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श्रीसत्यविजयस्मारक जैनग्रन्थमाला नं० १३०
पूज्यपादपरमगुरु आचार्यश्रीविजयनीतिसूरीश्वरपाद
पद्मेभ्यो नमः ।
सुविहितपूर्वाचार्यप्रणीता ॥ गुरुतत्त्वसिद्धिः॥
प्रकाशकश्रीसत्यविजयस्मारकजैनग्रन्थमाला.
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श्री सत्यविजयस्मारक जैनग्रन्थमाला नं० १३.
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अहम् |
पूज्यपादपरमगुरु आचार्यश्री विजयनीतिसूरीश्वरपाद - पद्मेभ्यो नमः । सुविहितपूर्वाचार्यप्रणीता
॥ गुरुतत्त्वासिद्धि:
200
संशोधक
अनुयोगाचार्य - पन्न्यासश्रीहर्षविजयगणिशिष्यमुनिश्रीमानविजयः
प्रकाशक - श्री सत्य विजयमालायाः
कार्यबाहक :
बालाभाइ मूलचन्द्र शाह, अनाहक
वीर सं० २४५४ ]
प्रथमावृत्तिः,
सत्य सं० २२९
मूल्य १० आना.
[ सन्ने १९२८
प्रत ५००
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प्रस्तावना.
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सुज्ञवाचक! जन्म जरा मरण रूप जलवडे परिपूर्ण,सर्व जगत्ने गली जवामां समर्थ एवा लोभरूप वडवानले करीनेयुक्त, विषयरूप तरंगोए करीने चपल एवा संसारसमुद्रने विषे अनादि कालथी परिभ्रमण करता भव्यात्माओने संसारना दुःखथी मुक्त थवाने माटे तीर्थकरोए सद्देव गुरू धर्म रूप तच्चोनुं आराधन करवानुं कहेलं छे, अढार दक्षण रहित अने बार गुणे करीने युक्त एवा अ
रिहंत ते देव, पंचाचारना परिपालक ते गुरु अने केवलीकथित ते * धर्म ए त्रणे तत्त्वो प्रत्ये परिपूर्ण श्रद्धा ते सम्यक्त्व, ए सम्यक्त्व
ज मोक्षनुं असाधारण कारण छे के जेना विना ज्ञान अने चारित्र पण यथोक्त फल आपी शकता नथी ए त्रणे तच्चोनी अंदर गुरूतस्व मुख्य छ ? केम के जीवोने देवतव अने गुरुतत्वन स्वरूप ब.. तावनार गुरु महाराज होय छे,श्रीपाल चरित्रमा पण कहलं छे के
कारणं देवधर्माणां तत्त्वे भवति सद्गुरुः।
स गुरुनिन्दितो येन त्रयस्तेनावधूनिताः ॥ १॥ ___ भावार्थ:- देवतश्व अने धर्मतत्वनी प्राप्तिमा उत्तम गुरु महाराज कारणभूत छे केमके तेमना उपदेश विना ए तच्चोनुं यथार्थ ज्ञान थइ शकतु नथी, माटे जे गुरु महाराजनी निंदा करे तेणे त्रणे तत्त्वोनु अपमान कर्यु: समजवू, मुनिसुन्दरसूरीश्वरजी महाराज पण ए वातने पुष्टि आपता अध्यात्मकल्पद्रुममा लखे छे केतत्त्वेषु सर्वेषु गुरुः प्रधानं हितार्थधर्मा हि तदुक्तिसाध्याः श्रयंस्तमेवेत्यपरीक्ष्य मूढ ? धर्मप्रयासान् कुरुषे वृथैव ॥१॥ भावार्थ:- सर्व तत्वोने विषे गुरुतत्व मुख्य छ, केमके आ
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( ३ )
माने feasts दानादिक धर्मो गुरु महाराजना उपदेशथी क री शकाय के माटे हे मूढ ! परीक्षा कर्या विना तेज गुरुनो आश्रकरतो निरर्थक दानादिक धर्मना प्रयासो करे छे, आ उपरथी गुरुतश्वनी शुद्धिनी घणी आवश्यकता छे, परंतु अवसर्पिणी कालना दोषथी जेम पृथ्वी आदि पदार्थोंमां रूप रसादिनी हाणी देखायछे, तेम वर्तमान कालना साधुओ पण तथाप्रकारना संघयण तथा शारीरिक बळना अभावे कदाचिद अपवाद रूपे अतिचारनु सेवन करता हशे तेथी केटलाक मंदबुद्धि जीवो सिद्धान्तनी गाथा बतावीने साधुओने अवंदनिक कहे छे परंतु अपवादपदे अतिचारना सेवन करवा माथी कांइ सर्वथा चारित्रनो अभाव यतो नथी, भगवती सूत्रां पांचा प्रकारना निर्ग्रन्थो कथा छे, तेमां बकुशनेउत्तर गुणना विराधक अने कुशीलने तो मूल गुण अने उत्तर गु
बन्नेना विराधक कहेल के ए बन्ने निर्ग्रन्थो सर्व तीर्थंकरोना तीर्थपर्यंत अवस्थित होय छे तेथी देशकालने अनुसरीने सर्व शrिe करीने चारित्रनु पालन करनारा साधुओ पण बकुश अने कुशील पणाथी भिन्न नयी माटे वंदनिकज छे, ए बावनी ग्रंथकारे सिद्धान्तनी साक्षीयो आपीने युक्तिपूर्वक सारीरीने सिद्धि करी हे तेथी ए ग्रन्थनुं नाम योजके गुरुतध्वसिद्धि राखेल छे. आ पु. स्तनो लगभग चउदआनी भाग सिद्धान्तना पाठोथी भरपूर छे फक्त वे आनी भाग जेट लखाण कर्त्तानु देखाय छे, पुस्तकनी aani ग्रन्थकारे पोतान' नाम आप्यु नथी, तेथी अमे सुविहितपूचार्यप्रणीता एटलुंज नाम राख्यु छे,
आ ग्रन्थनी वे तो अपने "डोलाना उपाधयना भंडारमाथी मली छे, तेमां एक प्रत सात पानानी अने बीजी अगीयार पाना
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नी अने प्रायः शृद्ध हती ए बन्ने पुस्तकोने आधारे संशोधन करीने आ ग्रन्थ छगन्यो छे,वाचकनी सरलताने माटे केटलेक स्थले टीप्प णीयो पण मुकी छे अने गुजराती वांचनारा पण एनो लाभ लेड शके ते माटे आदिमां ग्रन्थपरिचय आप्यो छे, ग्रन्थनी अंतमां प्रतिमागुणदोषविचार नामनु लघु पुस्तक दाखल कर्यु छे, जे वर्तमानकालमां घणु उपयोगी छे ए पुस्तकनी एकज प्रत अमने डहेलाना भंडारमाथी मली छे, तेमां वे प्रकरणी छे, एक बिंबपरीक्षाकरण अने बीजु विवपूजास्वरूप ए पुस्तक बहुन अशुह हो. वाथी अने बीजी आदर्श प्रत मली शकी नहि तेथो आ पुस्तक बनती रीो सुधारीने छपाव्यु छे ए बन्ने पुस्तकोनी शुद्धि तरफ पुरतुं लक्ष्य आप्यु छे, छतां क्यांइ दृष्टिदोषथी अथवा प्रेसना दोषथी भूलो रही गएली जणाय तो विद्वानोए क्षमा करवी अने सुधारीने वांचवं अगर ए भूलो सुधारोने कोइ महाशय अमने लखी मोकलेशे तो बोजी आवृत्तिमा सुधारो करीशुं इति शम् ॥
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अमदावाद. सं० १९८४ फाल्गुन शुक्ल पञ्चमी.
लेखक:मुनि श्री मानविजय.
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tetetatetrt statetat tetrtetettetet ettetrtetatt tetstatatatatatatat retstatatatatatatatata
teretetetetztetetrtetateetatatatatatatatataterte toetretetestatatatataterte श्रीमत्पंन्याससत्यविजयजीगणीनुं जीवन चरित्र ॥
१ जन्म, साधु उपदेश. हालमां माळवा देशथी ओळखता सपादलक्ष देशमा लाडलं नामनुं गाम हतुं. अहीं वेपार सारो चालतो हतो. दूगड गोत्रना वीरचंद नामे शेठ वसता हता, अने तेनी भार्यानुं नाम वीरमदे हतुं बने धर्मिष्ठ हता, अने तेमने शिवराज नामनो पुत्र थयो. बालपणामां तेने धर्म प्रत्ये सारी भावना हती. एक दिवस त्यां ए. क मुनिराज पधार्या. तेना दर्शनथी पोताने उंडी छाप पडी, अने
उपदेशथी प्रतिबोध पाम्यो. मा अने बापने दीक्षा माटे रजा आ*पा बहु प्रार्थना करी, आखरे शिवराज एकनो बे थयो नहि * अने तेणे मावापने समजावी रजा लीधी, पछी मावापे कडु के 'तुं * लुकामां ( हालना स्थानकवासी) दीक्षा ले तो ते पंथना आचायेने तेडावी सारो दीक्षा समारंभ करावं ' त्यारे शिवराजे कयु के जे गच्छ मुविहित- सारी विधि पाळनार छे अने जेमां शुद्ध सा. माचारी-क्रिया छे अने जेमां जिनराजनी पूजा करी शकाय छे ते गच्छमां हुं संयम लेवानो छु. आथी मावापे तपागच्छमां पुत्र मन स्थिर जोइ श्रीविजयसिंहमूरिने तेडाव्या:पुत्र तेमनी पासेउत्सवपूर्वकदीक्षा१४वरसनीउमरेलीधी,नामसत्यविजयआपवामा आव्यु.
२ अभ्यास, क्रियोद्धार. आ पछी शास्त्र सिद्धांतनो अभ्यास गीतार्थमुनि पासेथी करया लाग्या, भने उत्कृष्ट क्रिया पाळवा लाग्या. आमनी क्रिया बहु विख्याती पामी अने उत्तम वैरागी पुरूष ओळखाया. पछी तेमने
गच्छनी परिस्थिति जोतां जणायु के क्रियामां शिथिलता बहु के * तो तेनो उद्धार करवानी जरूर छे, तेथी गुरु आचार्य श्री विज* यसिंहमूरिनीरजालइतेनाप्रयाणअर्थेविहारकों. रास'मां लखेछेके:
श्री आचारज पूछीने, करूं क्रिया उद्धार; निज आतम साधन करूं बहुने करूं उपगार. FिTTTTTTTTTTPw
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श्री गुरुचरण नमी करी, करजोडी ते वारोरे;. .. ' अनुमति जो मुजने दियो, तो करुं क्रिया उद्धारोरे. श्री काल प्रमाणे खप खरं, दोषी हलु कर्म दलेवारे . तप करूं आलस मूकीने, मानव भवतुं फल लेवारे.' श्री. गुणवंत गुरु इणि परे कहे, 'योग्य जाणीने सुविचारोरे; जिम सुख थाय तिम करो, निज सफल अवतारोरे.' धर्म मार्ग दीपाववा, पांगरीया मुनि एकाकीरे; विचरे भारंडनी परे, शुद्ध संयममुं दिल छाकीरे. सहे परिषह आकरा, शोषे निज कोमल कायारे, क्षमता समता आदरी, मेली सहु ममता मायारे. ___ एक दिवस श्री सत्यविजयजीए श्री विजयसिंहमूरिने कलु
के ' आपनी आज्ञा होय तो हुँ क्रियोद्धार करूं. द्रव्य, क्षेत्र काल * अने भाव प्रमाणे संयम पालं. ' आचार्य का के — जेम सुख थाय
तेम करो (जहा सुख्खं देवाणुप्पिया)' आधी सत्यविजयजीए धर्ममार्गनेदीपाववा भारंडपक्षीनी पेठेअप्रमत्तपणेएकाकीविहार कर्यो..
३ विहार. ई. मेवाडना उदेपुरमा चोमासु कयु. घणा लोकोने प्रतिबोध आपी
धर्ममा स्थिर कर्या. छ? छटना तप करवा लाग्या.त्यांथी मारवाडमा ३ आव्या. त्यां पण जैनधर्म घणाने पमाडयो. पछी मेडता गाममां के
ज्यां श्री आनंदघनजी पण ते प्रसंगे रहेता हता अने ज्यां हाल ते मनी देरी छे त्या आवी चोमासुं कयु. अहींथी विहार करता नागोर ओवी चोमा कर्यु, त्यांथी जोधपुर चोमासु कयु एम देश विदेश अमतिबंधपणे विहार करी लोकोपर परम उपकार कर्यो.
४.पन्यासपद सं. १७२९. श्री विजयसिंहमूरिना पट्टाधीश श्री विजयप्रभमूरिए पोताना हस्तथी सोजत गाममां सं. १७२९ मां सत्यविजयजीने पन्यास पद आपवामां आव्यु हतुं. अहींथी पोते सादडीचोमासुंकर्यापछी गुजरा
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( ३ )
तमांअनेक स्थळेविहार करताकरताश्री सत्य विजयपाटण आवीपहोंच्या. ५ स्वर्गवास
क्रियानी उग्रताथी शरीर कृश थइ थइ गयुं हतुं, व्यासी वर्षनी उपर हती अने वृद्धावस्था पूरी आवी हती तेथी पोते पाटणज वधु बखत छेल्ला भागमां रह्या. अहीं राजनगरना शेठ सोमकरण शाह ना पुत्र सुरचंदशाह पंन्यासजीने खास वांदवा अर्थे आव्या हता. अने रुपैयादिक नाणावती तेमना अंग पूजता हता. कोइ श्रावको उपवासनां व्रत लेता हता, कोइ बीजां व्रतो स्वीकारता हता एम धर्मनो प्रभाव सारो देखानो हतो. अहीं संवत् ( १७५६ ना ) पोष सुद १२ शनिवारने सिद्धियोगे पंन्यासजी स्वर्गलोक सिधा व्या. आधी आखा नगरमा हाहाकार वर्ती रह्यो धर्मी श्रावको सुगुरुना स्वर्गमननिमित्ते उत्सवकरताहता अने सोनारुपाना फूलउछाळताहता आना स्मरणार्थे पाटणमां तेवखते स्थूभ स्थंभकर्यो हतो. अन्य विगतो (१) वनवास,
श्री सत्यविजय महाराज संबंधी हकीकत रासमांथी उपर प्रमाणे नीकळे छे परंतु बीजां स्थळोएथी जे जे बिगतो प्राप्त थाय छे ते अहीं जणावीए छीए. श्री आत्मारामजीकृत जैनतस्यादर्शमां पृ. ६-८ मां नीचे प्रमाणे जणान्युं छे:
-
" श्री सत्यविजय गणीजी क्रिया उद्धार करी श्री आनंदघ नजी साथे बहु वर्ष सुधी वनवासमां रह्या; तथा महातपस्या यो - गाभ्यास प्रमुख कयुँ, ज्यारे बहुज वृड थइ गया. अने पगमां चालवानी शक्ति नरही त्या अणहिलपुर पाटणमां आवी रह्या. " आ वातने आ रासमांथी टेकोमळे छे. जुओ नीचे जणावेल छे के:धर्ममार्ग दीपाववा, पांगरीया हुनि एकाकी है: विचरे भारंडनी परे, शुद्ध संयमश्यं दिल छाकी रे. सहे परिषद आकरा, शोषे निज कोमल काया है; खमता समता आदरी, मेली सहु ममता माया रे,
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( ४ )
कीयो बिहार मेवाडमां उदेपुर कियो चोमासो रे; धर्म पमायो लोकने, कीधो तिहां धर्मनो वासो रे. छठे छठने पारणां कीधां, तप जास न पारो रै; काया कीधी दुर्बळी, करी अरस नीरस आहारो रे. वळ अध्यात्मरसिक वनवासी श्री आनंदघनजी महात्मा घणे भागे मेडतामा रह्या हता, एवु लोककथा परथी जणाय छे, अने त्यां सत्यविजयजीये चोमासुं कर्तुं हतुं एम रासमां आपेल छे तेमज श्री आनंदघनजी, श्रीयशोविजयजी, श्रीविनयविजयजी, ज्ञान विमलसुरितथा श्रीमानविजयउपाध्याय आदिसमकालीनहतार निर्विवादळे. (२) पोते कया देशना हता.
संवेगी पट्टावलीना आधार सत्यविजयजी मेदपाट (मेवाड ) देशना हता अने तेनी आ निर्वाण साक्षी पूरे छे; परंतु यतिवर्गनी पट्टावलियां ते गंधारना शांतिदास श्रावक हता एम जे नीकळे के ते सत्य होवानो संभव नथी.
(३) पीतवस्त्रांगीकार.
आ वखतम स्थानकवासी ( अमूर्तिपूजक ) पंथ विद्यमान थयो, अने तेना साधुओ पण श्वेतवस्त्र पहेरता, तेथी श्वेतांबरीय मृ र्तिपूजक अने तेमनी बच्चे भेद जाणवानुं बराबर रह्यु नहि, तेथी केटलाक साधुओए पीतवस्त्र परवानुं स्वीकार्य यतिनी पडवालि जोतां श्री यशोविजयजीए काथीयां कर्यो हतां एम जणाइ आवे के अने तेनी साथे विजयप्रभसूरिने श्री सत्यविजय गणिए न वांद्या अने सामा पडी काथीयां वस्त्र धारण कर्या एम यतिनी बृहत् पालिमा जोवामां आवे छे. आनो निश्चय आ निर्वाणरासथी थतो नथी, परंतु श्री सत्यविजयजीनी शिष्य परंपरामांज थयेला ( जुओ आगळ ) पंडित वीरविजयजी आ संबंधे कंड उल्लेख करे
ते तपासीए, ते पोताना धम्मिलकुमार रास तथा चंद्रशेखर रासमा पोतानी जे प्रशस्ति आपे छे तेमां नीचे प्रमाणे दर्शाव्युं छे:
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तपगच्छ कानन कल्पतरूपम, विजयदेव सूरि रायाजी; नाम दशोदिश जेहन चावू, गुणीजन द्वंदे गवायाजी. विजयसिंहसरि तास पटधर, कुमति मतंगज सिंहोजी; तास शिष्य सूरिपदवी लायक, लक्षण लक्षित देहोजी. १ संघ चतुर्विध देश विदेशी, मलिया तिहां संकेतेजी; विविध महोत्सव करता देखी, निज सूरि पदने हेतेजी. पाये शिथिलपणुं बहु देखी, चित्त वैरागे वासीजी; मूरिवर आगे विनय विरागे, मननी वात प्रकाशीजी. २. 'मूरिपदवी नवि लेवी स्वामी, करशु किरिया उद्धारजी:' कहे सूरि 'आ गादी छे तुमशिर, तुम वश सहु अणगारजी.' एम कही स्वर्ग सधाव्या मूरिवर, संघने वात सुणावीजी: सत्यविजय पंन्यासनी आणा, मुनिगणमां वरतावीजी. ३ संपनी साथे तेणे निज हाथे, विजयप्रभसरि थापीजी, गच्छनिष्ठाए उग्र विहारी, संवेगता गुण व्यापीजी. रंगीत चेल लही जग वंदे, चैत्य धजाए लक्षीजी; सूरि पाठक रहे सन्मुख उभा, वाचक जस तस पक्षीजी. ४ मुनि सवेगी गृही निर्वेदी, त्रीजो संग पाखीजी; शिव मारग ए त्रणे कहीए. इहां सिद्धांत छे सांखीजी. . आर्यसुहस्तिमूरि जेम वंदे, आर्यमहागिरि देखीजो; दो तिन पाट रही मरजादा, पण कलिजुगता विशेखीजी. ५ ग्रहील जलासी जनतापासी, नृपमंत्री पण भलीयांजी.
