Book Title: Gurutattva Siddhi
Author(s): Suvihit Purvacharya
Publisher: Satyavijay Smarak Jain Granthmala

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Page 14
________________ ( १ ) ॥ ग्रन्थपरिचय | पारंभ ग्रन्थकार चोत्रीस अतिशयरूप अद्भुत ऋद्धियुक्त चरमतीर्थकर वर्द्धमानस्वामीने, शासनप्रभावक सुधर्मास्वामी आदि आचार्योंने, जीवाजीवादि पदार्थोंना स्वरूपने बनावनार जिनागमोने, तथा सरस्वतीने नमस्कार करीने जिनागमोनी सुंदर युक्तियो वडे गुरुतश्वसिद्धि नामक ग्रन्थने कहेवानी शरुआत करे ले आ कलिकालमा केटलाक धर्मार्थी जीवो पण केटलीक सिवनी गाथाओनो अभ्यास करीने तेना अभ्यासथीज दुर्दैववशात् विपरीत मतिवाळा थरला आवी रीते कहे छे के वर्तमान काळमां जे साधुओ देशकालने अनुसरीने चारित्र पाळता होय ते पण वंदन करवा योग्य नथी ? जेने माटे आवश्यक नियुक्तियां कछे के पासत्यो १ ओसनो २ होई कुसीलो तहेब संसत्तों ४ । अहच्छंदो ५ वि य ए ए अवंदणिजा जिणमयम्मि ॥ १ ॥ भावार्थ:- ज्ञान दर्शन अने चारित्रनी पासे रहे पण तेओनुं पालन करे नहि ते पासत्यो अथवा मिथ्यात्वादिकना पाचमां रहे ते पासत्थो, क्रिया मार्गमां जे शिथील थयो होय ते अवसन्न, जेनो आचार निन्दनीय होय ते कुशील जेने विषे केटलाक मूल अने उतरगुणो दोषमिश्रित थरला होय ते संसक्त, उत्सूत्रने आचरतो थको उत्सूत्री प्ररूपणा करे ते यथाछंद आ पांच कुगुरुओ जिन मतने विषे अवंदनिक छे.

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