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महेश कवि के 'हम्मीर रासो' की प्रतियां काफी मिलती हैं, पर अप्रकाशित होने से उसके प्रकाशित करने की बात 'हम्मीरायण' के प्रकाशन के समय (सन् १९६०) से ही चलती रही और ५ प्रतियों के आधार पर श्री मूलचन्द प्राणेश के सहयोग से सम्पादन किया गया। कुछ वर्ष तक वह राजस्थान प्राच्य विद्या प्रतिष्ठान में योंही पड़ा रहा फिर श्री जितेन्द्रकुमारजी जैन निदेशक राजस्थान प्राच्य विद्या प्रतिष्ठानं बीकानेर का ध्यान इस ओर आकर्षित किये जाने पर मुद्रण भी हो गया । इसी बीच मालूम हुआ कि इस 'रासो' का सम्पादन डॉ० माताप्रसाद गुप्त ने भी किया है, जो केन्द्रीय हिन्दी निदेशालय, नई दिल्ली से प्रकाशित भी हो चुका है । उसे प्राप्त करने के लिए केन्द्रीय हिन्दी निदेशालय को कई पत्र दिये पर वहां से प्रकाशित होने पर भी वह संस्करण वहां से प्राप्त नहीं हो सका । शायद वहां अब प्रतियां भी नहीं है । फिर विदित हुआ कि इसकी एक प्रति पं० श्री काशीरामजी शर्मा के पास है । तो उनसे मंगवाकर उसे देखा गया ।
डॉo गुप्त ने केवल २ प्रतियों के आधार पर इसका सम्पादन किया था । इनमें से पहली प्रति जयपुर के दि. सिंघीजी के मन्दिर की है जो संवत् १८२३ की लिखी हुई है । दूसरी प्रति एशियाटिक सोसायटी, कलकत्ता के संग्रह की सम्वत् १८६१ की लिखी हुई है। इन दोनों प्रतियों में भी काफी पाठ-भेद है । इनमें से पहली प्रति की संज्ञा 'ज' और दूसरी प्रति की 'ए' है । इन दोनों प्रतियों के पाठान्तर आदि के सम्बन्ध में डॉ० गुप्त ने अच्छा प्रकाश डाला है । पाठ-निर्धारण सम्बन्धी अपने मन्तव्य को व्यक्त करते हुए लिखा है कि "रचना
पाठ-निर्धारण में जहां तक दोनों में समान रूप से पाए जाने वाले पद्य और बात के अंश थे, वहां पर 'ए' प्रति के पाठ को साधारणतः अधिक मान्यता दी गई है, जहां पर 'ए' में बात के अंश थे और 'ज' में पद्य के, वहां पर भी 'ए' के पाठ को साधारणतः अधिक मान्यता दी गई है, केवल जहां पर 'ए' में ऐसी बातें थी जिनमें प्रक्षेप-जनित पाठ - वृद्धि स्पष्ट थी, वहां पर 'ज' का पाठ स्वीकार किया गया । यद्यपि वह 'ज' में कहीं-कहीं पर उपर्युक्त प्रकार से पंद्यबद्ध किया हुआ मिला, किन्तु इस प्रकार के स्थल कुल दो-तीन हैं, और सम्पादित पाठ में एक प्रकार से अपवाद स्वरूप आते हैं" ।
. डॉ० गुप्त द्वारा प्रयुक्त दिगम्बर शास्त्र भण्डार वाली संवत् १८२३ की प्रति का तो हमने भी उपयोग किया है और अन्य ४ प्रतियां डॉ० गुप्त की प्रयुक्त प्रतियों से भिन्न हैं । डॉ० गुप्त ने अपने पाठ - निर्धारण प्रणाली के अनुसार मूल मैं २६७ पद्य रखे हैं । बाको कुछ पद्यों और पंद्यांशों को नीचे टिप्पणी में ले लिया है। मेरे सम्पादित प्रस्तुत संस्करण में पद्यों की संख्या ३२४ है । मिलाने पर मालूम हुआ कि प्रारम्भ के और अन्त के तो बहुत से पद्य समान हैं पर बीच के पाठ में काफी कमी - बेसी है । इसीलिए पद्य संख्या में अन्तर प्रा गया है ।
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