अर्थ-तपगच्छ रुपी वनमां कल्पवृक्षनी उपमा पामेल श्री विजयदेवमूरि थया के जेतुं चावु ( मराठी 'चांगलं'-सारु) सुंदर नाम दशे दिशाए गुणीजनना समूहे गायुं छे तेना पट्टधर, कुमति रूपी हाथीओमां सिंह जेवा विजयसिंह मूरि थया अने ते. ना शिष्य, लक्षणथी लक्षित-अंकित थयेल देहवाळा (सत्यविजय) मूरिनी पदवीने लायक थया.
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दशे दिशाएथी चतुर्विध संघ आगळ्थी संकेत प्रमाणे तेने मू. रिपद आपवा भेगो मळयो, (श्री सत्यविजय ) पोताने मुरिपद आपवा माटे आ संघने जुदी जुदी जातना महोत्सव करता जोइ अने वैराग्यवाल पोतानुं चित्त संस्कारित थयेलं होवाथी शासन. मां प्रायःशिथिलपणुं देखी ( श्री विजयसिंह ) मूरि पासे विनय अने वैराग्यथी पोताना मननी वात प्रकाशित करी के 'हे स्वामिन् । मारे सूरि पदवी लेवी नथी. मारी इच्छा तो क्रिया उद्धार करवा
नी छे तो ते करीश.'-त्यारे सरिए कां के "आ गादी-गच्छगा* दी तमारे शिरे छे अने तमारे वश तमारी आज्ञा नीचे सौ मुनिप३ रिवार छे. आम कही ते सरिवर स्वर्ग सिधाच्या, अने तेमणे कहेलं
कथमसंघनेमुणावतांसत्यविजयपन्यासनीआज्ञामुनिगणमांप्रवर्ती. ३ ___ श्री सत्यविजयजीए संघनी साथे पोताने हाथे रही विजयप्रभने मूरिपदपर स्थाप्या, अने गच्छनिष्ठा गखी उग्रविहार करी क्रियोडारथी सवेगनो सत्य गुण व्याप्त कॉ. जेवी रीते छेटेथी। * ध्वजा देखीने लोको चैत्यजिनालय होवु जोइए, एवं अनुमान करी हाथ जोडे छे-वंदना करे छे, तेवीज रीते सत्यविजय गणिए ।
रंगित-रंगेला (पीत) वस्त्र अंगीकार करेला होवाथी नेने तेमज ते. | ना परिवारना साधुओने ते वस्त्रो उपरथी तेओ खरा संवेगी होवा जोइए एम अनुमान करी लोको तेमने वंदना करे छे आ श्री स. त्यविजयजी एवा प्रभावक हता के तेनी समक्ष मूरि ( श्री विजयप्रभमूरि ), पाठको उभा रहेता हता-मान आपता हता, अने तेना पक्षमां-क्रियोद्धारना पक्षमां वाचक श्री जश (यशोविजयजी) हता.
सिद्धांतमां ए वातनी साक्षी पूरे छे के संवेगी मुनि, निर्वेदी । गृहस्थ, अने संवेगपक्षी ( संवेगीने अनुमोदनारा )-आ त्रण शि.
वमार्ग लइ शकनारा छे; परंतु ( कलियुगनुं ) माहात्म्य कंइ ओर छे ! जुओ ? आर्यसुहस्ति पोते सरि हता छतां, आर्य महागिरि
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सूरि न होवा छतां ते उग्रक्रियाधारी होवाथी तेने वंदना करता हना, अने तेवो क्रम चे त्रण पाट मुधी रह्यो पण पछी न रह्यो कारण के कलियुगनी विशेषना छे, आ माटे दृष्टांत आपे छे. जेम आ
खु नगर घेला बनावना जल पीवाथी गांडु थइ गयु अने राजा * अने प्रधान के जेओ ते जल पीधु न होवाथी डाटा रह्या हता ते * ओने पण ते गांडाओमां भळवू पडयु ( कारण तेम न करे तो १ गांडा तेओने त्रास आप्या वगर न रहे.) तेम कलियुग आवतो ग। यो तेम क्रिया ओछी थी गइ, अने क्रिया प्रत्ये जोइए तेवुमान पणनग्युं,तेथीक्रियापरायणनेक्रियानकरनारासाथेचलावीलेवूपड्यु (४) क्रियाउद्धारमा श्री यशोविजयजीनी सहाय.
मूळ श्री जिनहर्षरचित श्री सत्यविजयजीना रासमां क्रि* योद्धार करवामां कोइपण सहायकर्ता हतुं एम दर्शावेल नथी, पर
तु उपर जणावेल श्री वीरविजयजी पंडिते आपेली प्रशस्तिमा ' वाचक जश तस पक्षीजी ' एम चोख्खु लखेल छे. आ संबंधमां वीरविजयजी १९ मा सैकार्मा थइ गया तेना पहेलानो समय जोइए तो विशेष समर्थन मळेछे,केश्रीयशोविजयजीए सहाय आपी छे.. श्री यशोविजयजी पोते ३५० गाथाना स्तवनने अंते लखे छे के:तास पाटे विजयदेवसूरीसरू, पाट तस गुरु विजयसिंह धोरी' .. जास हित शीखथी मार्ग ए अनुसयों,जेहथी सवीटली कुमति चोरों ३ आनापर सं.१८३०मांटबोकरनारश्रीपद्मविजयजीअर्थ पूरे छ के
"वळी तेने पाटे श्री विजयदेवसस्थिया, तथा तेमना पाटे श्री विजयसिंहपूरि ते गच्छनो भार बहेनाने वृषम समान धोरी ॐथया जेमनी हिनशीख-आज्ञा पामीने में ए संवेगमार्ग आदेयों, ए
टले ए भावने श्री जशोविजयजी उपाध्याये पण एओनी आज्ञा पामीने क्रियाउद्धार कयों, तथा श्री विजयसिंहरिना शिष्य अनेक हना तेमां सत्तर शिष्य सरस्वती बिरुदधारी हता ते सर्व मां * महोटा शिष्य पंडित श्री सत्यविजयजी गणी ईता. तेमणे(विजयसिं
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(८) tott.t.tt.ttttttttt.ttttt.tttt.titutet.tot.tut.
हरिनी) आज्ञा पामी क्रियाउद्धार कीघो ते माटे एम बयु जे मार्ग ॐ ए अनुसर्यो-ए संवेग मार्गआदर्यो, जे आदरवाथकी तीर्थंकर अदत्त - गुरु अदत्त, इत्यादि कुमति कदायहरूप चोरी टली गइ."
(५) समकालीन विद्वानो. श्री सत्यविजयजी पंन्यासनो समय बहु झळहळतो छ अने ते समयमा जे जे पारमार्थिक प्रतिभाशाली एरुषो थया छे तेथो जै ३ नसमाजने अद्भून धर्मलाभ मळयो छे. आ वखते विद्वानोनो स. हे मूह जैनोमा हतो, जेमांना केटलाफ नामो आपीए छीए. श्री वा,
चकवर उपाध्यायश्री यशोविजय, विनयविजय उपाध्याय (के.
जेनु चरित्र 'नयकर्णिका'मा जुओ), अध्यात्मरसिक वनवासी१ श्री आनंदघनजी, उपाध्याय श्री मानविजयगणि ( 'धर्मसंग्रह
ना रचनार ), श्री ज्ञानविमलसरि ( के जेनो "विमल'पक्ष हजु सु. धी विद्यमान छे. ), धर्ममदिरगणि, रामविजयजी, लावण्यसुंदरआदि आ वधाए धर्मसाहित्य गुजराती भाषामा मूकी साहित्यधारा घणा वेग पूर्वक टकावी राखी है. प्रख्यात दिगंबर कवि बनारसीदास ( ममयसारना रचनार ) पण आ सपये विद्यमान हता. तेमज अन्य दर्शनोमां रामदास, तुकारामादि हता के जेमणे भक्ति प्राधान्य अपूर्व संगीत गाइ समाज सुधारणा अने गष्टमुस्थिति माटे प्रबळ प्रयत्न कर्यों छे, अने गुजरातमां कवि प्रेमानंद, शामल अने अखाए पोतानी काव्यगिराथी गुजरातने गजाची छे.
रासकार श्री जिनहर्ष. आ रास तेमणे सं. १७५६ ना महा सुद १० मी रचेल छे. ३ पोते खरतरगच्छना हतां छतां तपगच्छना पंन्यास प्रखर श्री स.
त्यविजयजीनो रास पोतेरच्यो छे, ए परथी गच्छभेदनी टुंकी दृष्टि ते वखते नहोती एमजणायछे. ते भोनी वंशपरंपरा नीचे प्रमाणे इती.
xजिनचंद्रसूरि ( खरतर गच्छ ६५ मी पाटे.) | शांतिहर्षगणि ( वाचक) | जिनहर्ष
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( १ )
॥ ग्रन्थपरिचय |
पारंभ ग्रन्थकार चोत्रीस अतिशयरूप अद्भुत ऋद्धियुक्त चरमतीर्थकर वर्द्धमानस्वामीने, शासनप्रभावक सुधर्मास्वामी आदि आचार्योंने, जीवाजीवादि पदार्थोंना स्वरूपने बनावनार जिनागमोने, तथा सरस्वतीने नमस्कार करीने जिनागमोनी सुंदर युक्तियो वडे गुरुतश्वसिद्धि नामक ग्रन्थने कहेवानी शरुआत करे ले
आ कलिकालमा केटलाक धर्मार्थी जीवो पण केटलीक सिवनी गाथाओनो अभ्यास करीने तेना अभ्यासथीज दुर्दैववशात् विपरीत मतिवाळा थरला आवी रीते कहे छे के वर्तमान काळमां जे साधुओ देशकालने अनुसरीने चारित्र पाळता होय ते पण वंदन करवा योग्य नथी ? जेने माटे आवश्यक नियुक्तियां कछे के
पासत्यो १ ओसनो २ होई कुसीलो तहेब संसत्तों ४ । अहच्छंदो ५ वि य ए ए अवंदणिजा जिणमयम्मि ॥ १ ॥
भावार्थ:- ज्ञान दर्शन अने चारित्रनी पासे रहे पण तेओनुं पालन करे नहि ते पासत्यो अथवा मिथ्यात्वादिकना पाचमां रहे ते पासत्थो, क्रिया मार्गमां जे शिथील थयो होय ते अवसन्न, जेनो आचार निन्दनीय होय ते कुशील जेने विषे केटलाक मूल अने उतरगुणो दोषमिश्रित थरला होय ते संसक्त, उत्सूत्रने आचरतो थको उत्सूत्री प्ररूपणा करे ते यथाछंद आ पांच कुगुरुओ जिन मतने विषे अवंदनिक छे.
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( २ )
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जेम अपवित्र स्थानमां पडेली सुगंधमय चंपकपुष्पनी माला मस्तकपर धारण करावी नथी, तेम पासत्था आदिक स्थानमां वर्तता मुनिपण अजनिक छे, ए प्रमाणे आवश्यक नियुक्तिनेा पाठ आपीने वंदननो निषेध करे छे. तेमने ग्रन्थकार पुछेछे के वर्तमान काळना साधुओने शुं तमे पासत्था अवसन्ना कुशील संसक्त के यथाच्छन्द मानो छो ? सर्वथी तो पासस्था कही शकाशे नहि, केमके सर्वथी पासत्थानुं लक्षण आवश्यक निर्युक्तिमा आ प्रमाणे क छे.
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सो पासो दुविहो सव्वे देसे य होइ नायव्वो । सयंमि नाणदंसणचरणाणं जो उपासंमि ॥ १ ॥
भावार्थ:- ते पात्याना वे भेद छे, सर्वथी अने देशथी, जे ज्ञान दर्शन अने चारित्रनी पासे रहे पण तेओना आचारनुं बीलकुल पालन करे नहि ते सर्वथा पासत्थो जाणवो, वृद्धपुरूषो पण पासत्याना लक्षणो आ प्रमाणे बतावे छे - रात्रीए राखेली वस्तु खाय, निर्वाह थइ जतो होय छतां पोताने माटे करेली वस्तु ग्रहण करे, जळ फळ फूल आदि सर्व सचित्त वस्तुओ वापरे, हम्मेशां बे ऋण वार भोजन करे, विग लवंग एळची पान सोपारी विगेरे बापरे, शय्या जोडा घोडागाडी तांबाना पात्रो वापरे, जरूर पडे त्यारे रजोहरण मुखवस्त्रिका देखावमाटे धारण करे, एकला फरे, स्वच्छन्द पणे ज्यां त्यां उभा रहे, देरासर तथा मठादिमां रहे, पूजानो आरंभ करे, हमेशां एकस्थाने रहे, देवद्रव्यनो उपभोग करे, जिनालय पौषधशाला विगेरे करावे, स्नान उद्वर्तन विलेपन आदि शरीरनी शोभा करे, द्रव्यसंग्रह करे, ग्राम कुलादिपत्ये ममत्वभाव राखे, स्त्रीओनो परिचय करे, नरकगतिना कारणरूप ज्योतिष-नि
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Metatestete teetesteteetateetesteter tracteetateeteetateste toate tentatetor tertestente de tot 1 मित्त-वैदक-मंत्रादिना प्रयोगो करे, मुविहित साधुओ प्रत्ये द्वेष ३ राखे, तेमनी पासे धर्मकार्य करवानो निषेध करे, शासननी प्रभा
वना ने माटे बीजाना दोषो प्रगट करे, लोभने माटे गृहस्थनी ३ स्तुति करे, जिनप्रतिमानो क्रय-विक्रय-उच्चाटन-आदि क्षुद्र
कार्यों करे, सर्व लोकोने राजी राखवाने माटे मुहूर्त विगेरे आपे, शालामां अथवा गृहस्थने घेर यज्ञो विगेरे करावे, सांसारिक फलने माटे यक्षादि देवोनी पूजा करवानुं कहीने मिथ्यात्वनी वृद्धि करे
इत्यादि सर्व पासत्थाना लक्षणो जाणना, वर्तमानकाळना सर्व ई साधुओ आवा लक्षणवाळा नथी, केमके केटलाक साधुओ तो वर्त* मानकाले पण सर्वशक्तिए करीने चारित्रने विष उद्यमवंत देखा
य छे, माटे सर्वथी पासत्था कही शकाशे नही,डवे देशथी जो पासत्या कहेता हो तो तेनुं लक्षण बताओ, त्यारे प्रतिवादी कहे छे केजे साधुभो विना कारणे शय्यातरपिंड-सामो लावेलो आहार, राज पिंड-नित्यपिंड-अग्रपिंड वापरे, कुलनी निश्राए विचरे, कारण सिवाय स्थापनाकुलोमां प्रवेश करे, संखडी (जमणवार)मां जोवा
जाय तेमज स्तुति करे, तेने देशथी पासत्थो जाणवो, ए प्रमाणे है आवश्यक नियुक्तिमां कां छे, त्यां शास्त्रकार कहे छे के1 उपरोक्त सर्व लक्षणो जेनामां घटता होय, तेने तमे देशथी पास. है त्यो कहो छो, के भिन्न भिन्न लक्षणवाळाने ? भिन्न भिन्न लक्षण वाळाने तो देशथी पासत्थो कहीशकासे नही केमके- स्थूलिभद्रमहाराज कोशाने घेर चतुर्मास रया अने त्यां चारे मास सुधी तेना
घरनो आहार लीधो जेथी शय्यातरपिंडनो दोष लाग्यो के तोपण * शास्त्रकारे तेमने देशपासत्था कह्या नथी. * जेने माटे आवश्यक सूत्रनी म्होटी टीकामां योगसंग्रहने विषे
का छ-"थूलभद्दसामी तत्थेव गणिआपरे भिक्खं गेण्हई" *
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( ४ )
इति हवे जो सामुदायिक पक्ष ग्रहण करना होतो, वर्तमान साधुपण केटलाक साधुओने विषे शय्यावर अभ्याहृत गजपिंड ग्रहणादिरूप दोषनो अभाव होवाथी, देशथी पासन्था पण केवी रीते कही शकाय ? एवी रीते अवसन्नादिपणानो पण निषेध जाrat, शास्त्रकार प्रतिवादीने शिखामण आपता कहे छे के - हे सौम्य ? सम्यक् सिडान्तना रहस्यने नहि जाणता छर्ता पासत्या आदिना दोषोनुं आरोपण करीने वर्तमान साधुओने तुं फोगट शामा दूषित करे छे ? जेने माटे निशीथसूत्रमां कछु छे केसंतगुणछायणा खलु परपरिवाओ अ होइ अलियं च । धम्मे अरजमाणो साहु पउसे य संसारो ॥ १ ॥
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भावार्थ:- विद्यमान गुणोने ढांकनाथी अछता दोषो प्रगट करवाथी असत्य बोलवाथी धर्मने विषे अप्रेम उत्पन्न करवाथी साधु प्रत्ये द्वेष राखवाथी संसारनी वृद्धि थाय छे, माटे जो मोक्षनी अभिलाषा होय तो मात्सर्यता दूर करीने सम्यक प्रकारे ववने सांभल ! शास्त्रमां पुलाक वकुश कुशोल निर्ग्रन्थ स्नातक ए पांच प्रकारना निर्ग्रन्थो का छे - संयमरूपसारनी अपेक्षाए जेतुं चारित्र निःसार होयते पुलाक, उपकरण अने शरीरने शुद्ध राखनारा परिवार प्रमुख ऋद्धि यशने इच्छनारा अने सुखनो आश्रय करनारा छेद योग्य सातिचार चारित्रवाला निर्ग्रन्थो ने बकुश का छे.
कुत्सित निन्दनीय जेतुं चारित्र होय ते कुशील पुरुषवेद स्त्री वेद नपुंसक वेद हास्य रति अरति भय शोक दुर्गंछा मिथ्यात्व कोधमान माया लोभ आ १४ प्रकारनी मोहनीय कर्मनी अभ्यन्तर ग्रन्थीनो जेमणे क्षय कर्यो होय ते निर्ग्रन्थ, ज्ञानावरणीय दर्शनाव रणीय मोहनी ने अंतराय ए चार घातिकर्म रूप मलना समूह
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थी जे रहित थया होयते स्नातक तेमां बकुश अने कुशील तो सर्व तीर्थकरोना तीर्थपर्यंत वर्तता होय छे, तेमां पंचमहावत रूप मूलगुण अने दशविध प्रत्याख्यानरूप उत्तरगुण एटले मूलगुण अने, उत्तरगुणविषयक चारित्रनी विराधना पुलाकने विषे होय छे, आचारनी विरुद्ध प्रवृत्ति करवी ते प्रतिसेवना ए प्रतिसेवना कु. शीलने विषे होय छे, उत्तर गुणविषयक विराधना बकुशनेविषे होयछ, बाकीना निम्रन्थ अने स्नातक तो प्रतिसेवना रहित होय छे, बकुशनां वे भेद छे उपकरणवकुश अने शरीरबकुश तेमा जे उपकरणवकुश होय ते शेषकालमां पण वस्त्रो धोवे अने विभूषा माटे गरीक वस्त्रो वापरे, तथा खरपाषाणथो घसेला सुंबाला पत्थरथी घसीने सुकोमल करेला अने बेलतेल लगाडीने तेजस्वी बनावेला पात्र अने दांडा विगेरे शोभाने माटे धारण करे घणा उ. पकरणोनो संग्रह करे ते उपकरणबकुश, अने जे शरीरबकुश होय ते अशुचि नेत्रविकारादि कारण विना हाथ-पग-नखमुखादि शरीरना अवयवोने साफ करे, पांडित्यतपादि करीने यश नी इच्छा राखे यश थए छते संतोष पामे, सुखशील थयेलो अहोरात्रि धर्मानुष्ठानने विषे उद्यम न करे, तैलादिवडे पगे मर्दन करे. वाल कापे, तेनो परिवार पण असंयमान् अने वस्त्र पात्रादिने विषे ममत्वभाववालो होय हे ते शरीरब श कहेवाय.
