Book Title: Gurutattva Siddhi
Author(s): Suvihit Purvacharya
Publisher: Satyavijay Smarak Jain Granthmala
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इय नाणचरणरहिओ सम्म हिट्ठो वि मुक्खदेसं तु। पाउणइ नेव नाणाइसंजुओ चेव पाउणइ ॥१॥
तथा श्रीउत्तराध्ययने| नाणं च दंसणं चेव चरितं च तवो तहा। एस मग्गुत्ति पण्णत्तो जिणेहिं वरदंसिहि ॥ १ ॥
श्री आवश्यकेनाणं पयासगं सोहओ तवो संजमो अ गुत्तिकरो। तिण्हं पि समाओगे मुक्खो जिणसासणे भणिओ॥२॥ __इत्यादिषु क्वचित्केवलस्य ज्ञानस्य क्वचिद्दर्शनस्य क्वचिच्चारित्रस्य क्वचित्तत्त्रयस्य क्वचिज्ज्ञानदर्शनचारित्रतपसां च मोक्षसाधनत्वं प्रतिपाद्यते । न चात्र ककश्चिबिरोधः, न चापि मतिमतामत्र मतिमोहः कः युक्तः। आगमे हि कानिचित् एकैकांशग्राहकतया नयवाक्यानि भवन्ति, कानिचिच संपूर्णाथग्राहकतया प्रमाणवाक्यानि, अत एवातिनिपुणमतीनामेव भगवदाज्ञा अवगन्तुं शक्या । यदावश्यकेझाइजा निरवज्जं जिणाण आणं जगप्पईवाणं । थनिउणजणदुन्नेयं नयभंगपमाणगमगहणं ॥ १ ॥ तथा- पुत्वावरेण परिभाविऊण सुत्तं पयासिअवंति जं वयणपारतंतं एवं धम्मत्थिणो लिङ्गं ॥ १ ॥
ततश्च पार्थस्थादीनां क्वचिदवन्द्यत्वमेव प्रतिपाद्यते ।
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