________________ जाती है। बाकी का वर्णन पूर्वानुरूप है। उद्गम तथा संगम के समय उसके प्रवाह का विस्तार हरिकान्ता नदी के सदृश होता है। द्रह के मणि रत्नमय कमल की कर्णिका पर कीर्तिदेवी' सपरिवार निवास करती है। रम्यक्वर्ष क्षेत्र - यह क्षेत्र नीलवान् वर्षधर पर्वत की उत्तरदिशा में तथा रूक्मि पर्वत के दक्षिण में स्थित है। यह अकर्मभूमिक क्षेत्र है। यहाँ पर युगलिया मनुष्य व तिर्यंच हैं। दूसरे 'सुषम' काल जैसी यहाँ स्थिति है। यह हरिवर्ष क्षेत्र के समान है। इतना अन्तर है कि इसकी जीवा दक्षिण में और धनुपृष्ठ भाग उत्तर में है। इसके मध्य 'गंधापाती' नामक गोलाकार वैताढ्य पर्वत है। विकटापाती सदृश उसका वर्णन है। रम्यक्वास के युगलियों का शरीर बड़ा ही रमणीक है तथा 'रम्यक्देव' का भी यहाँ निवास है अतः इसे 'रम्यक्वर्ष' कहा जाता है। रूक्मि वर्षधर पर्वत-यह पर्वत रम्यकवर्ष क्षेत्र और हैरण्यवत क्षेत्र की सीमा निश्चित् करता है। यह रम्यक्वर्ष के उत्तर में और हैरण्यवत के दक्षिण में तथा पूर्व से पश्चिम लवण समुद्र तक फैला हुआ है। महाहिमवन्त पर्वत के सदृश इसका वर्णन है। विशेष इसकी जीवा दक्षिण में और धनुपृष्ठभाग उत्तर में है। यह रजत की आभा वाला रजतमय है तथा पल्योपम की स्थिति वाला रूक्मि' नामक देव इस पर्वत का अधिष्ठाता है अतः इसें रूक्मि पर्वत' कहा गया है। इसके आठ कूट बतलाये गये हैं-(1) सिद्धायतनकूट, (2) रूक्मीकूट, (3) रम्यककूट, (4) नरकान्ताकूट, (5) बुद्धिकूट, (6) रूप्यकलाकूट, (7) हैरण्यवतकूट तथा (8) मणिकांचनकूट। ये सभी कूट पाँच-पाँच सौ योजन ऊँचे है। उत्तर में इनकी राजधानियाँ है। महापुण्डरीकद्रह और नरकान्ता व रूप्यकूला नदियाँ-रूक्मि पर्वत के मध्य 'महापुण्डरीक द्रह' हैं। इसके दक्षिण तोरण से नरकान्ता नदी निकलती हैं। वह दक्षिण की ओर रम्यक्वास क्षेत्र के मध्य में होकर 15 हजार नदियों के परिवार से पूर्व के लवण समुद्र में जाकर मिलती है। दूसरी रूप्यकूला नदी' महापुण्डरीद्रह के उत्तरी तोरण से निकलती है वह हैरण्यवत क्षेत्र के मध्य में होती हुई 28 हजार नदियों के परिवार से पश्चिमी लवण समुद्र में जाकर मिलती है। नरकान्ता नदी का वर्णन रोहिता नदी के सदृश और रूप्यकला नदी का वर्णन हरिकान्ता नदी के सदृश है। महापुण्डरिक द्रह के रत्नमय कमल की कर्णिका पर 'बुद्धिदेवी' सपरिवार रहती है। हैरण्यवत क्षेत्र रूक्मि नामक वर्षधर पर्वत के उत्तर में तथा शिखरी वर्षधर पर्वत के दक्षिण में पूर्व से पश्चिम छोर तक लम्बा हैरण्यवत क्षेत्र है। यह क्षेत्र रूक्मि और शिखरी वर्षधर पर्वतों से दो ओर घिरा हुआ है यह नित्य हैरण्य-चाँदी के समान चमकता है तथा हैरण्यवत देव' इस क्षेत्र का अधिपति है अत: इसे 'हैरण्यवत' कहते हैं। इस क्षेत्र में हैमवत क्षेत्र के समान ही सदैव तीसरे आरे सुषम-दुषमा के प्रथम भाग जैसी स्थिति रहती है। विशेष, इसकी जीवा दक्षिण में और धनुपृष्ठभाग उत्तर में है। इसके मध्य में 'माल्यवंत' नाम का वृत्त-गोलाकार वैताढ्य पर्वत है। उसका वर्णन शब्दापाती वृत्त वैताढ्य सदृश समझना। सचित्र जैन गणितानुयोग 75