उपकरणबकुश अने शरीरवकुश ते बन्नेनां पांच पांच भेदो - आ कार्य साधुने करा योग्य नथी एम जाणता छतां जो करे तो ते आभोगवकुश १ अजाण पणे करे तो ते अनाभोग बकुश२
लोकोना जाणवामां न आवे एवी रीते उत्तर गुणने विषे * अतिचारचं सेवन करै ते संतबकुश ३ प्रकटपणे अतिचार**
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tatatutetatuttituttituttitutetstatutetstatutatuttttotsteteti नुं सेवन करे ते असंवृतबकुश ४ अने नेत्र नासिका मुखादिना मछने साफ करे तो ते यथासूक्ष्मबकुश ५
कुशीलना वे भेद के प्रतिसेवनाकुशील अने कषायकुशील विराधकपणाए करीने जे कुशील ते प्रतिसेवनाकुशोल अने संज्वलनना उदयरूप कषायोए करीने कुशील ते कषायकुशील, ते प्र. तिसेवना कुशीलना पांच भेद-जे ज्ञाननो आश्रय करीने ज्ञाननी. विराधना करे ते ज्ञानप्रतिसेवनाकुशील१ एपकारे दर्शननी विराधना
करे ते दर्शनप्रतिसेवनाकुशील २, चारित्रनी विराधना करै ते चारित्र ॐ प्रतिसेवनाकुशील ३,तपनी विराधना करे ते नपकुशील४,आ तपस्वी
छ एवी प्रशंसा करवाथी तुष्टमान थाय ते यथासूक्ष्मप्रतिसेवना कुशील ५,
कषाय कुशीलना पांच भेद छे-संज्वलनकषायना उदयवाळो थह ने ज्ञाननी विराधना करे ते ज्ञानकषायकुशील १ एवी रीते दर्श ननी विराधना करे ते दर्शनकषायकुशील र सपनी विराधना करे ते तपकषायकुशील कषायाविष्ट थइने शाप आपे ते चारित्रकषायशील ४ मनथी क्रोधादि कषायोगें सेवन करे ते यथा सक्षमकषायकुशील ५, ॐ आ बाबत उत्तराध्ययन सूत्रना ६ अध्ययननी म्होटी टीकामां विस्तारथी कहेली छे, प्रतिसेवनाकुशील मूलगुणनी विराधना क. रतो थको केटलाक उत्तर गुणोनी पण विराधना करे छे, तेने माटे भगवतीसूत्रमा काछे के
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३ बउसेणं पुच्छा ? गोयमा ? पडिसेवए होज्जा, अप्प. डिसेव ए होज्जा ! जदि पडिसेवए होज्जा, कि मूलगुणपडिसेवए होज्जा, उत्तरगुणपडिसेवए होज्जा ? गोय. मा नो मुलगुणपडिसेवए होज्जा, उत्तरगुणपडिसेवए होज्जा, तथा पडिसेवणाकुसीले जहा पुलाए, मूलगुणपडिसेवए होज्जा उत्तरगुणपडिसेवए होज्जा ॥ भगवतीसूत्रशतक, २५ उद्देशो ६
भावार्थ:- बकुशनो प्रश्न- हे गौतम ! बकुश विराधक पण - होय अने अविराधक पण होय, जो विराधक होय तो मूलगुण
विराधक होय के उत्तरगुण विराधक ? हे गौतम ! मूल गुणविराधक न होय, पण उत्तर गुण विराधक होय, तथा प्रतिसेवना कुशील तो पुलाकनी माफक मूल गुणविराधक अने उत्तर गुणविराध क होय छे, अहिया मूल गुण अने उत्तर गुणना विराधकपणाने विषे पण पुलाकादि मुनिओनु जे निर्ग्रन्थपणु का के, ते जवन्य जघन्यतर अने उत्कृष्ट उत्कृष्टतरभेद वाला संयमस्थानोनी * अपेक्षाए जाणवू माटे पासत्था आदिना लक्षणो तपासवाना * क्लेशे करीने सयु ! श्री जिनवल्लभसूरि पण द्वादशकुलकप्रक
रणमा लखे छ के- कदाचित् कालादिकना दोपथी सेवा गुणसंपन्न साधुओ न देखाता होय तेथी सर्वत्र तेवा साधुओनो अभा
व छै एवो अविश्वास तो नज राखवो, केमके जे साधुओ कदाग्रह 1 रूप कलंकयी रहीत होय अने सर्वशक्तिए करी आगमने अनु
सारे चारित्रने विषे उद्यमवंत होय तेवा साधुओने विशुद्ध चारित्र
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(८) वान् जाणबा ए प्रमाणे अरिहंतना सिद्धान्तनेविषे कछु छे. वली व्यवहारसूत्र ना पहेला उद्देशानां पण कह्यु छे के
चक्कायाणं तु संजमे जोऽणु घावए ताय जाब) मूलगुणउत्तरगुणो दोण्णि वि अणुधावए ताय ॥ १ ॥
भावार्थ:- हे परक ? ज्यां सुधी पृथ्वी अप् तेन वायु वनस्पति अने त्रस ए छक्काय जीवो ने विषे सैंयमना प्रबन्धे करीने बर्ते के पटले छक्काय जीवोनी रक्षाकरे छे त्यां सुधी चारित्रना मूल अने उत्तरगुणो होय के माटे देशकालने अनुसरीने चारित्रने विषे उद्यमवंत साधुओ बकुश अने कुशीलपणाथी भिन्न नथी माटे शास्त्रानुसार वंदनीकज के एम सूचववानो आ ग्रन्थनो मुख्य उददेश छे. इत्यलं विस्तरेण ॥
अमदाबाद. सं० १९८४ फाल्गुन शुक्ल पञ्चमी,
*45*
लेखक:
मुनि श्री मानविजय.
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tatatatatatatatatatatatatatatatatatatatatatatatatatatatatatatatatatatatatatatatatatatatatatatatatatate
titut.totatutet.ttttitutet.totatutetatuttituttitutttitutety श्री सत्यविजय जैनग्रन्थमाला नं १३
अहम पूज्यपादपरमगुरु आचार्यश्री विजयनीतिसूरीश्वरपाद
पद्मभ्यो नमः । सुविहितपूर्वाचार्यप्रणीता॥ गुरुतत्त्वसिद्धिः॥
॥ नमः श्रीश्रुतज्ञानाय ॥ श्रीवर्द्धमानप्रभुमद्भुतद्धि,
श्रीमत्सुधर्मादिगुरून गिरं च। जिनागमांश्चाप्यभिवन्य हृद्य
युक्त्या ब्रुवे श्रीगुरुतत्त्वसिद्धिम् ॥१॥ ___ इह केचिद्धर्मार्थिनोऽपि काश्चित्सिद्धान्तगाथाः केषाश्चित्पार्थाऽधीत्य तदध्ययनादेव दुर्दैववशाजातमतिविपर्यासा एवं ब्रुवते, साम्प्रतं ये साधवः कालोचितयतनया यतमाना दृश्यन्ते, तेऽपि न वन्द्याः। यतः श्रीआवश्यके“पांसत्थो१ ओसन्नोर होइ कुसीलो३ तहेव संसत्तो। अहच्छंदो५विय एए अवंदणिज्जा जिणमयम्मि॥१॥"
१ व्याख्या-किलेयमन्यकर्तृकी गाथा तथाऽपि सोपयोगा चेति व्याख्यायते । तत्र पावस्था दर्शनादीनां पावै तिष्ठतीति पावस्था,अथवा मिथ्यात्वादयो बन्धहेतवः पाशाः पाशेषु तिष्ठतीति पाशस्थः,-..
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( २ )
'सो पासो सव्वे दुविहो देसे य होइ णाय। समि णाणदंसणचरणाणं जो उ पासंमि ॥ १ ॥ देसंमि य पासस्थो सिज्जायरऽभिहड रायपिंडं वा । णिययं च अग्गपिंडं भुंजति णिक्कारणेणं च ॥ २ ॥ कुलणिस्साए विहरइ ठवणकुलाणि य अकारणे विसइ । संखडिपलोयणाए गच्छइ तह संथवं कुणई ||३|| अवसन्नः- सामाचार्यासेवने अवसन्नवदवसन्नः, ओसन्नो. sfa यदुविहो सव्वे देसे य तत्थ सव्वंमि । उउबद्धपीढ फलगो ठवियगभोई य णायव्वो ॥ १ ॥' देशावसन्नस्तु - 'आवस्सगसज्झाए पडिलेह्णझाणभिक्खऽभत्तट्ठे । आगमणिग्गमणे ठाणे य णिसीयणतुयहे ॥ १ ॥ आवस्सयाइयाई ण करे, करेइ अहवावि होणमहियाई । गुरुवयण बलाइ तहा भणिओ ऐसो य ओसन्नो ॥२॥ गोणो जहा वलंतो भंजइ समिलं तु सोऽवि *मेव । गुरुवयणं अकरें तो बलाइ कुणई व उस्सूण्णो ॥ ३ ॥ भवति कुशीलः"
१ स पार्श्वस्थ द्विविधः - सर्वस्मिन् देशे च भवति ज्ञातव्यः । सर्वस्मिन् ज्ञानदर्शनचरणानां यस्तु पार्श्व || १ || देशे च पार्श्वस्थः शय्यातराभ्याहृते राजपिण्डं वा । नित्यं चाग्रपिण्डं भुनक्ति निष्कारणेन च ॥२॥ कुलनिश्रया विहरति स्थापनाकुलानि चाकारणे विशति । संखडीप्रलोकनया गच्छति तथा संस्तवं करो- ति ||३|| अवसन्नोऽपि च द्विविधः सर्वस्मिन् देशे च तत्र सर्वस्मिन् | ऋतुबद्धपीठफलक: स्थापितभोजी च ज्ञातव्यः ||१|| आ वश्यकस्वाध्याययोः प्रतिलेखनायां ध्याने भिक्षायामभक्तार्थे । आगमने निर्गमने स्थाने च निषीदने त्वग्वर्त्तने || १|| आवश्यarati न करोति अथवाऽपि करोति होनाधिकानि (वा) । गुरुवचनबलात्तथा भणित एष चावसन्नः || २ || गौर्यथा वल्गन् भनक्ति समिलां तु सोऽप्येवमेव । गुरुवचनमकुर्वन् बलात् करोति वावसन्नः ||३||
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कुत्सितं शीलमस्येति कुशीला,-'तिविहो होइ कुसीलो गाणे तह दसणे चरित्ते य । एसो अवंदणिज्जो पन्नत्तो वीयरागेहिं ?! णाणे णाणायारं जो उ विराहेइ कालमाईयं । दसणे दंसणायारं चरणकुसीलो इमो होइ ॥ २ ॥ कोउय भूईकम्मे पसिणापसिणे णिमित्तमाजीवे । कक्ककुरुए य लक्खण उवजीवइ विनमंताई ॥३॥ सोभग्गाइणिमित्तं परेसिण्हवगाइ कोउयं भणियं । जरियाइ भूइदाणं : भूईकम्मं विणिहि ॥४॥ सुविणयविजाकहियं आइंखणिघंटियाइकहियं वा । जं सासइ अन्नेसि पसिणापसिणं
हवइ एयं ॥५॥तीयाइभावकहणं होइ णिमित्तं इमं तु आ. * जीवं । जाइकुलसिप्पकम्मे तवगणसुत्ताइ सत्तविहं ॥६॥ * कक्ककुरुगा य माया णियडीए जं भणंति तं भणियं । थीलक्खणाइ लक्खण विजामंताइया पयडा ॥ ७॥'' तथैव संसक्त' इति यथा पार्श्वस्थादयोऽवन्यास्तथाऽयमपि संस * क्तवत् संसक्तः, तं पार्श्वस्थादिकं तपस्विनं वाऽऽसाथ
१ त्रिविधो भवति कुशीलो ज्ञाने तथा दर्शने चारित्रे च । एषोऽवन्दनीयः प्रज्ञप्तो वीतरागैः ॥ १ ॥ ज्ञाने ज्ञानाचारं यस्तु विराधयति कालादिकम। दर्शने दर्शनाचारं चरणकुशीलो ऽयं भवति ॥२॥ कौतुकं भूतिकर्म प्रश्नाप्रश्नं निमित्तमाजीवम् । कल्ककुहुकञ्च लक्षणं उपजीवति विद्यामन्त्रादीन् ॥३॥ सौभाग्या
दिनिमित्तं परेषां स्नपनादि कौतुकं भणितम । ज्वरितादये * भूतिदानं भूतिकर्म विनिर्दिष्टम् ॥४॥ स्वप्नविद्याकथितमाइलिनी.
घण्टिकादिकथितं वा । यत् शास्ति अन्येभ्यः प्रश्नाप्रश्नं भवत्येतत् ॥५॥ अतीतादिभावकथनं भवति निमित्तमिदं त्वाजीवनम् । जारि कुलशिल्पकर्माणि तपोगणसूत्राणि सप्तविधम् ॥६॥ कल्ककुहुका च माया निकृत्या यद्भणन्ति तद्भणितम् । स्त्रीलमणादि ल.
क्षणं विद्यामन्त्रादिका: प्रकटाः ॥७॥ लाल
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tatateretetretetretetrtetetatatatatatatatatatatertretertretertrete tretetetreten सनिहितदोषगुण इत्यर्थः, आह च-"संसत्तो य इदाणी सो पुण गोभत्तलंदए चेव । उचिट्ठमणुच्चि जं किंची छुन्भई सव्वं ॥१॥ एमेव य मूलुत्तरदोसा य गुणा य जत्तिया केइ। ते तम्मिवि सन्निहिया संसत्तो भण्णई तम्हा ॥२॥ रायविदूसगमाई अहवावि णडो जहा उ बहुरूवो। अहवा वि मेलगो जो हलिद्दरागाइ बहुवण्णो ॥३॥ एमेव जारिसेणं सुद्धमसुद्धेण वाऽवि संमिलइ । तारिसओ चिय होति संसत्तो भण्णई तम्हा ॥४॥ सो दुविकप्पो भणिओ जिणेहिं जियरागदोसमोहेहिं । एगो उ संकिलिट्ठो असंकिलिट्ठो तहा अण्णो ॥५॥ पंचासवप्पवत्तो जो खलु तिहि
गारवेहि पडिबद्धो ।इत्थिगिहिसंकिलिट्ठो संसत्तो संकिलिठ्ठो , उपासत्थाईएसुं संविग्गेसुंच जत्थ मिलती जातहि तारि
सओ भवई पियधम्मो अहव इयरो उ । ७॥एसो संक्लिष्टः, 'यथाछन्दोऽपि च' यथाछन्दः-यथेच्छयैवागमनिरपेक्ष प्र- वर्तते यः स यथाछन्दोऽभिधीयते, उक्तं च-"उस्सुत्तमा- यरंतो उस्मुत्तं चेव पन्नवेमाणो । एसो उ अहाच्छंदो
१ संसक्तश्चेदानीं स पुनर्गोभक्तलन्दके चैव । उच्छिष्टम३ नुच्छिष्टं यत्किश्चित् क्षिप्यते सर्वम् ॥ १ ॥ एवमेव च
मूलोत्तरदोषाश्च गुणाश्च यावन्तः केचित् । ते तस्मिन् सन्निहिता: संसक्तो भण्यते तस्मात् ॥२॥ राजविदूषकादयोऽथ. वाऽपि नटो यथा तु बहुरूपः । अथवाऽपि मलको यो हरिद्ररागादिः बहुवर्णः ॥३॥ एवमेव यादृशेन शुद्धनाशुद्धन घाऽपि सं. वसति । तादृश एव भवति संसक्तो भण्यते तस्मात् ॥४|| स: द्विविकल्पो भणितो जिनैर्जितरागद्वषमोहैः । एकस्तु संक्लिष्टोऽ. संक्लिष्टस्तथाऽन्यः ॥५॥ पञ्चाश्रवप्रवृत्तो यः खलु त्रिभिगौरवैः प्रतिबद्धः । खीगृहिभिः संक्लिष्ट: संसक्तः संक्लिष्टः स तु ॥६। पार्श्वस्थादिकेषु संविग्नेषु च यत्र मिलति तु । तत्र तादृशो भवति प्रियधर्मा अथवा इतरस्तु ॥७॥ उत्सूत्रमाचरन उत्सूत्रमेव
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तत्रैवअसुइ ठाणे पडिया चंपकमाला न कीरइ सीसे। पासत्थाइठाणेसु वट्टमाणा तह अपुजा ॥२॥ ____ अत्रोत्तरं-श्रीउपदेशमालायां । पासत्थोरसन्नरकुसील३नीअ४संसत्तजण५महाछंदं ६।। नाऊण तं सुविहिया सवपयत्तेण वज्जंति ॥१॥
ननु साम्प्रतीनाः साधवः किं भवता पावस्था उच्यन्ते, अवसन्ना वा किं वा कुशीलाः, उत संसक्ता यदा यथाच्छन्दाः, तत्र यदि पार्श्वस्थास्तदा सर्वतो देशतोवा, न तावत्सर्वतः तल्लक्षणं हि श्रीआवश्यके एवं“सो पासत्थो दुविहो सब्वे देसे अ होइ नायबो। सव्वंमि नाणदंसण-चरणाणं जो उ पासम्मि ॥१॥"
वृद्धा अपि तल्लक्षणमेवमाहुःइच्छाछंदोति एगट्ठा ॥१। उरसत्तमणुवदिठं सच्छंदविग
प्पियं अणणुवाइ । परतत्ति पतिति णेओ इणमो अहाछंदो: ३ ॥२॥ सच्छंदमइविगप्पिय किंची सुहसायविगइपडिबद्धो । * तिहिगारवेहिं मज्जइ तं जाणाही अहाछंदं ॥३॥" एते।
पार्श्वस्थादयोऽवन्दनीयाः, क्व ?-जिनमते, न तु लोक * इति गाथार्थः ॥
प्रज्ञापयन् । एष तु यथाच्छन्द इच्छाछन्द इति एकार्थों ॥ १ ॥ उत्सूत्रमनुपदिष्टं स्वच्छन्दविकल्पितमननुपाति । परततिं प्रवर्तयति शेयोऽयं यथाच्छन्दः ॥२॥ स्वच्छन्दमतिविकल्पितं किञ्चित्सुखसातविकृतिप्रतिबद्धः । त्रिभिर्गौरवैर्माद्यति तं जानीहि यथाछन्दम् ॥ ३ ॥
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.ketstatute t.ttetstatutatute that.ttttt.twitt.tttttt.ttoty. “संनिहिमाहाकम्मं जलफलकुसुमाइं सबसञ्चित्तं । निच्चदुत्तिवार भोअण-विगइलवंगाइ तंबोलं ॥१॥ वत्थं दुप्पडिलेहिय-मपमाणसकन्नियं दुकूलाइं। सिजोवाणहवाहण--आऊहतंबाइपत्ताई ॥२॥ सिरतुंडं खुरमुंडं रयहरमुहपत्तिधारणं कज्जे । एगागित्तभमणं सच्छंदं चिट्ठिअं गीयं ॥३॥ चेइयमठाइवासं पूआरंभाइ निच्चवासत्तं । देवाइ दवभोगं जिणहरसालाइकारवणं ॥४॥ न्हाणुवट्टणभूसं ववहारं गंथसंगहं कीलं । गामकुलाइममत्तं थीनटें थीपसंगं च ॥
___थीपरिग्गहो वावि" इति पाठः ॥५॥ निरयगइहेउजोइ-सनिमित्त तेगिच्छमंतजोगाइ । मिच्छाइरायसेवं नीयाणवि पावसाहिज्जं ॥६॥ सुविहियसाहुपउसं तप्पासे धम्मकम्मपडिसेहं । सासणपभावणाए मच्छरलउडाइकलिकरणं ॥७॥ सीसोदराइकोडण-भट्टित्तं लोहहेउ गिहिथुणणं । जिणपडिमाकयविक्रय-उच्चाडणखुद्दकरणाई ॥८॥ थीकरफासं बंभे संदेहकलंतरेण धणदाणं । वडयसीसगहणं नीयकुलस्सावि दवेणं ॥९॥ सबावज्जपवत्तण-मुहुत्तदाणाइ सबलोआणं ।
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etetet ctetretetetretetet irtetetetretetretetrtetatatertreteretetetrtete teeteetako सालाइ गिहि घरे वा खज्जग यागाइ करणाइं ॥१०॥ जक्खाइ गुत्तदेवय-पूया पूआवणाइमिच्छत्तं । सम्मत्ताइनिसेहं तेसिं मुल्लेण वा दाणं ॥११॥ इय बहुहा सावज्जं जिणपडिकुटुं च गरहियं लोए। जे सेवंति कुकम्मं करिति कारिति निद्धम्मा ॥१२॥ इह परलोअहयाणं सासणजसघाइणं कुदिट्ठीणं । कह जिणदसणमेसि को वेसो किंच नमणाइ ॥१३॥
इत्यादि।। न वैविधलक्षणा एव साम्प्रतिकसाधवः सर्वेऽपि, केषांचित्सम्प्रत्यपि सर्वशक्त्या यतिक्रियासु यतमानानां यतीनां दर्शनात् । अथ देशतः पार्श्वस्थास्तर्हि वदन्तु तल्लक्षणम् । श्रीआवश्यकेदेसम्मि पासत्थो सिज्जायरभिहडरायपिंडं च । निययं च अग्गपिंडं भुंजइ निक्कारणे चेव ॥१॥ कुलनिस्साए विहरइ ठवणकुलाणि अ अकारणे विस। संखडिपलोअणाए गच्छइ तह संथवं कुणइ ॥२॥
इति श्री आवश्यकोक्तं प्रसिद्धमेव ।
ननु एतत्सर्वं समुदितं तल्लक्षणं पृथग् २ वा, नैतावत् पृथक् २, एवं हि स्थूलभद्रादीनामपि कोशागृहस्थितौ च.
