________________ वर्ण व्यंतर देवों की तालिका 800 योजन के प्रथम प्रतर के 8 जाति के | 80 योजन की दूसरी प्रतर के 8 जाति के दोनों प्रतरों के देवों के शरीर व्यन्तर देवों का यन्त्र वाणव्यन्तर देवों का यन्त्र का वर्ण और मुकुट का चिह्व 8व्यन्तर दक्षिण दिशा उत्तर दिशा के 8 वाण व्यन्तर दक्षिण दिशा उत्तर दिशा के शरीरका मुकुट का देवों के नाम के इन्द्र के नाम इन्द्र के नाम | देव के नाम के इन्द्र के नाम इन्द्र के नाम | चिह्न 1. पिशाच काल महाकाल 9. आनपन्नी | सन्निहितेन्द्र | सन्मानेन्द्र श्याम कदंब वृक्ष | 2. भूत सुरूप प्रतिरूप |10. पानपन्नी | धातेन्द्र विधातेन्द्र श्याम शालि वृक्ष 3. यक्ष पूर्णभद्र मणिभद्र 11. ईसीवाई ईसीन्द्र इसीपतेन्द्र श्याम वट वृक्ष 4. राक्षस भीम महाभीम 12. भूइवाई ईल्वरेन्द्र मेहेश्वरेन्द्र श्वेत पाटली वृक्ष 5. किन्नर किन्नर किंपुरूष 13. कंदीये / सुवच्छेन्द्र / विशालेन्द्र | हरा | अशोक वृक्ष 6. किंपुरूष | सुपुरूष | महापुरूष 14. महाकंदिये| हास्येन्द्र हास्यरतीन्द्र श्वेत चंपक वृक्ष 7. महारोग अतिकाय महाकार्य 15. कोहंड श्वेतेन्द्र मेह वेतेन्द्र श्याम नाग वृक्ष 8. गंधर्व गीतरति गीतयश 16. पयंगदेव | पहेगेन्द्र पहंगपतेन्द्र | श्याम तुम्बरू वृक्ष नोट-ये सभी इन्द्र महापराक्रमी, संपूर्ण सुखी, अतिऋद्धिवन्त एवं अपूर्व सामर्थ्य से युक्त होते है। चौथे राक्षस निकाय का चिह्न खट्वांग (भिक्षा पात्र) आकार का है,शेष सभी के चिह्न विविध जाति वाले वृक्ष है। - मेरूपर्वत / / मध्यलोक में जंबूद्वीप आदि असंख्यात द्वीप-समुद्र हैं, उन सब के मध्य केन्द्र में एक लाख योजन का सुदर्शन मेरूपर्वत है। यह मल्लस्तम्भ अथवा गाय की पूंछ की आकृति का नीचे चौड़ा ऊपर क्रमशः संकड़ा होता गया है। मूल में 10,090 योजन तथा भूमितल पर 10 हजार योजन चौड़ा है। उसके बाद चौड़ाई में क्रमशः घटते-घटते ऊपर शिखर भाग पर 1,000 योजन चौड़ा रह जाता है। इसकी परिधि मूल में 31,9101 योजन, भूमितल पर 31,623 योजन तथा ऊपरी तल पर कुछ अधिक 3,162 योजन की है। यह 99 हजार योजन पृथ्वी के ऊपर है और 1,000 योजन पृथ्वी के नीचे है। पृथ्वी के अंदर के भाग की चौड़ाई सर्वत्र 1,000 योजन हैं। मेरू का 100 योजन का भाग अधोलोक में, 1,800 योजन का भाग मध्यलोक में तथा 98,100 योजन का भाग ऊर्ध्वलोक में है। इस प्रकार यह लोक की नाभि के समान ऊर्ध्व, मध्य और अधो तीनों लोकों का स्पर्श करता है। यह सर्वरत्नमय, स्वच्छ, सुकोमल है तथा एक पद्मवरवेदिका व एक वनखण्ड से चारों ओर से घिरा हुआ है। समझने की दृष्टि से इस पर्वत को तीन कांडों/भागों में बाँटा गया है-1. प्रथम काण्ड-पृथ्वी के भीतर मृत्तिका, पाषाण, कंकर और वज्ररत्नमय है जो एक हजार योजन का है। 2. दूसरा कांड-पृथ्वी पर स्फटिकरत्न, अंकरत्न, रूप्य और सुवर्णमय है, वह 63 हजार योजन का है। 3. तीसरा कांड-पृथ्वी के ऊपर रक्त सुवर्णमय है, वह 36 हजार योजन का है। इस प्रकार 1,000 + 63,000 + 36,000 = 1,00,000 योजन ऊँचा मेरू पर्वत है। (चित्र क्रमांक 22) मेरू पर्वत के चार वन-मेरू पर्वत पर चार वन हैं-(1) भद्रशाल वन,(2) नन्दनवन, (3) सोमनस वन एवं(4) पंडकवन। 26 सचित्र जैन गणितानुयोग