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की भगवतीआराधना से भी इसकी कुछ गाथाओं की समरूपता प्रतीत होती है। वहीं परवर्ती ग्रन्थों विशेष रूप से प्रवचनसारोद्धार आदि में भी इसकी गाथाओं का अनुसरण देखा जाता है। इस प्रकार संवेगरंगशाला की अपने पूर्ववर्ती और परवर्ती ग्रन्थों से तुलना भी प्रस्तुत शोध का एक महत्वपूर्ण पक्ष मुझे दृष्टिगत होता है।
आराधना सम्बन्धी पूर्ववर्ती ग्रन्थों से इसकी तुलना करने पर मुझे सबसे रूचिकर विषय इसमें वर्णित आराधना सम्बन्धी कथाएँ लगती हैं। आज तक आराधना सम्बन्धी जो ग्रन्थ मुझे दृष्टिगत हुए हैं, उनमें प्रायः कथाओं के संकेत ही मिलते हैं, जबकि प्रस्तुत कृति में वे कथाएँ अधिक विस्तारपूर्वक दी गई हैं। मेरी दृष्टि में इन कथाओं के मूल स्रोतों की खोज करना भी इस शोधकार्य का एक आवश्यक पक्ष है। प्रस्तुत शोध में यह जानने का प्रयास किया गया है कि इसमें वर्णित कथाएँ प्राचीन आगम-साहित्य, आगमिक-व्याख्या-साहित्य तथा अन्य कुछ आराधना सम्बन्धी साहित्य में किस रूप में उपलब्ध हैं। शोध की दृष्टि से यह तुलनात्मक अध्ययन रुचिकर भी है और महत्वपूर्ण भी। आराधना सम्बन्धी कथाओं को विस्तार से प्रस्तुत करने में यह संवेगरंगशाला अद्वितीय ग्रन्थ है। यद्यपि अचेल-परम्परा में आराधना-कथाकोश आराधना सम्बन्धी कथा-साहित्य का एक महत्वपूर्ण ग्रन्थ है, फिर भी संवेगरंगशाला में जितने विस्तार से आराधना सम्बन्धी कथाएँ मिलती हैं, उतने विस्तार से आराधना सम्बन्धी कथाएँ आराधना-कथाकोश में भी नहीं हैं। तुलनात्मक अध्ययन से इन सब तथ्यों पर अधिक प्रकाश डाला गया है और इस दृष्टि से मेरा सोचना यह है कि शोध के क्षेत्र में यह अध्ययन एक विशिष्ट अवदान प्रदान कर सकेगा।
प्रस्तुत शोध-प्रबन्ध छ: अध्यायों में विभक्त है। प्रथम अध्याय में संवेगरंगशाला ग्रन्थ के रचयिता आचार्य जिनचन्द्रसूरि के व्यक्तित्व और कृतित्व पर संक्षेप में प्रकाश डाला गया है। दूसरे अध्याय में मुख्य रूप से सामान्य आराधना के रूप में गृहस्थधर्म और मुनिधर्म के सामान्य आचार का विस्तृत विवेचन किया गया है। इसमें मानवीय गुणों के रूप में सप्त दुर्व्यसन-त्याग और मार्गानुसारी गुणों की र्चचा के पश्चात् गृहस्थधर्म की चर्चा के अन्तर्गत बारह अणुव्रतों और श्रावक की ग्यारह प्रतिमाओं आदि का विस्तार से वर्णन किया गया है। मुनिधर्म में पंच-महाव्रत, पाँच-समिति,
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