तुर्मासी यावत् तद्गृह एवाहारग्रहणेन शय्यातरपिण्ड * दोषाद्देशपावस्थत्वप्रसङ्गः । १ यदुक्तं- आवश्यकवृहद्धृत्तौ योगसंग्रहेषु- . "
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(८) petertretetetutetetectetetettet atatetieteetate testeretetet e treteteatretateetatening * 'थूलभदसामी तत्थेव गणिआघरे भिक्खं गेहइ'
इति अथ समुदितमिति पक्षः, तहिं साम्प्रतिकसाधुष्वपि । 2 केषुचिच्छय्यातराभ्याहृतराजपिण्डग्रहणादिरूपसमुदित तल्लक्षणस्याभावात् कथं देशपाश्वस्थत्वम् ?, अनया दि. शा अवसन्नादित्वमपि निषेध्यम्, किश्च-सौम्य! किमेवं मुधा सम्यसिद्धान्तानभिज्ञोऽपि पावस्थत्वादिदोषारो पेण साम्प्रतिकसाधून दूषयसि ? । यतः श्रीनिशीथेसंतगुणछायणा खलु परपरिवायो अ होइ अलियं च। धम्मे अ अरज्जमाणो साहुपउसे य संसारो ॥१॥
ततः शृणु सम्यक् तत्त्वं, मात्सर्यमपहाय, यदि मोक्षायसि । शास्त्र पुलाकादयः पश्च निग्रन्थाउक्तास्तत्र बकुश कुशीलौ सर्वतीर्थकराणां तीर्थ यावत् प्रवर्तते । तल्लक्षणं चेदम्-श्रीभगवती २५ शतकषष्ठोद्देशकीर्थसंग्रहिण्याम् ।। श्री अभवदेवसूरिकृतपश्वनिर्ग्रन्थसंग्रहिण्यां, तथाहि-- बउसं सबलं कब्बुर--मेगटुं तमिह जस्स चारित्तं ।। अइयारपंकभावा सो बउसो होइ निग्गंथो ॥१॥ उवगरणसरीरेसुं सदुहा दुविहो होइ पंचविहो । आभोग अणाभोगे अस्संवुडसंवुडे सुहुमे ॥२॥ १ बकुशं शबलं कर्बुरमिति 'एकार्थ' एकाभिधेयं तदिति तादृशं - यस्य चारित्रमतिचारपङ्कसद्भावात् । स बकुशो भवति
निर्ग्रन्थः ॥ १॥ २ स धकुश उपकरण-शरीरभेदादद्वेधा । तत्र वस्त्रपापाद्यपकर
णविभूषानुवर्तनशील: उपकरणबकुशः । करचरणनखमुखा
दिदेहावयवविभूषानुवर्तनशीलः शरीरबकुशः । सद्विविधो*
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जो उवगरणे बउसो सो धुवइ अपाउसेवि वत्थाइं । इच्छइ य लहयाई किंचि विभूसाइ भुंजइ य ॥३॥ तहपत्तदंडया ईघ म सिणेहकयते । धारे विभूसाए बहुं च पत्थेइ उवगरणं ॥४॥ देहैबउसो कज्जे करचणनहाइ विभूसेइ । gasो विइमो इड्रिं इच्छा परिवारभिइयं ॥ ५ ॥ पंडिच्चतेवाइकथं जसं च पत्थेइ तम्मि तुस्साई य । सुहसीलो नय बाढं जयइ अहोरन्तकिरियासु ॥६॥
ऽपि पञ्चधा तद्यथा- - साधूनामकृत्यमेतदिति जानन् कुर्वनाभोगकुशः १ । अजानन कुर्वन्ननाभोगबकुशः २ । मूलगुणैरुत्तरगुणैश्च संवृतः कुर्वन् संवृत्तवकुशः ३ । असंवृतः कुवन्नसंवृतत्रकुशः ४ । नेत्रनासिकामुखादिमलापनयनं कुर्वन् सूक्ष्मो भवति ५ ॥ २ ॥
१ उपकरणे यो बकुशो भवति, सोऽप्रावृष्यपि वस्त्राणि धावयति, इच्छति च श्लक्ष्णानि' सूक्ष्माणि वखाणि किश्चिद 'विभूषायै' विभूषार्थ समुपभुङ्क्ते च ॥ ३ ॥
२ तथा पात्रदण्डकादि घृष्टं खरपाषाणादिना, मृष्टं श्लक्ष्णपा पाणादिना सुकुमालं कृतं, तथा स्नेहादिना कृततेजस्कं धारयति 'विभूषायै' विभूषार्थ, बहु च प्रार्थयते उपकरणं ||४|| ३ देहब कुशः 'अकार्ये' कार्याभावेऽशुचि नेत्रविकारादि बिना करचरणनखादिकं विभूषयति । उपकरणशरीरवकुशी द्विfarastra परिवार प्रभृतिकामृद्धि इच्छति ॥ ५ ॥
४ पाण्डित्य तपआदिकृतं यशश्च प्रार्थयते । 'तस्मिन् ' यशसि जाते सति 'तुष्यति' हृष्यति । सुखशीलः न च बाढं यतdsaiरात्रं 'क्रियासु' धर्मानुष्ठानेषु ॥ ६ ॥
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परिवारो य असंजम अविवित्तो होइ किंचि एयस्स। घंसिअपायो तिल्लाइ मसिणियो कत्तरि य केसो ॥७॥ तह देससव्वछेआ-रिएहिं सबलेहिं संजुओ बउसो।। मोहक्खयट्ठमभुट्ठियो अ सुतमि भणियं च ॥ उवगरणदेहचुक्खा रिद्धी जसगारवासिआ निन्छ । बहुसबलछेअजुत्ता निग्गंथा बाउसा भणिया ॥९॥
ऑभोगे जाणतो करेइ दोसं अजाणमणभोगे। 1 मूलुत्तरेहिं संवुड-विवरीय असंवुडो होइ ॥१०॥
अच्छि मुहमज्जमाणो होइ अहासुहमओ तहा बउसो सीलं चरणं तं जस्स कुच्छियं सो इह कुसीलो ॥११॥
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१ पतस्य परिवारः 'असंयमः असंयमधान. 'अविविक्तः' वस्त्र
पात्रादिस्नेहाद पृग्भूतः, 'घंसिअपाओ' इति घर्षितपादः तै
लादिमा मसृणितः कतितकेशः ॥ ७ ॥ २ तथा देशच्छेदसर्पच्छेदाः शवलचारित्रैः संयुतो वकुशो
मोहक्षयार्थमभ्युस्थितः सूत्रे भणितं च ॥ ८ ॥ ३ उपकरणदेहशुद्धा ऋद्धि यशः सातागारवाश्रिता अविविक्तप. रिवाराश्छदयोग्यशबलचारित्रयुक्ता निर्ग्रन्था बकुशा भा
णिताः ॥ ९॥ ४ साधूनामकृत्यमेतदिति जानन कुर्वन्नाभोगवकुशः १ । अजा
नन् कुर्वन्ननाभोगबकुशः २। मूलोत्तरगुणैर्युक्ता लोकेऽधिज्ञातदोषः संवृतबकुशः ३ । विपरीतो लोके प्रकटदोषोऽसं.
वृतबकुशः ४ ॥ १० ॥ ५ 'भक्षिमुखादिमार्जयन्' नेत्रमलाद्यपनयन यथासूक्ष्मबकुशः ५।
शीलं चरणं तद्यस्य कुत्सितं स इह कुशील: ॥ ११ ॥
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( ११ )
डिसेवणाकसाए दुहा कुसीलो दुहा वि पंचविहो । नाणे दंसणचरणे तवे अहसुहुमए चेत्र ||१२|| te नाणाइकुसीलो उवजीवं होइ नाणपभिईए । यह सुमो पुण तस्सं एस तवस्ति ति संसाए ॥१३॥ जो नाणदंसणतवे अणुजुंजइ को हमाणमायाहिं | सोनाणाइकुसीलो कसायओ होइ नायव्वो ॥ १४॥ चरितम्मि कुसीलो कसायओ जो पयच्छई सावं । मणसा कोहाईए निसेवयं हो अहा सुमो ॥ १५॥ tara साहिं पाई विराहओ जो य । सोनाणाइकुसीलो नेओ वक्खाणभेषणं ॥ १६ ॥
लुत्तरगुणविसया पडि सेवा सेवए पुलाए अ । उत्तरगुणेसु बउसो सेसा पडि सेवणारहिया ||१७||”
१ स कुशीको विपरीताऽऽराधना प्रतिसेवना तया कुशील: १ कषायैः सञ्जलनोदयादिरूपैः कुशीलः कषाय कुशीलः २ ॥ १२ ॥ २ द्विधापि पञ्चधा-ज्ञान-दर्शन- चारित्र तपो विषयो यथासूक्ष्माश्च || ३ इह ज्ञानादिकुशीलो ज्ञानदर्शनचारित्रतपांस्युपजीवस्तत्तत्प्रति सेवना कुशीलः । एषः तु तपस्वीत्यादिप्रशंसया यस्तुष्यति स यथासूक्ष्मः प्रतिसेवना कुशीलः ॥ १४ ॥ ४ तथा ज्ञानदर्शनतपांसि यः सञ्जलनकषायोदययुक्तः स्वस्वविषये व्यापारयति स तत्तत्कषायकुशीलो ज्ञातव्यः || १५ || चारित्रकुशीलः स यः कषायाविष्टः शापं प्रयच्छति । मनसा क्रोधादीन्निषेवन् यथासूक्ष्मकषायकुशीलः ।। १६ ।। ६ मूलगुणाः प्राणातिपात विरमणादयः, दशविध प्रत्याख्यानादयस्तूत्तरगुणाः, तद्विषया प्रतिसेवा मूलोत्तरगुणप्रतिसेवा तस्या आसेवकः पुलाकः प्रतिसेवा कुशीलश्च । बकुश उत्तरगुणप्रतिसेवकः । शेषाः प्रतिसेवनारहिताः ॥ १७ ॥
५
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अत्र मूलगुणोत्तरगुणविषया विराधना पुलाके, प्रति सेवना कुशीले च, उत्तरगुणविषया च बकुशे, शेषाः प्रतिसेवनारहिता,इति श्रीउत्तराध्ययनवृहद्वृत्तावपि षष्ठाध्ययनेऽयमर्थः सविस्तरमुक्तोऽस्ति । तथा तत्रैव बकुशो विविधः, उपकरण बकुशः शरीरबकुशश्च तत्रोपकरणाभिष्वक्तचित्तो विविधविचित्रमहाधनोपकरणपरिग्र हयुक्तः, विशेषयुक्तोपकरणकाङ्क्षायुक्तो नित्यं तत्प्रति कारसेवी भिक्षुरुपकरणबकुशो भवति ।
शरीराभिष्वक्तचित्तो करचरणनखमुखादिदेहा. वयव विभूषानुवर्तनशीलः शरीरबकुशः । प्रतिसेवना. कुशीलो मूलगुणान् विराधयन् उत्तरगुणेषु काश्चिदिरा धनां प्रतिसेवन्ते । भगवतीसूत्रे तु, बकुसेणं पुच्छा?"जाव णो मूलगुणपडिसेवए होज्जा" 'पडिसेवणा कुसीलो जहा पुलाए' । अत्र च यत्पुलाकादीनां मूलोत्तरगुणविराधकत्वेऽपि नि.
