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हमीररासो 145
नहीं जती बिनी जोग, सूर बिनि तेग न होई । ते साहि दल संग, मीर सरभरि नहीं कोई ।। करि सलाम महमां कहै, जोड़ि रावतन' हाथ । पाऊ हुकम हमीर का, तो करौं साहि पं घात ।।२१४।।
(जब) हंसिके कहै हमीर, इसी कबहू नहीं कीजै । पिरजा पड़े संताप, साहि परि घात न कीजे ।। हजरति साहि अलावदो, ये दूसरी खुदाय । बचे सीस पतिसाहि का, दीजे छत्र उडाय ।।२१५।। (जब) करि साहिब कौं यादि, सीस उत जब ही नवायो । कोना हुकम हमीर, कोपि करि के सर बायो ।। अनलपंख आकास में, भई अवाज वहकानि । मुरझाय साहि' धरनी पड़े, उड्यो छत्र असमानि ॥२१६।।
बचनिका
जन महरमखां उजीर पातिसाहि सौं कही'- पिछले निमक की दोस्ती, पातिसाहि की ज्यान बकसी है । अबकी तीरौंदाजी में पातिसाहि कौं नहीं छोड़ेगा । जिस गढ़ में महिमासाहि से (वीर) हैं सो यह गढ़ हरगजि हाथि आवेगा नहीं । बहोरचौं महरमखां पातिसाहि सौं अरज करता है ।
छंद चक चूदरि गित्ली सरप, साहि पीछे पछतावै । उगलै अंधा होय, खाय तो जिव सौं जावै ।। महरमखां यम उच्चरै, बहू औगुन हुये साहि के । छत्र टूटि धरती परै, यह कैंवर महिमां साहि के ।।२१७।।
१ ख. राव पै । २ ख. कोपि के तीर चलायो। ३ ख. प्रडलपंख । ४ ख. वहैकानि । ५ ग. साहि जब धर पर। ६ घ. कहता है। ७ यहां तक (ङ.) संज्ञक प्रति का पाठ उपलब्ध है, आगे त्रुटित है । ८ ख. कौं। ९ ख. करम ।
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