Book Title: Ikshukaradhyayan Author(s): Pyarchandji Maharaj Publisher: Jainoday Pustak Prakashak Samiti View full book textPage 7
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( २ ) करती थी ! राज्य की ओर से शारीरिक और मानसिक उन्नति के लिये उचित प्रबन्ध किया गया था । किसी जन को किसी भी प्रकार का भय न था । कोई किसी को किसी प्रकार से त्रसित न कर सक्ला था । अनेक धर्मस्थान बने हुए थे, जिन में लोग अपनी २ इच्छानुकूल उन धर्मस्थानों में जाजा कर नियमित समय पर धर्मानुसार श्राराधना करते थे । इस प्रकार तमाम मनुष्यों का समय बड़े आनन्द के साथ व्यतीत होता था । नगर के बाहर अनेक बाग़ बगीचे लगाये गये थे जिन में अनेकों प्रकार के वृक्ष अपनी हरी भरी छटा दिखा रहे थे । चारों ओर फूलों की महक वायु में संचरित हो रही थी । स. न्ध्या समय नगर निवासी जन अपने काम काज से निबट कर "" उन चाटिकाओं में आ आकर सारे दिन की थकावट को दूर कर अपने मस्तिष्क को विश्राम देते थे । मध्यान्ह समय में जब ग्रीष्म ऋतु अपना प्रचण्ड रूप धारण करती थी और सूर्य देव के द्वारा सारी भूमि श्रग्निकी तरह तप्त हो जातीथी तब उस समय में पथिक लोग ग्रीष्म के प्रचण्ड शासन से बचने के लिये उन वाटिकाओं में वृक्षों की सघन ठण्डी छाया का श्राश्रय लेते थे और वे वृक्षभी परोपकारी संत की तरह स्वयं हवा, धूप और वर्षा सहन करते हुए आये हुये पथिक लोगों को श्राश्रय देते थे ! पशुभी ग्रीष्म की कड़ाई से व्याकुल हो कर छाया में बैठने के लिये इधर उधर घूम फिर कर वृक्षों का आसरा ले रहे थे। पक्षी गणभी उड़ता छोड़ पानी से प्यासे होकर कठिन धूप से घबड़ा कर वृक्षों की डालियों में मुँह छिपाये बैठे थे । ग्रीष्म ऋतु के ऐसे ही प्रचण्ड मध्यान्ह समय में उसी ईनुकार " नगरी के बाहर जन शून्य राह में दो साधु जो कि - For Private And Personal Use OnlyPage Navigation
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