ग्रन्थत्वमुक्तं, तजघन्यजघन्यतरोत्कृष्टोत्कृष्टतरादिभेदतः संयमस्थानानामसङ्ख्यतया तदात्मकतया च चारित्रपरि गतेरिति भावनीयम्, इति श्री उत्तराध्ययनवृहद्धृत्तौ त स्मादलं पावस्थादिलक्षणगवेषणक्लेशेन,किन्तु कालोचि. तयतनया यतमानाः साधवो बकुशकुशीलत्वं न व्यभि.. चरन्तीति वन्द्या एव । यदुक्तं श्रीजिनवल्लभसूरिभिर्वाद
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शकुलक्यां
कालाइदोसओ जइवि कह वि दीसंति तारिसा न जई. सवस्थ तह वि नस्थित्ति नेव कुज्जा अणासासं॥१॥यतः
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कुग्गह कलंकरहिया जहसत्ति जहागमं च जयमाणा। जेण विसुद्धचरित्तत्ति वुत्तमरिहंतसमयम्मि ॥२॥ सम्मत्तनाणचरणा-नुवाइ आणाणुगं च जं जत्थ । जाणिज्जा गुणं तं तत्थ प्रअए परमभत्तीए ॥३॥ इति
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__ व्यवहारप्रथमोद्देशकेऽपि-- चोअग छक्कायाणं तु संजमे जोणुधावए ताव (जाव)। मूलगुणउत्तरगुणो दोण्णिवि अणुधावए (ताव) ॥२॥ ____ अत्र वृत्तिः-हे नोदक ! यावत्षड्जीवनिकायेषु संयमः * प्रबन्धेन वर्तते । तावन्मूलगुणाउत्तरगुणाश्च बयेऽप्येतेऽनुधावन्ति वर्तन्ते इति । न च पार्श्वस्थादीनामपि सर्वथा अवन्द्यत्वम् । आगमे तु--
कारणे जाते प्रकटप्रतिसेविनामपि वन्द्यत्वाभिधानात्।। तदुक्तमावश्यके-- मुकधुरा संपागड--सेवी चरणकरणपन्भट्ठे।
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१ व्याख्या-धूः संयमधूः परिगृह्यते, मुक्ता-परित्यक्ता धूर्येनेति समासः, सम्प्रकट-प्रवचनोपघातनिरपेक्षमेव मूलोत्तरगुणजालं सेवितुं शीलमस्येति सम्प्रकटसेवी चेति विग्रहः, तथा चर्यत इति चरणं व्रतादिलक्षणं क्रियत इति । करणं-पिण्डविशुद्धयादिलक्षणं चरणकरणाभ्यां प्रकर्षण भ्रष्टः-अपेतश्चरणकरणप्रभ्रष्टः, मुक्तधूः स
म्प्रकटसेवी चासौ चरणकरणप्रभ्रष्टश्चेति समासस्तस्मिन्, प्राकृत. ३ शैल्या अकारेकारयोर्दीर्घत्वम् ॥
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( १४ ) लिंगावसेसमित्ते जं कीरइ तं पुणो वुच्छं ||१|| वायाइ नमक्कारो हत्थुस्सेहो अ सीसनमणं च । संपुच्छणऽच्छणं छोभवंदणं वंदणं वावि ॥ २॥ आई अकुव्र्वतो जहारिहं अरिहदेसिए मग्गे । न भवइ पवयणभत्ती भत्तिमंताइआ दोसा || ३ ||
१ इत्थम्भूते लिङ्गावशेषमात्रे केवल द्रव्यलिङ्गयुक्ते यक्रियते किमपि तत्पुनर्वक्ष्ये पुनः शब्दो विशेषणार्थः, किं विशेषयति ? - कारणापेक्ष कारणमाश्रित्य यत्क्रियते तद्वक्ष्ये - अभिधास्ये, कारणाभावपक्षे तु प्रतिषेधः कृत एव, विशेषणसाफल्यं तु मुक्तधूरपि कदाचित्सम्प्रकटसेवी न भवत्यपि अतस्तद्ग्रहणं संप्रकटसेवी चरणकरणप्रभ्रष्ट एवेति स्वरूपकथनमिति गाथार्थः
25
२ व्याख्या 'वायापत्ति निर्गमभूभ्यादौ दृष्टस्य वाचाभिलापः क्रियते हे देवदत्त ! कीदृशस्त्वमित्यादिलक्षणः, गुरुनर पुरुषकार्यापेक्षं वा तस्यैव 'नमोक्कार त्ति नमस्कारः क्रियते -- हे देवदत्त ! नमस्ते, एवं सर्वत्रोत्तर विशेषकरणे पुरुषकार्यभेधः प्राक्तनोपचारानुवृत्तिश्च द्रष्टव्या, 'हत्थुसेहो यत्ति अभिलापनमस्कारगर्भः हस्तोच्छ्रयश्च क्रियते, 'सीसनमणं च' शिरसा उत्तमाङ्गेन नमनं शिरोनमनं च क्रियते, तथा 'संग्रच्छनं' कुशलं भवत इत्यादि, अनुस्वारलोपोऽत्र द्रष्टव्यः, ' अच्छणं ति त [दूवमानस्त] त्सन्निधावासनं कञ्चित्कालमिति, एष तावदूव हिद्दष्टस्य विधिः, कारण विशेषतः पु स्तम्प्रतिश्रयमपि गम्यते, तत्राप्येष एव विधिः, नवरं 'छोभवंरणं' ति आरभट्या छोभवन्दनं क्रियते, 'वन्दणं वाऽवि' परिशुद्धं वा वन्दनमिति गाथार्थ:
·
३ व्याख्या - ' एतानि 'वाङनमस्कारादीनि कषायोत्कटतयाऽकुर्वतः, अनुस्वारोऽत्रालाक्षणिकः 'यथार्ह' यथायोगमर्हद्दर्शिते मार्गे न भवति प्रवचनभक्तिः, ततः किमित्यत आह - 'अभत्तिमंतादआ दोसा' प्राकृत शैल्याऽभक्त्यादया दोषाः आदिशब्दात् स्वार्थअंशबन्धनादय इति गाथार्थः ॥
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नन्वेतत्साधूनाश्रित्य, नतु श्राद्धान् । नैवं । यतःश्राद्धजीतकल्पे, * उप्पन्नकारणम्मी वंदणयं जो न कुज्ज दुविहंपि ।
पासत्थाईयाणं उग्घाया तस्स च तारि ॥४॥ ___ इति श्राद्धजीतकल्पेश्रादानाश्रित्य भणनात् । ननु कि नाम कारणेन श्राद्धोऽपि पार्श्वस्थादीन् वन्दते। उच्यते ज्ञानादिग्रहणरूपग्रहणशिक्षाऽऽवश्यकविध्यादिशिक्षणरूपाऽऽसे
वनाशिक्षे कारणतयोक्ते एवागमे-यदुक्तं श्रीव्यवहारे *प्रथमोद्देशकान्तेचोयइ से परिवारं अकरेमाणे भणेइ वा सड्ढे ।
अव्वुच्छित्तिकरस्त उ सुअभत्तीए कुणह पूचं ॥१॥ १ इत्यादि एतद्व्याख्या-प्रथमतः ' से ' तस्यालोचनाई. स्य परिवार वैयावृत्त्यादिकमकुर्वन्तं चोदयति शिक्षयति । तथा ग्रहणासेवनानिष्णात एष तत एतदस्य विनयवैयावृत्यादिकं क्रियमाण महानिर्जराहेतुरिति । एवमपि शिक्षमाणो यदि न करोति।ततस्तस्मिन्नकुर्वाणे स्वयमहारादीनु. त्पादयति । अथ स्वयं शुद्धं प्रायोग्यमाहारादिकं न लभते । ततः श्राडान् भणति ज्ञापति प्रज्ञाप्य च तेभ्योऽकल्पिकमपि यतनया सम्पादयति । न च वाच्यं तस्यैवं कुकुर्वतः कथं न दोषो, यत आह-'अव्वोच्छित्ती'त्यादि अ. व्यवच्छित्तिकरणस्य पावस्थादेः श्रुतभक्त्या हेतुभूतयाऽ. * कल्पिकस्याप्याहारादेः श्रुतभक्त्या पूजां कुरुत यूयं । न
च तत्र दोष एवमत्रापि । इयमत्र भावना यथा कारणे : पार्श्वम्यादीनां समीपे सूत्रमर्थं च गृह्णानोऽकल्पिकमा
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हारादिकं यतनया तदर्थं प्रतिसेवमानः शुद्धा, ग्रहणशिक्षायाः क्रियमाणत्वादेवमालोचनाहस्यापि निमित्त प्रतिसेवमानः शुद्ध एव, आसेवनाशिक्षायास्तत्समीपे क्रियमाणत्वादिति । उपदेशमालायामपि"सुगईमग्गपईवं नाणंदितस्स हुज्ज किमदेयं । जह तं पुलिंदएणं दिन्नं सिवगस्स नियगच्छि॥१॥इति।।
ननु तत्रैव। बालावो संवासो विसंभो संथवा पसंगो अ। हीणायारेहिं समं, सबजिणिदेहिं पडिकुट्ठा ॥१॥
इति वचनाद्यः सह आलापाद्यपि त्यज्यते, तेषां पार्वे ज्ञानग्रहणादि कथं युज्यते । उच्यते यदि तेभ्योऽधिकगुणाः साधवो लभ्यन्ते ? तदा न युज्यते एव तेषां पार्वे ज्ञानग्रहणादि । तदभावे तु तेषा
मपि पा ज्ञानग्रहणादि युक्तमेवागमप्रामाण्यात् । यदि | हि यदर्थ द्वादशवर्ष सुगुरुन् प्रतीक्षते साऽपि आलोचनागुवभावे पाश्वस्थादिपाश्र्वे ग्राह्यतयोक्ता जीतकल्पेआयरिआइ सगच्छे संभोइअ इअरगीअपासत्थे।। सारुवी पच्छाकड देवयपडिमा अरिह सिद्धे ॥१॥
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१ व्याख्या-' सुगइ इति ' सद्गतिर्मोक्षरूपा तस्या मार्ग: पन्थास्तत्प्रकाशनेन प्रदीपं दीपसदृशमेतादृशं ज्ञानं, ज्ञायते परिच्छिद्यते वस्त्वनेनेति ज्ञानं, अत्र श्रुतज्ञानं ग्राह्यम् , तद्ददतां ज्ञा.
नमर्पयता, 'हुज इति' भवेत्किमदेयम् ? एतावता यदि ज्ञानदाता. २१ जीवित मार्गयति तदा सुशिष्येण तदपि देयमित्यर्थः,
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इत्यादिजीतकल्पवचनप्रामाण्यात् । तदानीं प्रतिदिनविधेयाऽऽवश्यकविधिशिक्षणादि तत्पार्वे सुतरां कार्य, शुद्धचारित्र्यभावे। .
नन्वेवं पश्चात्कृतादीनामपि वन्द्यत्वं स्यात्तेषामपि आलोचनाधिकारेऽधिकृतत्वात्, नैवं, तेषां साधुवेषाभावात्। साधुवेषाभावे हि प्रत्येकबुद्धादिरपि न वन्यः स्याकि पुनरितरः। - यदुक्तं श्रीपञ्चकल्पे
एवं तु दवलिंगं भावे समणत्तणं तु णायवं । को उ गुणो दवलिंगे भण्णति इणमो सुणसु वोच्छं।।
सक्कारवंदणनमंसणा य पूआ य लिंग कप्पम्मि। । पत्तेयबुद्धमादी लिंगे छउमत्थतो गहणं ॥२॥ वत्थासणसक्कारो वंदण अब्भुट्ठाणं तु णायव्वं । पणिवाओ उ णमंसण-संतगुणकित्तणा पूआ ॥३॥
ठूण दवलिंग कुव्वते ताणि इंदमाइवि । लिंगम्मि अविज्जते न नजती एस विरओत्ति ॥४॥ पत्तेयबुद्धो जाव उ गिहिलिंगी अहव अन्नलिंगी उ।। देवावि ताण पूयंति मा पुज्ज होहिति कुलिंगं ॥५॥
ननु महानिशीथेजीवे सम्मग्गमोइन्ने घोरवीरतवं चरे। . अचयंतो इमे पंच सव्वं कुजा निरत्थयं ॥१॥
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(१८) Metrteteatatatatatatatatatateretetetretetetet katetertretetestetetreteetateretur
कुसीलोसन्नपासत्थे सच्छंदे सबले तहा । दिहीए वि इमे पंच-गोयमा ! न निरिक्खए ॥२॥ तथा-पंचे एसु महापावे जो न वजिज्ज गोयमा !। __ संलावाईहिं कुसीलाई भमिही सो सुमई जहा॥३॥ ___ इति श्रीमहानिशीथे तेषां दर्शनमात्रमपि निषिध्यते । तत्कथं तेषां पार्वे ज्ञानग्रहणादि युज्यते । सत्यं, तेषां दर्शनमूत्सूत्राणामेव तत्रापि निषिद्धं नान्येषां। य. तस्तत्रैवाधिकारे अन्तरा एता गाथाः सन्ति ॥ सव्वन्नुदेसियं सग्गं सव्वदुक्खपणासणं । सायागारवगुरुए अन्नहा भणिउमुज्झए ॥१॥ पयमक्खरम्मि जो एगं सव्वन्नूहिं पवेइथं ।। न रोइज अन्नहा भासे मिच्छदिछी स निच्छि॥२॥ एवं नाऊण संसग्गि दरिसणालावसंथवं । संवासं च हिआकंखी सव्वोवाएहिं वज्जए ॥३॥ इ०
किश्च-श्रीमहानिशीथेऽतिपरिणामकानामपि परमसंवेगजनकतया भयवाक्यान्येव प्रायो दृश्यन्ते । यथागोयमा ! जे केई अणोवहाणेणं सुअनाणंमहीअति' न जाव समणुजाणंति, तेणं महापावकम्मे महं
ती, सुपसत्थनाणस्सासायणं कुठवंति । तथा-जेणं केई न इच्छिञ्जा एयंतणं अविणउवहाणेणं चेव पंचमंगलाइसुथनाणस्तमहिनणे अज्झावेइ वा अ
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(१९) Netattatotkekat.kakakakteokakuttakkakkakakakakot.kotatatakatre ज्झावयमाणस्स वा अणुन्नं पयाइ । से णं न भविजा पियधम्मे दढधम्मे भत्तिजुए, हीलिज्जा सुत अत्थं तदुभयं, हीलिज्जा गुरुं, आसाइज्जा अईआ-E णागयवट्टमाणतित्थयरे, आसाइज्जा आयरियउवज्झायसाहुणो, जेणं आसाइज्जा सुअनाणमिति' इत्यादि तत्रैव तृतीयाध्ययने । इति युष्माकमपि विनयो- पधान-वहनादिविधिमविधाय पञ्चमङ्गलाद्यधीयानानां म - हापापत्वेनातीतानागतवर्तमानतीर्थकराशातनाकारित्वेना. द्रष्टव्यमेव स्यादिति । यच्चिन्त्यते परस्मिन् तदायाति स्व. स्मिन्निति न्याय एवोपढौकते। कथञ्चैवं भक्तपरिज्ञायाम्अन्नाणी विह गोवो आराहिता गयो नमुक्कारं । चंपाएसिडिसु सुदंसणो विस्सुयो जाबो ॥१॥ * इति । आवश्यकेइह लोगम्मि तिदंडी सा दिव्वं माउगिंवणमेव । परलोइ चंडपिंगल-इंडिअजक्खो अदिता ॥१॥
इत्यावश्यके चोक्तं कथं सङ्गच्छते । अनुपधानेनापि नमस्कार पाठिनां सुगतिप्रतिपादनात् । किञ्च श्रीमहानिशीथे स्वल्पेऽपि प्रमादे साधोः कुशीलत्वोक्तेस्तस्य च त्व दभिसन्धिनाऽचारित्रित्वात् सर्वागमोक्तं साधोः प्रमत्ताप्रमत्तरूपं गुणस्थानकवयं कथं सङ्गच्छते ? । यदि च कुशीलादीनामेकान्तेनाचारित्रत्वं सम्मतं स्यात् , तदा तव महानिशीथे गणाधिपत्ययोग्यगुरुगुणानुत्तवा,
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( २० )
“उड्डुं पुच्छा गोयमा ! तओ परेणं उडूं हायमाणे कालसमए तस्थणं जे केइ छक्कायसमारंभविवज्जी, से णं धन्ने पुन्ने वंदे पुज्जे नम॑सणिज्जे "
इति पञ्चमाध्ययने षट्कायसमारम्भविवर्जिनामपि - कथं पूज्यत्वमवादि ! तथा श्रीपञ्चकल्पेऽपि - दंसण नाण चरितं तव विणयं जत्थ जत्तिअं पासे । जिणपन्नत्तं भत्तीइ पूअए तं तहा पायं ॥१॥
अपि च- अवन्द्यमध्योक्तकुशीलस्य निर्ग्रन्थमध्योक्तकुशीलस्य च लक्षणे विचार्यमाणे एकत्वमेव दृश्यते । तथाहि- अवन्धकुशीलः श्री आवश्यके ज्ञानदर्शनचारित्राचा रविराधकभेदात् त्रिविध उक्तः । श्रीमहानिशीथे तु
" अणेगहा कुसीले, तं जहा - नाणकुसीले १ दंसणकुसीले २ चारितकुसीले ३ तवकुसीले वीरियकुसीले इति "
निर्ग्रन्थमध्योक्तकुशीलश्च श्रीभगवत्यां ज्ञानदर्शनचारित्रतपसां विराधको मनसा क्रोधाद्यासेवकश्च पञ्चधोक्तः । एवं च ज्ञानदर्शनचारित्राणि विराधयन् कुशील इत्युच्यते । इति तत्वतो द्वयोरपि लक्षणमेकमेव । श्रीमहानिशीथे च
एवं अट्ठरसहं सीलिंगसहस्साणं जो जत्थ पए पमन्ते भविज्जा | सेणं तेणं पमायदो से णं कुसीलेणो य ।
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इति सूक्ष्मविराधकस्याप्यवन्धकुशीलत्वेनोक्तेर्बकुशकुशीलानां निग्रन्थानामपि श्रीभगवत्यामुत्तरगुणज्ञानादिविराधकत्वेनोक्तानां कथं नावन्यकुशीलत्वं, तेषां च तथात्वे शासनोच्छेद एव । यतान विणा तित्थं निअंठेहिं नातित्था य निअंठया। छक्कायसंजमो जाव ताव अणुसज्जणा दुण्हं ॥१॥ सव्वजिणाणं निच्चं बउसकुसीलेहिं वट्टए तित्थं ॥
इति............ततः पार्श्वस्थादीनामेकान्तेनावन्यत्वाक्षराणि भयवाक्यतयैव स्वीकर्तव्यानि, नमस्काराद्युपधानवाक्यवत्, भयवाक्यं च श्रुत्वा मन्दसंवेगोऽपि तीव्रश्रद्धः स्यात् । एवं चपासत्थो ओसन्नो० ॥१॥ कुसीलोसन्नपासत्थो सच्छंदे सिढिले तहा । दिट्ठीए वि इमे पंच गोयमा ! न निरिक्खए ॥२॥ असुइटाणे अडिआ० ॥३॥ इत्यादि
वाक्यानि भयवाक्यत्वेन पावस्थत्वादिकारणशस्यातरपिण्डदानादित्याजनपराणि पार्श्वस्थादिसंसर्गनिषेधनपराणि च बोद्धव्यानि ।
नतु तेषां सर्वथा अवंद्यत्वख्यापनपराणि । यथा हि लोके दुविनीतं पुत्रादिकं प्रति एतस्य भोजनं न दातव्यमित्यादिवाक्यानि दुविनयशिक्षणपराणि नतु भो । जननिषेधपराणि । यतः श्रीधर्मरत्नप्रकरणे
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सुत्ताई बहुविहाइं समए गंभीरभावाइं ॥ १ ॥ ॐ टीका-विधिश्चोद्यमश्च वर्णकश्च भयं चोत्सर्गश्वापवादश्च तदु ॐ भयं चेति द्वन्द्वः,तस्य च स्वपदप्रधानत्वागतानीति प्रत्येकमभिसंबध्यते
। सूत्राणि च विशेष्याणि । ततश्चैवं योज्यते कानिचिदिधिगना*नि सूत्राणि समये सन्ति । यथा-"संपत्ते भिक्खकालंमि असंभॐ तो अमुच्छिओ । इमेण कमजोएण भत्तपाणं गवेमए ॥ १ .. "
इत्यादीनि पिण्डग्रहणविधिज्ञापकानि । उद्यमसूत्राणि-"दुमपत्तएर से पंडुयए जहा निवडइ राइगणाण अञ्चए । एवं मणुयाण जीवियं
समयं गोयम ? मा पमायए ॥१” इत्यादीनि । तथा-"वंदइ उभओ कालंपि चेइयाइं थयथुई परमो । जिणवरपडिमा घरधूयपुप्पफगंधचणे जुत्तो ॥१॥" कालनिरूपणस्योधमहेतुत्वान्न पुनरन्य| दाऽपि चैत्यवन्दनं न धर्मायेति । वर्णकसूत्राणि चरितानुवादरूपाणि । यथा-द्रौपद्या पूरुषपञ्चकस्य वरमालानिक्षेपः, ज्ञाताधर्मकथाद्यनेषु नगरादिवर्णकरूपाणि च वर्णकसूत्राणि । भयसूत्राणि नारकादिदुःखदर्शकानि । उक्तं च-"नरएमु मंसरुहिराइवनणं जं पसिद्धिमत्तेण । भयहेउ इहर वेसिं वेउव्वियभावओ न तयं ॥ १॥" अथवा दुःखविपाकेषु पापकारिणां चरितकथनानि भयसूत्राणि ।। तद्भयात्प्राणिनां पापनिवृत्तिसंभवात् । उत्सर्गसूत्राणि-"इच्चेसि * छण्हं जीवनिकायाणं नेव सयं दंड समारंभेज्जा ॥” इत्यादिषड्।
जीवनिकायरक्षाविधायकामि । अपवादसूत्राणि प्रायश्छेदग्रन्थगम्यानि । यहा-"न यालभैज्जा निउणं सहायं गुणाहियं वा गुणो
समं वा । एक्कोवि पावाई विवज्जयंतो विहरैज्ज कामेसु असज्ज * ********* *
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एसिं विसयविभागं अमुणंतो नाणवरणकम्मुदया। मुज्झइ जीवो तत्तो सपरेसिमसग्गहं जणइ ॥२॥ ॐ इति । किञ्च-यदि पावस्थादिसतिनिषेधकवाक्या
नि, न भयवाक्यतया अङ्गी क्रियन्ते, किन्तु विधि । वाक्यतयैव । तदानीं श्रीआवश्यके श्रीसम्यक्त्वदंडके तदअतीचारपञ्चके च परतीर्थिकाणामालापान्नदानप्रशंसादिॐ वर्जनवत्पावस्थादीनामपि तद्वर्जनं कृतमभविष्यत् । चतुविधमिथ्यात्वे च लोकोत्तरं गुरुगतं मिध्यात्वं, (लिंगधारिस्वरूपं) तथाहि
दगपाणं पुप्फफलं अणेसणिज्ज गिहत्थकिच्चाई। अजया पडिसेवंती जइ वेसविडंबगा नवरं ॥१॥" . उसनया अबोही पवयण उब्भावणा य बोहियो। माणो । १॥" इत्यादीन्यपि । तदुभयसूत्राणि येत्सर्गापवादौ
युगपत्कथ्यते । यथा-"अदृज्झाणाभाधे सम्म अहियासियवओ * वाही । तभावम्मि उ विहिणा पडियारपवत्तणं नेयं ॥१॥” एवं 'सूत्राणि बहुविधानि'स्वसमयपरसमयनिश्चयव्यवहारज्ञानक्रियादिना
नयमतप्रकाशकानि 'समये' सिद्धान्ते 'गम्भीरभावानि' महामतिग३ म्याभिप्रायाणि सन्तीति शेषः ॥१॥
. १ व्या०-'दगपाणं इति' दगपाणं शब्देन मचित्तजलपानं पुष्पं जात्यादीनां, फलमानादीनां, 'अणेसणिज्जं इति' आधाक
दिदोषदुष्टमाहारादि, अयता असंयताः प्रतिसेवन्ते प्रतिकूलमाचरन्ति, नवरं केवलं ते वेषविडंबका एव, न तु स्वल्पमपि परमार्थसाधका' इत्यर्थः ।।
२ व्या० 'उसन्नया इति' एतादृशानां भ्रष्टाचाराणामवसन्नता पराभवो भवति, अबोधिर्धर्मप्राप्त्यभावः स्यात् । यतः प्रवचनस्य,
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ओसन्नो वि वरं पिहु पवयण उब्भावणापरमो ॥२॥ गुणहीणो गुणरयणा-यरेसु जो कुणइ तुल्लमप्पाणं । सुतवस्सियो अहीलइ सम्मत्तं कोमलं तस्स ॥३॥ उसनस्स गिहिस्स व जिणपवयणतिवभावियमइस्स। कीरइ जं अणवज्जं दढसम्मत्तस्स वत्थासु ॥ ४ ॥ पासत्थोसन्नकुसील-नायसंसत्तं जणं महाछंदं । १ शासनस्योद्भावनायां प्रभावनायां वद्धितायां सत्यां बोधिरूपं
फलं भवति, नतु प्रवचनहीलनायां कृतायामित्यर्थः। 'उसनोवित्ति' ॐ अबसन्नोऽपि कर्मपारवश्येन शिथिलाचारोऽपि वरं श्रेष्टः, यदि 'पिहुत्ति' पृथुपृथुतरं यथास्यात्तथा प्रवचनस्य शासनस्योद्भावना प्रभावना शोभेति यावत, तस्यां परमः प्रधानो भवति, व्याख्यानादिना शासनप्रभावकोऽवसन्नोऽपि वरमित्यर्थः ॥
२ व्या० 'गुणहीणो इति' गुणेन चारित्रादिना हीन पतादृशो गुणरत्नाकरैगुंणसमुद्रैः साधुभिः सार्ध यः स्वकीयमात्मानं तुल्यं करोति, वयमपि साधव इति मन्यन्ते, तस्य पुरुषस्य सम्यक्त्वं कोमलमसारमर्थात्स मिथ्यादृष्टिरित्यर्थः ॥
३ व्या० 'उसनस्सेति' असन्त्रस्य पावस्थादिकस्य वाऽथवा गृहस्थस्य, कीदृशस्य ? जिनम्तीर्थकरस्तस्य प्रवचने सिद्धान्ते धर्मेण तीव्रभाविता मतिर्यस्य तस्य जिनधर्मरागरक्तस्यैतादृशस्याऽवसन्नस्य श्राधकस्य वा यद्वैयावृत्यादि क्रियते, तत्सर्वमनवचं निष्पापं निर्दूषणमिति यावत्, कोदशस्य ? दृढसम्यक्त्वस्य निश्चलदर्शनस्य कदा वैयावृत्यादि करोति ? अवस्थासु क्षेत्रकाला. चवस्थासु ॥
४ व्या० 'पासत्थो इति' पावें ज्ञानदर्शनचारित्राणां समीपे निष्ठतीति पार्श्वस्थः, अवसन्नश्चारित्रविषये शिथिल्लाचारः कुशीलः
नायशब्देन यो न भणनाद ज्ञान विराधकः, 'संसत्तं जणं इति' *
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नाऊणं तं सुविहिया सवपयत्तेण वज्जति ॥ ॥५॥ बायालमेसणाओ न रक्खा धाइसिज्जपिंडं च। आहारेइ अभिक्खं विगइ उ सन्निहिं खाइ ॥१॥ सुरप्पमाणभोजी थाहारेइ अभिक्खमाहारं । नय मंडलीइं भुंजइ नय भिक्खं हिंडइ अलसो ॥२॥ कीवो ने कुणइ लोथ लज्जइ पडिमाइजलमवणेइ । सोवाहणो अ हिंडइ बंधइ कडिपट्टयमकज्जे ॥३॥ १संसक्तो, यो यत्र यावशो मिलति,तत्र तत्संगत्या तादृशो भवति स संसक्त इत्युच्यते, यथाछंदः स्वकीयमत्योत्सूत्रप्ररूपकः, पतेषां स्वरूपं ज्ञात्वा सुविहिताः शोभमानुष्ठामाः साधवस्तं पार्श्वस्थादिकं सर्वप्रयत्नेन सर्वशक्त्या वर्जयन्ति तत्सङ्गतिं न कुर्वन्ति चारित्रविनाशकारिवादित्यर्थः ॥ .
