________________ वह श्रीगृह में खुलता है। चक्रवर्ती के जीवनकाल में ये उनके पास रहती हैं, उनके दीक्षा अंगीकार कर लेने या आयु पूर्ण होने पर अपने-अपने स्थान पर चली जाती हैं। गंगा और सिंधु नदी के पुल धीरे-धीरे विनष्ट हो जाते हैं। तमिस्रा और खंडप्रपात गुफा के द्वार उसके अधिष्ठायकदेव बंद कर देते हैं। अर्थात् छह खण्ड का व्यवहार छह मास में अपने आप बंद हो जाता है। सात एकेन्द्रिय रत्न अपने स्थान पर चले जाते हैं। पंचेन्द्रिय रत्न आयु पूर्ण कर जाते हैं। स्त्रीरत्न मरकर नरक में पैदा होती है। कालचक्र सृष्टि अनादि से है और अनंतकाल तक रहेगी। यह कभी नष्ट नहीं होती, किंतु कहीं-कहीं काल के प्रभाव से उतार-चढ़ाव आता रहता है। काल का यह पहिया केवल अढ़ाई द्वीप में स्थित भरत-ऐरावत क्षेत्र में ही घूमता है। अत: वहाँ कभी हास की स्थिति आती है कभी विकास की, इसी को कालचक्र' कहते हैं। ___ मुख्यरूप से काल के दो विभाग होते हैं-(1) अवसर्पिणी काल और (2) उत्सर्पिणी काल। जिस काल में मनुष्य एवं तिर्यंचों की आयुष्य संहनन, संस्थान शरीर की ऊँचाई, सुख-वैभव एवं विचार आदि निरन्तर घटते रहते हैं, वह 'अवसर्पिणी काल' तथा जिसमें उक्त सभी बातें क्रमश: बढ़ती जाती हैं, वह 'उत्सर्पिणी काल' कहलाता है। अवसर्पिणीकाल समाप्त होने पर उत्सर्पिणी काल आता है और उत्सर्पिणी काल समाप्त होने पर अवसर्पिणी काल आता है। दिन के बाद रात्रि और रात्रि के बाद दिन के समान अनादिकाल से भरत-ऐरावत क्षेत्र में यह क्रम चला आ रहा है और अनन्तकाल तक यही क्रम चलता रहेगा। उत्सर्पिणी में लोग अपने दु:ख के दिन याद करेंगे और अवसर्पिणी में सुख के दिन। कालचक्र की अवधि-अवसर्पिणी काल दस कोटाकोटि सागरोपम का है इसी प्रकार उत्सर्पिणी काल भी दस कोटाकोटि सागरोपम का है। दोनों मिलकर 20 कोटाकोटि सागरोपम का एक 'कालचक्र' होता है। कालचक्र कोई वास्तविक चक्र नहीं, किंतु जैसे चक्र घूमता हुआ पुनः उसी स्थान पर आ जाता है, उसी प्रकार आज जैसा काल है, वह अमुक समय पश्चात् पुनः लौट आएगा, अतः काल को चक्र रूप में गिना गया है। प्रत्येक काल के छह-छह आरे (भेद) हैं, कालचक्र के कुल बारह आरे हैं। (चित्र क्रमांक 40) अवसर्पिणी (अपकर्ष) काल (1) सुषम-सुषमा–चार कोटा कोटि सागरोपम तक चलने वाला यह आरा अत्यन्त सुख होने के कारण 'सुषम-सुषमा' कहा जाता है। इस काल में भूमि रज, धूम, अग्नि, हिम, कंकर, कंटक आदि से रहित होती है। शंख, कीड़े-मकोड़े, चींटी, मक्खी-मच्छर, खटमल, बिच्छू आदि विकलेन्द्रिय जीव नहीं होते। असंज्ञी तथा जात-विरोधी जीव भी नहीं होते। हाथी, घोड़े, गाय, ऊँट, हिरण आदि तथा सिंह, व्याघ्र आदि जंगली पशु भी वैरानुबंध से रहित भद्र स्वभावी होते हैं। पंचवर्णी पुष्पलताएँ, कमल आदि से युक्त निर्मल जल से परिपूर्ण वापियाँ, उन्नत पर्वत, इन्द्र नीलमणी आदि रत्न, मणिमय बालू से शोभित उत्तम नदियाँ होती हैं। गर्मी, सर्दी, अंधकार नहीं होता। परस्त्रीरमण, परधनहरण आदि व्यसन नहीं होते। इस काल में उत्तम तिल, मसा आदि चिह्न और शंख, चक्र आदि लक्षणों सहित महारूपवान और सरल स्वभाव वाले स्त्री-पुरूष का जोड़ा एक साथ उत्पन्न होता है, 49 दिन तक उनका पालन-पोषण करने के बाद वे स्वावलम्बी होकर सुखोपभोग करते हैं। सचित्र जैन गणितानुयोग வவவவவவவ 49