Book Title: Jain Ganitanuyog
Author(s): Vijayshree Sadhvi
Publisher: Vijayshree Sadhvi

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Page 76
________________ में जाते है, किंतु जो अंतिम समय तक भोगों में ही आसक्त रहकर मृत्यु प्राप्त करते है, वे नरक में जाते हैं। 12 चक्रवर्ती के नाम-(1) भरत, (2) सगर, (3) मघवा, (4) सनत्कुमार, (5) शान्तिनाथ, (6) कुन्थुनाथ, (7) अरनाथ, (8) सुभूम, (9) महापद्म, (10) हरिषेण, (11) जयसेन (12) ब्रह्मदत्त। बलदेव- बलदेव वसुदेव के बड़े भाई होते हैं। दोनो के पिता एक और माता अलग-अलग होती है। दोनों भाईयों में परस्पर 'अत्यंत' प्रेम होने से दोनों ही मिलकर तीन खण्डों पर राज्य करते हैं। बलदेव में एक लाख अष्टापदों का बल होता है। वासुदेव की आयु पूर्ण होने के बाद बलदेव संयम धारण करते हैं और आयु का अंत होने पर स्वर्ग या मोक्ष में जाते हैं। नौ बलदेव-(1) अचल, (2) विजय, (3) भद्र, (4) सुप्रभ, (5) सुदर्शन, (6) आनन्द, (7) नन्दन, (8) पद्मरथ (राम), (9) बलभद्र। वासुदेव-पूर्वभव में निर्मल तप संयम का पालन करके नियाणा (निदान-कर्मफल की इच्छा) करते हैं और आयु पूर्ण होने पर स्वर्ग या नरक का एक भव करके उत्तम कुल में अवतरित होते हैं। उनकी माता को सात उत्तम स्वप्न आते हैं। जन्म ग्रहण करके युवावस्था को प्राप्त होकर राजसिंहासन पर स्थित होते हैं। 20 लाख अष्टापदों का बल इनके शरीर में होता है। वासुदेव पद की प्राप्ति के समय सात रत्न उत्पन्न होते हैं। यथा(1) सुदर्शन चक्र, (2) अमोघ खड्ग, (3) कोमुदी गदा, (4) पुष्पमाला, (5) धनुष-अमोघबाण (शक्ति),(6) कौस्तुभमणि और (7) महारथ। नौ वासुदेव-(1) त्रिपृष्ठ, (2) द्विपृष्ठ, (3) स्वयंभू, (4) पुरूषोत्तम, (5) पुरूषसिंह, (6) पुरूषपुण्डरीक, (7) दत्त, (8) लक्ष्मण, (9) कृष्ण। प्रतिवासुदेव-वासुदेव से पहले प्रतिवासुदेव उत्पन्न होता है। वह दक्षिणार्द्ध भरत क्षेत्र पर राज्य करता है। वासुदेव उसे मार कर उसके राज्य के अधिकारी बन जाते हैं। अर्थात् वासुदेव का तीन खण्डों पर एक छत्र राज्य होता है। प्रतिवासुदेव अंतिम समय में अतृप्तकामी होकर नरक गति में जाते हैं। नौ प्रतिवासुदेव-(1) सुग्रीव, (2) तारक, (3) मेरक, (4) मधुकैटभ, (5) निसुम्भ, (6) बल, (7) प्रह्लाद, (8) रावण, (9) जरासंध। (5) दुषम आरा-चौबीसवें तीर्थंकर के निर्वाण के पश्चात् तीन वर्ष साढ़े आठ मास व्यतीत होने पर दुषम नामक पाँचवाँ आरा प्रविष्ट होता है। यह आरा 21 हजार वर्ष का है। इस काल में चौथे आरे की अपेक्षा शुभ पुद्गलों में अनन्तगुणी हीनता आ जाती है। आयुष्य जघन्य अन्तर्मुर्हत, उत्कृष्ट 125 वर्ष व देहमान सात हाथ का रह जाता है। पसलियाँ 16 रह जाती हैं, दिन में दो बार आहार की इच्छा होती है। इस आरे में तीर्थंकर, चक्रवर्ती, बलदेव, वासुदेव, प्रतिवासुदेव, नारद, कामदेव आदि श्रेष्ठ, उत्तम पुरुषों का जन्म नहीं होता है। इसके अतिरिक्त दस बातों का अभाव हो जाता है-(1) केवल ज्ञान, (2) मनःपर्यवज्ञान, (3) परमावधिज्ञान, (4) परिहार विशुद्धि चरित्र, (5) सूक्ष्मसंपराय चरित्र, (6) यथाख्यात चारित्र, (7) पुलाक लब्धि, (8) आहारक शरीर, (9) क्षायिक सम्यक्त्व, (10) जिनकल्पी मुनि। ___ इस आरे में जन्मा कोई भी जीव मुक्ति नहीं पा सकता, किन्तु चतुर्थ आरे में जन्में मनुष्य को इस आरे में केवलज्ञान व मोक्ष हो सकता है। जैसे-जंबूस्वामी। यह आरा दु:ख प्रधान है इसलिये इसका नाम 'दुषमा' रखा गया है। दुषमकाल के 30 लक्षण-दुषमकाल में धर्म का, मानवता का क्रमशः ह्रास होता जाता है, कभी अतिवृष्टि, कभी दुष्काल से प्रकृति में भी परिवर्तन होता है। पूज्य अमोलक ऋषि जी महाराज ने दुषमकाल के 54 AAAAAAA-सचित्र जैन गणितानुयोग 4 A .

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