अथ पार्श्वस्थादीनां लक्षणानि कथयति२ व्या. 'बायाल इति' द्विचत्वारिंशत्संख्याका एषणा इति आहारविषया गवेषणास्तान न रक्षति, न पालयति, आहारदोषान्न निवारयतीत्यर्थः, च पुनर्धात्रीपिण्डं न रक्षति, न निवारयति, 'सिजत्ति' शय्यातरपिण्डं गृण्हाति, अभोणे पुनः पुनर्विकृतीदुग्धदधिप्रमुखाः कारणं विनाऽऽहारयति' 'सन्निहिं इति' रा.. पाषथवा राधिरक्षितं वस्तु खादति भक्षयतीत्येवंशीलः ॥ ... .
३ व्या• 'सूर इति' सूर्यप्रमाणं उदयादारभ्याऽस्तं याषभुङ. क्ते इत्येवंशीलः, अभीषणं निरन्तरमाहारमशनाखाहरति भुकते,
न च साधुमंडल्यां भोजनं करोति, एकाक्येष भोजनं करोति, न 3 च भिक्षार्थ हिंडति भ्रमति, गोवर्या न गच्छति, अलस: सन् स्तोके एष गृहे बहुतरं गृहातीत्यर्थः ॥
४ च्या. 'कीयो इति' क्लीवः कातरत्वेन लोचं केशलुश्चनं न करोति, 'पडिमा इति' कायोत्सर्ग कुर्वन् लज्जते जलं शरीरमलं हस्तेमापनयति, 'सोवाहणो अ इति' पादत्राणसहितो हिंडति, बध्नाति कटिप्रदेशे पट्टकं घोलपट्टकं 'अकज्जे इति' कार्य विमा ||
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'गामं देतं च कुलं, ममाए पीढफलगपडिबद्धो । घरसरणेसु पवज्जइ विहरइ य सकिंचणो रित्तो ॥ ४॥ नेह दंतकेसरोमे जमेइ अत्थोलोइणो अजओ । वाइ पलिकं इरेगप्पमाणमच्छरइ ॥५॥
सोइ य सव्वराई नीसट्ठमचेयणो न वा झरइ । न पमज्जतो पविसइ निसिहियावस्सियं न करे || ६ ||
१ व्या० 'गामं इति' ग्रामे देशे अथ च कुले 'ममाए इति' ममता विचरति, एतानि मदीयानीति ममत्ववान् पीठफलकेषु प्रतिबद्धः वर्षाकालं विनापि शेषकाले तद्रक्षक इत्यर्थः 'घरसरणेसु इति' गृहाणां पुनर्नवीनकरणे प्रसज्यति प्रसङ्गं करोति चिन्ताकारको भवतीत्यर्थः, विहरति विहारं करोति 'सचिणीत्ति' सुवर्णादिद्रव्यसहितः सन् अहं रिक्तोऽस्मि, द्रव्यरहितो निर्मन्थोऽस्मीति लोकानामग्रे कथयति ॥
२ व्या० 'नह इति' नखा दन्ताः केशा मस्तकसम्बन्धिनः रोमाणि शरीरसम्बन्धीनि च एतेषां द्वन्द्वः तानि'जमे इति' भूषयति अत्थोलशब्देन बहुपानीयेन धावनं हस्तपादादीनां यस्यैतादृशः 'अजओत्ति' अयतनया युक्तः 'बाहेइयत्ति' वाहयति गृहस्थवदुपभुङ्क्ते पश्यङ्कं मञ्चकमतिरेकप्रमाणं प्रमाणातिरिक्तं संस्तारकोत्तर पट्टाधिकमास्तरति सुखशय्यां करोतीत्यर्थः ||२||
३ व्या० 'सोवइय इति' स्वपिति शयनं करोति सर्वस्यां रात्रौ रात्रिप्रहरचतुष्टयेऽपीत्यर्थः निसठ्ठ निर्भरमचेतनश्चेतनारहितः काष्ठवत् शयनं करोतीत्यर्थः, 'न वा झरइत्ति' रात्रौ गुणनादिकं स्वाध्यायं न करोति, रात्रौ रजोहरणादिना भूमिमप्रमार्जयन्नुपाश्रये प्रविशति, नैषेधिक सामाचारीं प्रवेशसमये, निर्गमनसमये चा afra न करोति ॥
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(२७ ) 'पायपहे न पमज्जइ जुगमायाए न सोहए इरियं । पुढवीदग अगणिमारु - वणस्सइतसेसु निरविक्खो ॥७ संव्वं थोवं उवहिं न पेहए न य करेइ सज्झायं । सहकरो झंझकरो लहुओ गणभेयतत्तिल्लो ॥८॥ खित्ताईयं भुंजइ कालाईयं तत्र विदिन्न । गिoes अणुइयसूरे असणाई अहव उवगरणं ॥ ९ ॥ ठर्वेणाकुले न ठवेइ पासत्थेहिं च संगयं कुणइ | निच्चमवज्झाएरओ न य पेहपमज्जणासीलो ॥१०॥
१ व्या० पायपछे इति' पहेति पथि मार्गे व्रजन्, ग्रामसोम्नि प्रविशन् निस्सरन् वा न पादौ चरणौ प्रमार्जयति, "युगमात्रायां " युगप्रमाणायां भूमौ इया न शोधयति, पृथ्वी शब्देन पृथ्वीकायः, दगशब्देनाप्रकाय: अगणिशब्देन तेजस्कायः मारुतो वायुकायः वनस्पतिकायखसकायश्च पतेषु षट्सु जीवनिकायेषु निरपेक्षोऽपेक्षारहितो विराधयन्न शङ्कते इत्यर्थः ॥
२ व्या 'सव्वं इति' सर्व स्तोकमप्युपधि मुखवखिकामात्रमि न प्रेक्षते, न प्रतिलेखते, न च करोति स्वाध्यायं वाचनादिकं, रात्रौ शयनानन्तरं गाढं शब्दं करोतीति, झंझशब्देन कलहस्तं करोतीति, लघुको नतु गम्भीरो न गुणयुक्त, गणस्य संघाटकस्य भेदे भेदकरणे 'तत्तिल्लोत्ति' तत्परः ॥
३ व्या० 'खित्ताईयं इति' कोशद्वयादुपरिक्षेत्रादानीतमाहारं यदाहरेत्तत्क्षेत्रातीतं कालातीतमिति यदानीताहारं प्रहरत्रयानन्तरं भक्षयति, 'अणुइय सरे इति अनुद्गते सूर्ये गृहाति, सूर्योदयात्प्रथममाहारं गृहाति, अशनादिकं चतुर्विधमाहारं, अथवोपकरणं वखादि, एवंविधः पार्श्वस्थादिः कथ्यते इत्यथः ॥
४ व्या० 'ठवणा इति स्थापनाकुलानि वृद्धग्लानादीनामतीव भक्तिकराणि तानि न स्थापयति न रक्षति, निष्कारणं तत्राहारार्थ गच्छतीत्यर्थः, च पुनः पार्श्वस्थै भ्रष्टाचारैः सार्द्ध संगतं मैत्र्यं करोति,
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( २८ )
रीयइ य दवदवाए मूढो परिभवइ तह य रार्याणए परपरिवार्य गिण्हइ निठुरभासी विगहसीलो ॥११॥ विज्जं मतं जोगं तेगिच्छं कुणइ भूइकम्मं च । अक्खरनिमित्तजीवी आरंभपरिग्गहे रमइ ॥ १२ ॥ कैज्जेण विणा उगाह--मणुजाणावेई दिवसओ सुअइ । अजियलाभं भुजइ इत्थिनिसिज्जासु अभिरमइ ॥ १३
नित्यं निरन्तरमपध्याने रतस्तत्परः न च प्रेक्ष्य दृष्ट्या विलोक्यवस्तुनो ग्रहणं प्रमार्जना रजोहरणादिकेन प्रमाय वस्तुनो भूमौ स्थापनं, तच्छीलस्तदाचरणस्वभावो नेत्यर्थः ॥
व्या० 'रीयइ य इति' गच्छति 'दवदबाए इति' सत्वरं मूर्खः सन् पराभवति 'तहय इति' तथा 'रायणिपत्ति' ज्ञानादिगुरत्नैरधिका वृद्धास्तान्, तैः सह स्पर्द्धते इत्यर्थः, परेषां परिaratsafarदस्तं गृहाति, निष्ठुरं कठिनं भाषते, इत्येवंशीलः, विकथा राजकथाचास्तासां शीलः स्वभावो यस्य सः ||
व्या० 'बिज्जं इति' विद्यां देवाधिष्ठितां, मंत्रं देवाधिष्ठितं योगीकरणादि, 'तेगिच्छं इति, रोगप्रतिक्रियां करोति, च पुनर्भूतिकर्मेति रक्षाद्यभिमंत्र्य गृहस्थेभ्यः समर्पयति. अक्षरशब्देन लेखकानामक्षर विद्याप्रदानं, निमित्तं शुभाशुभयोर्लग्नबलेन प्रकाशनं, तेन जीवतीत्येवंशीलः आरम्भः पृथिव्याद्युपमद्देः परिग्रहोsaकोपकरणरक्षणं, तत्र रमते तत्रासक्त इत्यर्थः ॥
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व्या० ' कज्जेण इति' कार्येण विना निरर्थकमित्यर्थः, ग्रहं स्थित्यर्थमनुज्ञापयति, गृहस्थानां भूमिकां ज्ञापयित्वा मुञ्चतीत्यर्थः, दिवसे स्वपिति निद्रां करोति आर्यिकाया लाभं साध्वीलब्धमाहारं भुनक्ति, स्त्रीणां निषद्या आसनानि, तत्राभिरमते, स्त्रीणामुत्थानानन्तरं तत्कालमेव तत्र तिष्ठतीत्यर्थः ॥
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२९
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उच्चारे पासवणे खेले सिंघाणए अणाउत्तो।। संथारगणवहीणं पडिकमा सवासपाउरणो ॥ १४ ॥ न करेइ पहे जइणं तलिआणं तह करेइ परिभोगं। चरइ अणुबद्धवासो स पक्खपरपक्खओमाणो ॥१५॥ संजोअइ अ बहुयं इंगालसाधूमगं अणट्ठाए । भुञ्जइ रूवबलहा न धरेइ अ पायपुंछणयं ॥१६॥ अट्ठमछट्टचउत्थं संवच्छरचाउमासपक्खेसु ।
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व्या० 'उच्चारे इति' उच्चारो मलस्तत्र, प्रस्रवणं मूत्रं तत्र तत्परिष्ठापने इत्यर्थः, खेलशब्देन प्रलेश्म तत्र 'सिंघाणएत्ति' नासिकामलेऽनायुक्तोऽवसावधानः, अयतनया तत्परिष्ठापक इत्यर्थः संस्तारकस्योपरि स्थित एव प्रतिक्रमणं करोति कीदृशः ? वासो वस्त्रं तस्य प्रावरणं प्रकर्षेण वेष्टनं, तेन सह वर्तमानः, अथवा स इति भिन्नं पदं वा अथवेत्यर्थः, संप्रावरण इति विशेषणम् ॥
व्या० 'न करेइ इति' न करोति पथि मार्ग यतनां 'तलि. ___याणंति' पादतलरक्षकाणां पादत्राणभेदानां परिभोगमुपभोगं क'रोति, चरति गच्छति 'अणुबद्धवासे' वर्षाकालेऽपि विहारं करोति, स्वपक्षाणां साधूनां मध्ये परपक्षाणामन्यदर्श निनां मध्येऽ. पमाने सति अयोग्य विचारयनीत्यर्थः॥ __व्या० 'संजोअइ इति' संयोजयति भिन्न भिन्नस्थितानां द्र. व्याणां आस्वादार्थ संयोगं करोतीत्यर्थः, अतिबहुकं भुंक्ते इंगाल शब्देन समीचीनं भक्तादि रागबुद्धया जेमति, 'साधूमगं इति' अनिष्टभक्तादिमुखविकारेण जेमति, 'अणट्टाए इति' क्षुधावेदनीय. वैयावृत्यादिकारणं विना 'भुंजइति' भोजनं करोति, किमर्थ ? रूपबलनिमित्तं इति 'न धरेइत्ति' न धारयति च पादपोंछनकम् ॥ ___ व्या० 'अट्टम इति' अष्टमं तपः षष्टं तपश्चतुर्थ तपश्च न करो.
ति, कस्मिन कस्मिन् दिने ? तदाह-सांवत्सरिके पर्वणि अष्टमंत्र 2 चातुर्मासिके षष्ठं, पक्षे पक्षदिवसे चतुर्दशीदिने चतुर्थ तपो,
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न करेइ सायबहुलो न य विहरइ मासकप्पेणं ॥१७॥ नीयं गिण्हेइ पिंडं एगागि अच्छए गिहत्थकहो । पावसुथाणि अहिज्जइ अहिगारो लोगगहणम्मि ॥१८ परिभवइ उग्गकारी सुद्धं मग्गं निगूहए बालो । विहरइ सायागुरुओ संजमविगलेसु खित्तेसु ॥ १९ ॥ उग्गाइ गाइ हस्सइ असंवुडो सया करेइ कंदप्पं । गिहिकज्जचिंतगोवि य उसन्ने देही गिण्हइ वा॥२०॥
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__ न करोति, कीदृशः सन्! सातेन बहुलः सुखशीलः सन,न च विहरति विहारं न करोति, मासकल्पेन मासकल्पमर्यादया शेषकाले सत्यपि क्षेत्रेइत्यर्थः ॥
व्या'नीयं इति' नीयं नित्यमेतस्मिन गृहे एतावान् ग्राह्य इति नियतिपूर्वक पिण्डं गृहाति, एकाकी 'अच्छए इति' तिष्ठ. ति, समुदाये न तिष्ठति, गृहस्थानां कथाप्रवृत्तेर्यत्र तां गृहिप्रवृत्ति करोति, पापश्रुतानि ज्योतिर्वेदकानि 'अहिज्ज इति अधीते पठतिं, अधिकारं करोति, लोकशब्देन लोकानां मनांसि, तेषां ग्रहणे रंजने वशीकरणे इति यावत् ॥ ___ व्या० 'परिभवइत्ति' पराभवति, कान् ? उग्रकारिण उग्रविहारिणामुपद्रवं करोतीत्यर्थः, शुद्धं निर्दूषणं मग्गति' मोक्षमार्ग निगृहयत्याच्छादयति बालो मूर्खः, 'विहरइत्ति' विचरति 'साया. गुरुओत्ति' साते सौख्ये गुरुरेव गुरुकोऽर्थाल्लम्पट इत्यर्थः, क्व विहरति ? संयमविकलेषु सुसाधुभिरनधिवासितेषु क्षेत्रेषु ॥ _ व्याख्या-उग्गाइत्ति उग्रतया महता शब्देन 'गाइत्ति' गायति, हसइत्ति' हसति, असंवृतो विकसितमुखः, 'सया इति' सदैव 'कंदप्पं इति' कन्दर्पोद्दीपकां प्रवृत्तिं करोति, अपि चेति समु.
