________________ ये सभी कूट पूर्वी लवण समुद्र के पश्चिम में गाय के ऊर्वीकृत पूँछ के आकार वाले हैं। ये 500 योजन ऊँचे, मूल में 500 योजन, मध्य में 375 योजन तथा ऊपर 250 योजन विस्तीर्ण है। मूल में इनकी परिधि कुछ अधिक 1,581 योजन, मध्य में कुछ कम 1,186 योजन तथा ऊपर कुछ कम 791 योजन है। सिद्धायतन कूट के पश्चिम में 'चुल्लहिमवान कूट' है। इसी प्रकार आगे-आगे के कूट क्रमशः पश्चिम-पश्चिम में स्थित है। चुल्लहिमवान कूट पर पल्योपम की स्थिति वाले 'चुल्लहिमवान गिरिकुमार' की राजधानी है। वह कूट के दक्षिण में असंख्यद्वीप समुद्रों को पार कर अन्य जंबूद्वीप के दक्षिण में 12 हजार योजन पार करने पर 12 हजार योजन लम्बी-चौड़ी हैं। इसी प्रकार भरत हैमवत तथा वैश्रवणकूटों पर भी उस नाम के देवों की राजधानियाँ है। इनके अतिरिक्त शेष कूटों पर देवियाँ निवास करती हैं, देव नहीं। 0 षट्खण्ड पृथ्वी पर चक्रवती की विजय यात्रा || संपूर्ण भरतक्षेत्र पर चक्रवर्ती का अधिपत्य होता है। वह छह खण्ड पर अपनी विजय वैजयन्ती फहराता है। उसका विस्तृत वर्णन जंबूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र में इस प्रकार दिया है चक्रवर्ती की आयुधशाला-शस्त्रागार में जब 'चक्ररत्न उत्पन्न होता हैं तो आयुधशाला का अधिकारी राजसभा में इस शुभ संवाद की सूचना देता है। चक्रवर्ती इस शुभ वार्ता से हर्षित हो शीघ्र ही सिंहासन से उठकर चक्ररत्न के सन्मुख सात-आठ कदम चलकर हाथ जोड़कर उसे प्रणाम करते हैं। फिर आयुधशाला के अधिकारी को जीवनोपयोगी विपुल पुरस्कार प्रदान कर उसे संतुष्ट करते है। स्नानादि से निवृत्त होकर अपने मंत्रीमंडल, सेनापति, सभी मांडलिक राजा तथा नगर के सभी प्रतिष्ठित श्रेष्ठियों के साथ आयुधशाला में आकर चक्ररत्न को प्रत्यक्ष प्रणाम करते हैं। दिव्य सुगंधित जल, चंदन, पुष्प एवं वस्त्राभूषणों से उसकी अर्चा-पूजा करके उसे अष्ट मंगल से चित्रित करते हैं। आठ दिन तक सम्पूर्ण नगर में चक्रोत्पत्ति का महामहोत्सव मनाया जाता हैं। O यह चक्ररत्न एक हजार देवों द्वारा अधिष्ठित होता है। पूजा-अर्चा से संतुष्ट हुआ वह स्वयं आयुधशाला से बाहर निकलकर आकाश में स्थित हो जाता है। चक्रवर्ती हस्तिरत्न पर आरूढ होकर अपनी चतुरंगिणी सेना के साथ नगर के पूर्वी द्वार से निकलकर चक्ररत्न के पीछे-पीछे चल पड़ते हैं। सर्वप्रथम वे गंगा महानदी के दक्षिणी तट से होते हुए सहस्रों ग्राम, नगर, पट्टण आदि के राजाओं को जीतते हुए, उनसे श्रेष्ठ उपहार ग्रहण करते हुए प्रत्येक योजन पर पड़ाव डालते हुए मागधतीर्थ में आते हैं। वहाँ 12 योजन लम्बा 9 योजन चौड़ा उत्तम नगर सदृश सैन्य शिविर लगाते हैं। चक्रवर्ती का वर्धकिरत्न उनके लिये विशेष रूप से पौषधशाला का वहाँ निर्माण करता है। चक्रवर्ती यहाँ तेले का तप अंगीकार करते हैं। तत्पश्चात् पूर्व दिशा की ओर चक्ररत्न के निर्देशित मार्ग से आगे बढ़ते हुए वे रथ के पहिये भीगे, उतनी गहराई तक लवण समुद्र में प्रवेश करके बाण छोडते हैं। यह बाण 12 योजन दूर मागधतीर्थ के अधिष्ठायक देव के भवन में गिरता है। बाण को देखकर पहले तो देव क्रोध में आग बबूला हो उठता है, किंतु जब बाण पर चक्रवर्ती का नामांकन देखता है, तो वह आदर और सम्मान सहित चक्रवर्ती के पास आकर हार, मुकुट आदि अमूल्य उपहार भेंट करता है तथा चक्रवर्ती की इस तरफ की सीमा की रक्षा का दायित्व स्वीकार करता है। चक्रवर्ती भी प्रसन्न भाव से देव को विसर्जित कर तेले का पारणा करते हैं। तत्पश्चात् वे दक्षिण-पश्चिम दिशा (नैऋत्य कोण) में वरदाम तीर्थ पर तेला करके वहाँ के अधिष्ठायक देव को वश में करते हैं। इसी प्रकार उत्तर-पश्चिम दिशा होते हुए पश्चिम में प्रभास तीर्थ पर तेला 42 सचित्र जैन गणितानुयोग