,000 (34x 25%) 867 1734 1734 136 _272 272 680 16 32| 32 80 14 28| 2870 28 28/ 70 14,56,000/ 29,12,000/ 29,12,000/ 72,80,000 17. 14 10 - 16. महानदियाँ प्रपातकुण्ड 18. नदियों का परिवार 19. | पृथ्वीकायमय महावृक्ष 20. प्रत्येक वृक्ष के वलय वृक्ष 21. सीता-सीतोदा के मुखवन 22. | मेरू पर्वत के वन 23. युगलिक क्षेत्र .. 24. कर्मभूमि क्षेत्र अन्तर्वीप 20 1,20,50,120 2,41,00,240 4,82,00,480/31,33,03,120 488 8/ 6 12 1 la 15 80 56 अढ़ाई द्वीप के बाहर की स्थिति तिर्छलोक में अढ़ाई द्वीप के बाद असंख्याता द्वीप और असंख्याता समुद्र हैं। वहाँ केवल तिर्यंच गति के ही जीव हैं, वहाँ मनुष्य नहीं हैं। मनुष्य क्षेत्र के बाहर मनुष्यों का जनम-मरण नहीं होता है। किसी विशेष विद्या या देवीय शक्ति के प्रभाव से मनुष्य अढ़ाई द्वीप के बाहर जा तो सकता है, किंतु वहाँ जन्म-मरण नहीं करता। यहाँ तक कि किसी भी स्त्री, चाहे वह मानुषी हो या विद्याधरी; उसके गर्भ में भी कोई जीव उत्पन्न नहीं हो सकता। किसी का आयुष्य पूर्ण होने आया हो तो क्षेत्र का अधिष्ठायक देव उसे उठाकर अढ़ाईद्वीप में छोड़ देता है। इसका कारण वहाँ का क्षेत्र-स्वभाव है। मनुष्य क्षेत्र के बाहर भरत आदि क्षेत्र, गाँव, नगर, धन-धान्य आदि निधि, गंगा, सिंधु आदि शाश्वती महानदियाँ, पद्मादि द्रह और वर्षधर आदि पर्वत भी नहीं होते, किंतु अशाश्वती नदियाँ या सरोवर हो सकते हैं। पुष्करावर्त मेघ गर्जना आदि भी नहीं होती। असुरादि देवों द्वारा कभी-कभी माया के कारण मेघ गर्जना या बिजली का चमकना हो सकता हैं। पर, वहाँ बादर अग्नि का अभाव है। काल, समय, आवली आदि व्यवहार भी वहाँ नही है, क्योंकि अढ़ाई द्वीप के बाद सूर्य और चंद्र भ्रमण नहीं करते, जहाँ सूर्य है वहाँ सदा दिन ही रहता है एवं जहाँ चंद्र हैं वहाँ सदा पूनम की चाँदनी जैसा प्रकाश रहता है। वहाँ चन्द्रग्रहण या सूर्यग्रहण भी नहीं होता। सचित्र जैन गणितानुयोग AN 95

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