चये, गृहिकार्यचिन्तकः, अवसनाय ददाति वस्त्रादि, गृहाति च 1 तस्मात् ॥
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धम्मकहाओ अहिज्जइ घराघरं भमइ परिकहतो।
अगणणाइपमाणेण य अइरित्तं वहइ उवगरणं ॥२१॥ । बारस काइयत्ति य तिन्नि य उच्चारकालभूमीओ।
अंतो बहिं च अहियासि अणहियासे न पडिलेहे ॥२२॥ गीयंत्थं संविग्गं पायरियं मुअइ वलइ गच्छस्स। गुरुणो अणापुच्छा जं किंचि वि देइ गिण्हइ वा ॥२३॥
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१व्या. 'धम्मकहाओत्ति धर्मकथा अधीते भणति, जनचित्तरअनार्थ मित्यर्थः, च पुनः परिकथयन धर्मकां कथयन् गृहादगृह भ्रमति गच्छति, गणनया साधूनां चतुर्दशसंख्यायाः साध्वीनां च पञ्चविंशतिसख्याया उपकरणानि, प्रमाणेन यादृशं कल्पते चो. लपट्टकादीनां मानं तस्मादतिरिक्तमधिकं संख्यया प्रमाणेन चो पकरणं वहति धारयति ॥ २ व्या० 'बारस इति' द्वादशसङ्ख्याः 'काइयत्ति' लघुनीतियोग्याः स्थण्डिलभूमयः 'तिनियत्ति' तिस्र उमारकालग्रहणयोग्याः स्थण्डि. लभूमयः, एवं सर्या अपि सप्तविंशतिसङ्ख्याः स्थण्डिलभूमयः, उपाश्रयस्यान्तमध्येऽथ बहिश्च 'अहियासित्ति' यद्यध्यासितुं शक्य. न्ते तदा दूरे योग्या:. 'अणहियासेति ईक्षितुं न शक्यते सा योग्या समीपवत्तिनी एतादृशी भूमिकां न प्रतिलेखति नाय. लोकयति:॥
३ व्या० 'गीयत्यं इति' गीतार्थ सूत्रज्ञातारं 'संविग्गति' मोक्षाभिलाषिणं, एतादृशं 'आयरियंति' स्वकीयं धर्माचार्य 'मुअइत्ति' मुश्चति निःकारणं त्यजति, 'पलहत्ति' वलति सम्मुखमुत्तरं दवा
ति, 'गच्छस्सत्ति' समुदायस्य शिक्षा ददतः सन्मुखं पदतीत्यर्थः, 1 गुरूननापृच्छय गुर्वाज्ञां विनेत्यर्थः, यत्किञ्चिवस्तु बबादि ददाति
परस्मै, वाऽथवा गृण्हाति स्वयं परस्मात् ॥
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(३२)
مع المتعلم علم العلععللهععلل
تعامل
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गुरुपरिभोगं भुखाइ, सिज्जासंथारउवगरणजायं। कित्तियतुमंति भासइ अविणीओ गठिवओ लुद्धो॥२४॥ गुरुपच्चक्खाणगिलाण--सेहवालाउलस्स गच्छस्स।। न करेइ न य पुच्छइ निद्धम्मो लिंगमुवजीवी ॥२५॥ पहगमणवसहिथाहार-सयणथंडिल्लविहिपरिठवणं। आयरइ नेव जाणइ, अजावट्टावणं चेव ॥ २६ ॥
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१ व्या० 'गुरु इति' गुरुपरिभोग्यं गुरूणां परिभोग्यं भोक्तुं योग्य स्वयं भुनक्ति, शय्या शयनभूमि: संस्तारकस्तृणादिमयः, उपकरणामि कल्पककम्बलप्रमुखाणि, तेषां जातः समुदायस्तं, गुरुभिः र्भाषितः सन् 'कित्तियतुमति' किं त्वमिति तुकारेण भाषते, न तु भगवन् इति बहुमानपूर्वक अविनीतः सन् गर्षितः सन् लुग्ध इति विषयादिषु लम्पट: सन एवं भाषते इत्यर्थः ॥
२ व्या० 'गुरु इति' गुरुप्रत्याख्यामा अनशनादितपः कारकाः, ग्लाना रोगिणः, 'सेहत्ति' नवदीक्षिताः 'बालात्ति' लघुक्षुल्लकाः, पतैराकुलस्य भृतस्य गच्छस्य समुदायस्य न करोत्युपेक्षते वैयावृश्यादि स्वयं, नैव पृच्छति पर ज्ञातारमहं किं करोमीति निद्धः
म्मो इति' धर्मरहितः सन् लिंगस्य घेषमात्रस्योपजीवी उपजीवकः - लिङ्गनाजीविकाकारीत्यर्थः ।।
३ व्या० 'पहगमण इति' पथिमार्गे गमनं, 'षसहित्ति" उपाश्रयः स्थित्यथै, आहारशब्देनाहारग्रहणं शयनं; थण्डिल्लशब्देन स्थ३ ण्डिलशोधन, एतेषां पदानां यो विधिस्तं, 'परिठवणंत्ति' अशु३ द्धभक्तादीनां परिष्ठापनं त्यजनं, एतत्सर्व जानन्नपि निद्धमतया - नाद्रियते, अथवा नैव जानाति, अम्जा शब्देन साध्वी, तस्याः
वट्ठावणं इति' लोकभाषया 'पवितुं तदपि न जानाति 'चेष इति निश्चयेन ॥
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( ३३ )
च्छंदगमणउडाण-सोअणो अप्पणेण चरणेण । समगुणमुक्कजोगी बहुजा वखयंकरो भमइ ||२७| बेच्छिव्व वायुपुन्नो परिभमइ जिणमयं अयाणंतो । थद्धो निव्विन्नाणो न य पिच्छइ किंचि अप्पसमं२८ ||
संच्छंदगमणउट्ठाण - सयणो भुञ्जई गिहीणं च । पासस्थाइ ठाणा हवंति एमाइया एए ॥ २९ ॥
इति उपदेशमालागाथोक्तलक्षणसर्वपार्श्वस्थाच संयतवंदन एव संभाव्यते नतु किश्चिद्विराधकदेशपार्श्वस्थादिवन्दने । यदुक्तं - चैत्यवन्दनकुलके तदधिकारे
१ व्या० 'सच्छंद इति' स्वेच्छया गमनमुत्थानमध्वी भवनं 'सोअणोनि' शयनं यस्यैतावृशः, अप्पणेणत्ति' आत्मना कल्पितेना चरणेनाचारेण गच्छति, श्रमणगुणा ज्ञानादयस्तेषां मुक्तो योगो व्यापारो येन सः, बहुजीवानां बहुप्राणिनां क्षयङ्करो विनाशकरः एतादृशो भ्रमति ॥
२ व्या० 'बच्छित्ति' बस्तिरिव वायुपूर्णः, यथा वायुपूर्णो बस्ति
तिरुत्फुल्लो दृश्यते, तथा गर्वेण भृतः सन् परिभ्रमणं करोति, जिनानां मतं रागादिरोगौषधमजानन् सन् स्तब्धोऽनम्रः सन् निर्विज्ञानो ज्ञानरहितो न च प्रेक्षते किञ्चिल्लवलेशमपि आत्मना समं तुल्यं, एतावता सर्वानपि तृणसमान् गणयतीत्यर्थः ॥ ३ व्या० ' सच्छंद इति' स्वेच्छया गमनोत्थानशयनः, अस्य विशेषणस्य पुनरुपादानं गुर्वाज्ञां बिना गुणप्राप्तिर्न भवतीति ख्याप नार्थ, च पुनः 'भुंजइत्ति' भोजनं करोति गृहस्थानां मध्ये, पार्श्वस्थादीनां स्थानकानि, एते पूर्वोक्तानि पार्श्वस्थादीनां लक्षणानि भवन्तीत्यर्थः ॥
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जे लोगुत्तमलिंगा लिंगिअ देहावि पुप्फतंबोलं। आहाकम्मं सव्वं जलं फलं चेव सञ्चित्तं ॥१॥ भुजंति थीपसगं ववहारं गंथसंगहं भूसं । - एगागित्तब्भमणं सच्छंदं चिठिअं वयणं ॥२॥
चेइअमहाइवासं वसहीसु वि निच्चमेव संठाणं । गेअं निअचरणाणं अच्चावणं कणयकुसुमेहिं ॥३॥ तिविहं तिविहेणेअंमिच्छत्तं जेहिं वज्जिअं दूरं । निच्छययो ते सडा अन्ने उण नामओ चेव ॥४॥ ___अत एव-- सेसा मिच्छदिठो गिहिलिंगकुलिंगदव्वलिंगेहिं।। इत्यत्र द्रव्यलिङ्गिनोऽनन्तरोक्तलक्षणा एव ग्राह्याः । नतु सिज्जातरपिण्डादि कियद्दोषदूषितदेशपावस्थास्तेषां हि सातिचारचारित्रसद्भावेऽपि मिथ्यादृष्टित्वे प्रोच्यमाने महत्याशातना स्यात् । न च सातिचारचारित्रत्वं तेषामसिडं । यदुक्तं श्रीप्रवचनसारोद्धारसूत्रवृत्तौ,एतेषु पावस्थं सर्वथैवाचारित्रिण केचिन्मन्यन्ते, तत्तु न युक्तं प्रतिभाति . यतो यधेकान्तेन पावस्थोऽचारित्री स्यात् तदा स.
तो देशतश्चेति विकल्पवयकल्पनमसङ्गतं स्यात् चा रित्राभावस्योभयत्रापि तुल्यत्वात् । तस्माज्जायते पा.
वस्थस्य सातिचारचारित्रसत्तापि । यतो निशीथचूर्णावपि पासत्थो अच्छइ सुत्तपोरिसिं अत्थपोरिसिं वा न ३ करेइ । दसणाइआरेसु वट्टइ । चारित्ते न वट्टइ, अ
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(३५)
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इआरे वा न वज्जेइ । एवं सत्थो अच्छइ पासत्थोत्ति " एतावता चास्य न सर्वथा चारित्राभावोऽवसीयते । इति प्रवचनसारोडारवृत्तौ । अत्र च निशीथचूर्णौचारितेन वइ ।
| इति सर्वपाश्वस्थग्रहणं । 'इरे न वज्जइ
इति च देशपार्श्वस्थग्रहणं संभाव्यते । पार्श्वस्थं च केचिदचारित्रिण मन्यन्ते । इति वचनादवसन्नाatri सुतरां चारित्रसद्भावो निर्णीयते । सर्वथा चारित्राभावे च तेषामागमोक्तं कारणे जाते वंद्यत्वमपि तेषां न सङ्गच्छते । नहि क्वापि महत्यपि कारणे परतीथिंकानां वंद्यत्वं सिद्धान्ते प्रतिपादितम् । तथा श्री ओघनियुक्त -
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एस गमो पंचहवि नीयाईणं गिलाणपडिअरणे । फासुअकरणनिक्कायण कहणपडिकामणा गमणं ॥ १ ॥
इत्यत्र पार्श्वस्थादीनां ग्लानत्वे प्रतिजागरणं संविग्नविहारं प्रत्यभ्युत्थितत्वे सति साधुना सङ्गाटकरणं च ।
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१ व्या० एष गमः' एष परिचरणविधिः 'पंचण्डवि' पञ्चानामपि, केषामत आह नियाईणं आदिशब्दात् पासस्योसण्णकुसीलसंसत्ताणं, 'गिलाणपडिअरणे'त्ति ग्लानप्रतिचरणे एष वि. धिः 'फासुअकरण'त्ति यदुत प्रासुकेन भक्तादिना प्रतिचरण कार्य. 'निकायण'त्ति निकाचनं करोति, यदुत दृढीभूतेन त्वया यदहं ब्रवीमि तत्कर्त्तव्यम्. 'कहण' त्ति धर्मकथाया, यद्वा 'कहण'त्ति लोकस्य कथयति किमस्य प्रव्रजितस्य शक्यतेऽशुद्धेन कर्त्तुम् ? 'पडिकामण' त्ति यद्यसौ ग्लानः प्रतिक्रामति तस्मात्स्थानान्निवर्त्ततइति यावत् ततः स्थानात् 'गमण'त्ति तं ग्लानं गृहीत्वा गमनं करोति
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दुगमाईसंजोगा जह बहुआ तह गुरू हुंति ॥१॥ __अत्र द्विकादियोगा गुरवो बहुदोषाः । पदानां वृद्धया दोषवृद्धः । गच्छगओ अणुओगी गुरुसेवी अनियमो गुणाउत्तो। संजोएण पयाणं संजमधाराहगा भणिया ॥ १॥
अत्र गच्छगतो न एकाकी। अनुयोगी न पावस्थो गुरुसेवी न स्वच्छन्दः । अनियतवासी न नित्यवासी । आयुक्तो नाऽवसन्नः । अत्र च पदानां वृद्धया गुणवृद्धिः । अत्र गच्छगतत्वादिपदचतुष्कयोगेऽनुयोगित्वायुक्तत्वयोरन्यतरस्यायोगे पार्श्वस्थत्वस्यावसन्नत्वस्य वा भावेऽपि
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१ व्याख्या-'एगागीत्ति' एकाकी धर्मबन्धवशिष्यरहितः १ पा. प्रवस्थो ज्ञानादीनां पार्श्ववत्ती २ सच्छंदोति' गुर्वाज्ञारहितः ३ स्थाने एकस्मिन्नेव स्थाने वसतीति स्थानवासी ४ 'ओसन्नो इति' प्रतिक्रमणादिक्रियाशिथिलः ५ एतेषां दोषाणां मध्ये द्वयादिसं. योगाः, द्वौ दोषौ, यो दोषाः, चत्वारो दोषाः, पञ्च दाषाः, एवं मिलिता: ‘जह इति' यथा यस्मिन् पुरुषे बहवो भवन्ति 'तह इति' तथा स गुरुविराधको भवतीत्यर्थः ।।
२ व्या०-'गच्छ इति' गच्छगतो गच्छमध्ये तिष्ठति, अणुओगीत्ति' अनुयोगो ज्ञानाचासेवनं तत्रोचमवान्, गुरुसेवाकारकः, अनियतवासी मासकल्पादिना विहारकारी, आयुक्तः प्रतिक्रमणादिक्रियायां, एतेषां पञ्चपदानां संयोगेन संयमस्य चारित्रस्यारा
धका भणिताः, यत्रैते गुणा बहवः स विशेषेणाराधक इत्यर्थः ॥ नमक
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संयमाराधकत्वं भणता, भणितमेव पावस्थादीनामपि चारित्रित्वम् । श्रीजीतकल्पभाष्ये
तथा - पासत्थोसन्नाणं कुसील - संसत्तनीयवासीणं । जो कुणइ ममत्ताई परिवारनिमित्तहेउं च ॥१॥ तस्स इमं पच्छन्तं० ॥२॥ .
ह पुण साहम्मित्ता संजमहेउं च उज्जमिस्तति वा । कुलगणसंघगिलाणे तप्पिस्सति एव बुद्धी तु ॥३॥ एव ममत्त करें परिवालण अह व तस्स वच्छल्लं । दढ श्रावणचित्तो सुज्झति सवत्थ साहू तु ॥४॥
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इति श्रीजितकल्पस्य भाष्ये पार्श्वस्थादीनां ममत्वादि ममायं परिवारो भविष्यतीत्यादिकारणैरेव निषिद्धं । साधर्मिकत्वादिकारणैस्तु अनुमतमेव । यच्च श्रीमहानिशीथे सुमतिश्राद्धस्यानन्तसंसारित्वमुक्तं तन्न कुशीलसंसर्गमात्रजनितं किन्तु नागिलनाम्ना भ्रात्रा प्रतिबोधनेऽपि शुद्धचारित्रिसद्भावेऽपि तादृक् कुशीलनिद्धंधसपरिवारस्य सचित्तोदकपरिभोगादिबहु दोषदुष्टस्यैकान्तमिथ्यादृष्टेर भव्यस्य ज्येष्ठसाधोः पार्श्वे दीक्षाग्रहणेन, 'जारिसउ तुमं बुद्धि उ तारिसी सोवि तित्थयरो' इति श्रीतीर्थकराशातनाकारित्वेन च वेदितव्यम् । किञ्चयदि पार्श्व स्थादीनां लिङ्गधारित्वमेवेष्टं स्यात् । तदा "दग पाणं पुप्फफलमित्यादि " पूर्वोक्तोपदेशमालागाथापंचकेन लिंगमात्रधारिणां लक्षणानि ।
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(३८) yetatutet.ttotatut tutotrt.tot.t.tutatutetottotot.totatutet...tatta "बायालमेसणाओ' इत्यादिपूर्वोक्तगाथासमुदायेन च पावस्थादिस्थानादि कुतः पृथक् पृथक् प्रतिपादितानि ततोऽयमाशयः। * दगपाणं पुप्फफलं अणेसणिज्जं गिहत्थकिच्चाई। : अजया पडिसेवंती जइवेसविडंबगा नवरं ॥१॥"
इत्यादि लक्षणभृतो द्रव्यलिङ्गिनोऽसंयता एव ।"बा३ यालमेसणाओ न रक्खइ" इत्यादि पार्श्वस्थादिस्थानानि
तु पुनः पुनः सेवमानः पश्चात्तापमुक्तो गुरोः पुरस्तदनालोचयन शनैः शनैः कियता कालेनासंयतो भवति । न चायमर्थः स्वमनीषिकयोच्यते यदुक्तं श्रीकल्पेऽपि तृतीयस्खण्डेएसणदोसे सीअइ अणाणुतावी न चेव विअडेइ। नेव य करेइ सोधिं न य विरमइ कालओ भस्से॥१॥ . अत्र वृत्तिः एषणादोषेषु सीदति । तद्दोषदुष्टं भक्तपानं गृहातीत्यर्थः, पुरः कर्मादिदोषदुष्टाहारग्रहणेऽपि न पश्चात्तापवान् । न चाशुद्धाहारग्रहणाद्विरमति । न विकटयति गुरुणां पुरतः स्वदोषं प्रकाशयति । विकटयति वा गुरुदत्तं प्रायश्चित्तं न करोति । एवं कुर्वन् कियतामपि का. लेन चारित्रात् परिभ्रश्येदिति । ततो आवश्यके
गुणाहिए वंदणयं छउमत्थो गुणागुणे अयाणंतो। ३ वंदिज्जा गुणहीणं गुणाहियं वावि वंदावे ॥१॥
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. व्या० इहोत्सर्गतः गुणाधिके साधौ वन्दनं कर्तव्यमिति वा. क्यशेषः, अयं चार्थः श्रमणं वन्देतेत्यादिग्रन्थात्सिद्धः, गुणहीने तु प्रतिषेधः पश्चानां कृतिकर्मत्यादिग्रन्थादू , इदश्च गुणाधिकत्वं गुणहीनत्वं च तत्वतो दुर्विज्ञेयम्, अतश्छद्मस्थस्तत्वतो गुणागुणान्
आत्मान्तरवर्तिनः · अजानन् ' अनवगच्छन् किं कुर्यात् ? बन्देत ॐ वा गुणहीनं कश्चित्, गुणाधिकं चापि वन्दापयेत् ॥
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इत्यावश्यकवचनप्रामाण्यात् कालोचितयतनया या तमाना यतयो गुणाधिकत्वात् श्राद्धानां वन्द्या एव । ननु न वयं सर्वथा साधूनामभावं वदामः । किन्तु मा पाश्वस्थादयोऽभूवन् मा तद्वन्दनदोषश्चाभूत्, इति न बन्दा. महे । तर्हि जातं युष्माकमप्याषाढाचार्यशिष्यवदव्यक्तनिह्नवत्वं । यथा च पावस्थादिवन्दनदोषात् भीयते । तथामाणे १ श्रविणय २ खिसा ३ नीअगोअं ४ अबोहि ५ भववुड़ी ६ अनमंते छद्दोसा ॥
इति साध्ववन्दनजनिताबोध्यादिदोषेभ्यः कस्मान्न भीयते, ततो मोक्षार्थिन् ! सकलसङ्घप्रमाणीकृतं मार्गमवगणय्य साम्प्रतमेवास्मदादिदृष्टचरेणाग्राह्यनामधेयेन केनापि पुरुषापशब्देन साधूनामुपरिजातमत्सरेण निजकुमतिपरिकल्पितेषु च वचनेषु मा कर्ण देहि । यतः
श्रीउपदेशमालायां, निगमइ विगप्पिअ चिंतिएण सच्छंदबुद्धिरइएण।। कत्तो पारत्तहिअं कीरइ गुरुअणुवएसेणं ॥१॥ ..
इति ॥ तथा वृहद्भाष्ये
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१ व्याख्या-'नियगमइ इति' निजकमत्या स्वकीयबुद्धया विक ल्पितं स्थूलावलोकनं सूक्ष्मावलोकनं, तेन स्वकीयमतिकल्पनयेत्य
ः, स्वच्छंदबुद्धिरचितेन स्वतन्त्रमतिचेष्टितेनेत्यर्थ: । 'कत्तो' इति कुतः 'पारत्त' परत्र परे लोके हितमात्मनो हितं 'कीरइ'
इति क्रियते ? गुरुर्वनुपदेशत उपदेशाऽयोग्येन गुरुकर्मणेति ॐ भावः, स्वेच्छाचारिणः परत्र हितं न प्राप्नुवन्तीत्यर्थ:
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(४०)
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। संसिज्जइ निअकिरिआ दूसिज्जइ सयलसंघववहारो
कत्तो इत्तो वि परावि माणणा हंदि संघस्स ॥१॥ उप्पन्नसंसया जे सम्म पुछंति नेव गीअत्थे । चुक्कंति सुद्धमग्गा ते पल्लवगाहि पंडिच्चा ॥२॥ जो मोहकबुसिअ-मणो, कुणइ अदोसे वि दोससंकप्पं । सो अप्पाणं वंचइ पेवावमगोवणिसुउव्व ॥ ३॥ अवसउणकप्पणाए सुंदरसउणो (वि) असुंदरं फलइ । इअ सुंदरावि किरिया असुहफला मलिणहिअयस्स ॥
इति । न च शासने केषांचिद्दोषान् दृष्ट्वा सर्वेषां सदोषत्वमारोपयितुं युक्तं, यतो वृहद्भाष्येजो जिणसंघ हीलइ संघावइवस्स दुकयं दटुं। सव्वजणहीलणिजो भवे भवे होइ सो जोवो ॥१॥ जइ कम्मवसा केई असुहं सेवंति किमिह संघस्स ।। विद्यालिजइ गंगा कयाइ किं कागसबरेहिं ॥२॥
जो पुण संताऽसंते दोसे गोवेइ समणसंघस्स । विमलजस कित्तिकलिओ सो पावइ निव्वुइं तुरिअं॥३॥ जह कणरक्खणहेउं रखिज्जइ जत्तयो पलालंपि।
सासणमालिन्नभया । तहा कुसीलंपि गोविज्जा॥ 1 इति । तथा-ननु पावस्थादीनां बंद्यत्वे, कथं पास
त्थो ओसन्नो इत्यादिवाक्यैः सह न विरोधः, उच्यते
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सर्वदेशपावस्थादीनामुक्तयुक्त्या वन्यत्वमवन्यत्वं चार स्ति । आगमवाक्यानि च नयवाक्यप्रमाणवाक्यत्वेन विधाऽपि भवति । यतः श्रीउपदेशमालायांनाणाहियो वरतरं हीणो विहु पवयणं पभावंतो। नयदुक्करं करितो सुठु वि अप्पागमो पुरिसो ॥१॥ * श्री आवश्यके
नाणं मुणेह नाणं गुणेह नाणेण कुणउ किच्चाई। । भवसंसारसमुदं नाणी नाणेण उत्तरइ ॥ १ ॥
तथा भक्तपरिज्ञा प्रकीर्णकेदसणभट्ठो भट्ठो न हु भट्ठो होइ चरणपब्भट्ठो। सिझंति चरणरहिआ दसणरहिआ न सिझंति ॥१॥
तथा श्रीआवश्यकेदसारसीहस्स य सेणियस्स पेढालपुत्तस्स य सच्चइस्स: अणुत्तरा दसणसंपया तया विणा चरित्तेणऽहरं गइं गया। ___तथा श्री आवश्यके
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१ व्याख्या--'नाणाहिओ इति ' ज्ञानेनाधिकः पूर्णो ज्ञाॐ नाधिको बरतरं श्रेष्ठः, हीनोऽपि चारित्रक्रियाहीनोऽपि हु नि..
श्चितं प्रवचनं जिनशासनं प्रभावयन्, एतादृशः क्रियाहीनोऽपि * ज्ञानी श्रेष्ठ इत्यर्थः, 'न य इति ' न च श्रेष्ठो दुष्करं मासक्ष
पणादि कुर्वन् सम्यकप्रकारेण · अप्पागमोत्ति' अल्पश्रुत: पुरुष: क्रियाधानपि ज्ञानहीनो न श्रेष्ठ इत्यर्थः ॥ ************ **********-ཨ***** ***
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इय नाणचरणरहिओ सम्म हिट्ठो वि मुक्खदेसं तु। पाउणइ नेव नाणाइसंजुओ चेव पाउणइ ॥१॥
तथा श्रीउत्तराध्ययने| नाणं च दंसणं चेव चरितं च तवो तहा। एस मग्गुत्ति पण्णत्तो जिणेहिं वरदंसिहि ॥ १ ॥
श्री आवश्यकेनाणं पयासगं सोहओ तवो संजमो अ गुत्तिकरो। तिण्हं पि समाओगे मुक्खो जिणसासणे भणिओ॥२॥ __इत्यादिषु क्वचित्केवलस्य ज्ञानस्य क्वचिद्दर्शनस्य क्वचिच्चारित्रस्य क्वचित्तत्त्रयस्य क्वचिज्ज्ञानदर्शनचारित्रतपसां च मोक्षसाधनत्वं प्रतिपाद्यते । न चात्र ककश्चिबिरोधः, न चापि मतिमतामत्र मतिमोहः कः युक्तः। आगमे हि कानिचित् एकैकांशग्राहकतया नयवाक्यानि भवन्ति, कानिचिच संपूर्णाथग्राहकतया प्रमाणवाक्यानि, अत एवातिनिपुणमतीनामेव भगवदाज्ञा अवगन्तुं शक्या । यदावश्यकेझाइजा निरवज्जं जिणाण आणं जगप्पईवाणं । थनिउणजणदुन्नेयं नयभंगपमाणगमगहणं ॥ १ ॥ तथा- पुत्वावरेण परिभाविऊण सुत्तं पयासिअवंति जं वयणपारतंतं एवं धम्मत्थिणो लिङ्गं ॥ १ ॥
ततश्च पार्थस्थादीनां क्वचिदवन्द्यत्वमेव प्रतिपाद्यते ।
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tre tre tereteresteet Water to the tretete tretieho
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Hetere teretetetrtetateetet istatatertretetietetretetretetretetet Wetortzete tetestetik १ क्वचिच्चावश्यकजोतकल्पादौ कारणे साधून श्रादांचा श्रित्य वंद्यत्वम् । जीवानुशासन ग्रन्थादौ तु-- किं च जइसावयाणं नमण नो सम्मयं भवे एवं।
आणं ता कह उवएसमालाए ॥ १॥ सिरिधम्मदासगणिणा न वारिश्र वारियं च अन्नेसि ।।
परतित्थियाणपणमणइच्चाईवयणओ पयडं ॥२॥ 1 संघेण पुणो बाहिं जो विहिओ हुज सो उ नो वंदे। पासत्थाई सडाण सव्वहा एस परमत्थो ॥ ३ ॥
इत्यादि युक्त्या श्राद्धानाश्रित्य निष्कारणेऽपि वन्यत्वम् । क्वचिच्चासंयतत्वं क्वचिच चारित्रित्वं प्रतिपाद्यते, तदेषां सर्वेषां वाक्यानामयं भावो बहुश्रुतैरभिधीयते।। सर्वपार्थस्थसर्वावसन्नयथाच्छन्दा बहुदोषत्वेनावन्द्या भ. वन्तु । देशपावस्थादयस्तु तादृगपरशुद्धचारित्र्यभावे प्रा. गुक्तयुक्तिभिश्चारित्रसत्तायाः प्रतिपादितत्वेन बकुशकुशीलादिलक्षणान्तःपातित्वेन च प्रागुक्तज्ञानग्रहणादिकारणैश्च वन्द्या एव । उक्तमपि
पलए महागुणाणं हवंति सेवारिहा लहु गुणा वि। . * अथमिए दिणनाहे अहिलसइ जणो पईवंपि ॥१॥
गुणगणरहिओ अगुरू दट्टयो मूलगुणविउत्तो जो। नयगुणमित्तविहीणित्थं चंडरुद्दो उदाहरणं ॥२॥
तथा ३५५ गाथामाने श्राद्धप्रतिक्रमणसूत्रभाष्येऽ.. प्युक्तं -किश्च..
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(४४) tatatatatatatatatatatatatatatatestetrtetoritetetutestateetateetatatertoreto सम्मग्गगुणजुशं पत्तं पाविज्जए न दुसमाए। ईअरम्मि वि तो भत्तो कायव्वा तम्मि भणिअं च १ पलए महागुणाणं० ॥२॥ भूरिगुणो विरलोच्चिअ इक्गुणो वि हु जणो न सव्वत्थ निदोसाण वि भवं पसंसिमो थेव दोसे वि ॥ ३॥ दसणनाणचरित्तं तव० ॥ ४॥
इति । श्रीमहानिशीथेऽपि पूर्वगुरुयोग्यगुणौघमुक्त श्री वीरावर्षद्विसहस्रयनन्तरं षट्कायारम्भवज्यैव गुरुर्वन्द्यत. योक्तः तदत्र रहस्यं यथा । __"वंतुच्चारसुरागोमंससममिति" इत्यादिनाऽऽधाकमणो अतिनिन्द्यत्वप्रतिपादनेऽपिसोहंतो अइमेतह जइज्ज सव्वत्थपणगहाणीए ।। उस्सग्गववायविउ जह चरणगुणा न हायंति ॥ १॥
इत्यादिवचनात्पश्चकपश्चकपरिहान्यादियतनया देहया. वार्थमाधाकर्म गृहानोऽपि शुद्ध एव । एवं "असुइठाणे पडिआ चंपगमाला न कीरइ सीसे" इत्यादि वाक्यैः पावस्थादीनां संगतिमात्रनिषेधेऽपिविशिष्टविशिष्टतरविशिष्टत मगुणसाध्वयोगे क्रमेण तेभ्यो हीनहीनतरहीनतमगुणानामपि साधूनां वन्दनादि सङ्गतमेव । यद्वा साम्प्रतकालोचितयतनया यतमाना यतयः प्रमादादिपारव. श्येन किश्चित् किश्चित् विराधयन्तोऽपि मोक्षार्थमुद्यताः प्रागुक्तलक्षणबकुशकुशीलत्वं न व्यभिचरन्तीति तीर्थाः धारत्वेन निर्ग्रन्थत्वेन च निर्विवादं वंदनीया एव । यतः
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(४५)
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अजवि तिन्नपइन्ना गरुअभरुव्वहणपञ्चला लोए। दीसंति महापुरिसा अक्खंडिअ सीलपब्भारा ॥ १ ॥
अजवि तवसुसिथंगा तणुअकसाया जिइंदिआ धीरा।। * दीसंति जए जइणो वम्महहिअयं विआरंता ॥२॥
अजवि वयसंपन्ना छज्जीवनिकायसंजमुजुत्ता। दीसंति तवस्सिगणा विगहविरत्ता य महासत्ता ॥३॥ अज्जवि दयखंतिपइद्विआइं तव नियमसीलकलिआई विरलाइं दूसमाए दीसंति सुसाहुरयणाइं ॥४॥ | इयजाणिऊण एवं मा दोसं दुसमाइदाऊणं । धम्मुज्जम पमुच्चह अज्जवि धम्मो जए जयइ ॥५॥ ता तुलिअनिअबलेणं सत्तीइ जहागमं जयंताणं । संपुन्नच्चिअकिरिआ दुप्पसहं ताण साहूणं ॥६॥
न च प्रायः प्रतिगच्छं सामाचारीणां भेददर्शनान्न ज्ञायते का सत्या असत्या वेति ? तदकरणमेव वरमिति चिंतयितुं युक्तं । यदुक्तं श्रीभगवत्यां प्रथमशते द्विती। योदेशके
अत्थिणं भंते ! समणा वि निग्गंथा, कंखामोहणीय कम्मं वेअंति । हंता अस्थि । कहन्नं भंते ! समणा निग्गथा कंखामोहणिज्ज कम्मं वेअंति। गोयमा ! तेहिं २ नाणंतरेहिं दरिसणंतरेहिं। चरि-. तंतरेहिं लिंगतरेहिं पवयणंतरेहिं पावयणंतरेहिं क** ****
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प्पतरेहिं मग्गंतरेहिं मयंतरेहिं भंगंतरेहिं नयंतरेहिं । निअमंतरेहिं पमाणंतरेहिं संकिथा कंखिया विति
गिच्छिआ भेअसमावन्ना एवं खलु समणा निग्गथा । कंखामोहणिज्ज कम्मं वेअंति । ___अत्र वृत्ता मग्गंतरेहिं मयंतरेहि इति पद्धंयव्याख्या यथा-मार्गः पूर्वपुरुषक्रमागता सामाचारी तत्र केषांचित् द्विश्चैत्यवन्दना अनेकविधकायोत्सर्गकरणादिका आवश्यकसामाचारी तदन्येषां तु न तथेति किमत्र तत्त्वं । समाधिः गीतार्थाऽशठपवर्तिता असौ सर्वापि न विरुद्धा. आचरितलक्षणोपेतत्वात्, आचरितलक्षणं चेदम्असढेण समाइण्णं जं कत्थइ केणइ असावज्ज । न निवारिअमन्नेहिं बहुमणुमयमेअमायरियं ॥१॥
तथा मतं समाने एवागमे आचार्याणामभिप्रायवि. शेषः । तत्र सिद्धसेन दिवाकरो मन्यते युगपत्केवलिनो ज्ञान दर्शनं, चान्यथा तदावरणक्षयनिरर्थकता स्यात् । जिनभद्रगणिक्षमाश्रमणस्तुभिन्न समये ज्ञानदर्शने. जीवस्व॥ रूपत्वाद्यथा तदावरणक्षयोपशमे समानेऽपि क्रमेणैवमति. ॥ श्रुतोपयोगी, न चैकतरोपयोगे इतरक्षयोपशमाभावः ।।
तत्क्षयोपमस्योत्कृष्टतः षट्षष्टिसागरोपमप्रमाणत्वात् ।। अतः किं तत्त्वं । अत्र समाधिः यदेवमतमागमानुपाति, तदेव सत्यमिति मन्तव्यमितरत्पुनरुपेक्षणीयम् । यथा
बहुश्रुतेन नैतदवसातुं शक्यते, तदेवं भावनीयम्, आचाईर्याणां संप्रदायादिदोषादयं भेदो मतः । जिनानां तु मतF F FFFFFFFFFFFFF******************
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(४७) terteretertreteteretetter tretetetretetetretetetrto metrtrtrtrtrtrtetestetrtete te मेकमेवाविरुद्धं च, रागादिरहितत्वात् । आह चअणुवकयपराणुग्गह-परायणा जं जिणा जुगप्पवरा । जिअरागदोसमोहा य नण्णहा वाइणो तेण ॥१॥
इति । तस्माद् व्यवहारतो यतमाना यतयो धर्मार्थिना वन्या एव यतः श्रीउत्तराध्ययनेधम्मज्जियं च ववहारं बुद्धेहायरियं सया। तमायरंतो ववहारं गरिहं नाभिगच्छइ ॥१॥
श्री आवश्यके-- ववहारो वि हु बलवं जं छउमत्थंपि वंदई अरिहा। जो होइ अणाभिन्नो जाएंतो धम्मयं एवं ॥१॥ जइ जिणमयं पवज्जह ता मा ववहारनिच्छएमुअहा ववहार नउच्छेए तित्थुच्छेओ हवइ जम्हा ॥२॥
व्यवहारनयमनुसरत एव हि क्रमेण निश्चयशुद्धिप्राप्त्या निःश्रेयसप्राप्तिर्भवति । अत्र साधुस्थापनाधिकारः संवेगरङ्गशालाग्रन्थतस्तद्गाथाभिरेव लिख्यते यथा । इत्थंतरम्मि सड्डो आसधरो नाम भणइ दुविथड्डो . भयवं जहुत्तसाहू न संति गुरुणो कहं ते य ॥१॥ पिंडविसुद्धिं न तहा कुणंति१ सक्कंपि नायरंति विहिं २ पासत्थाईहिं समं चयंति नालंबणनमणाइं३ ॥२॥
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(४८) st.tattatutet.tutetitutitut.twt.tatutorst.tattatituti tattvate न परूवंति य सुद्धं ४ न धरंति पमाणजुत्तमुवगरणं५ ।। थेवेसु वि रोगेसु जह तह सेवंति अववायं ६ । ॥३॥ इथ अट्ठारससोलंग-सहस्सधरणं विणा कहं समणा । हुंति गुरू तदभावे कह वा ते दणिज्जा य ॥४॥ । भणिशं गुरुणा भदय ! मा साहणं अभावमुल्लवसु ।
तदभावे धम्मस्सवि नूणमभावो तए इट्ठो ? ॥५|| मिच्छत्तपउरयाए न नजईदाणिं देवनामंपि। किं पुण कालोचित्र सुमुणिविरहओ मग्गविन्नाणं ६॥ पिंडविसुद्धिं न कुणंति जं च वुत्तं तयपि हु न जुत्तं ।। निवसत्तिकालक्खित्ताणुसारयो तप्पवित्तीए ॥७॥ गिद्धिसढभावविरहा सुद्धी तदभावो विजं भणिय।। सुद्धं गवेसमाणो बाहाकम्मे वि सो सुद्धो ॥८॥ कह नज्जइ अग्गिद्धी घरधणसयणाई सबचागाओ। तं जेसि नासिपुटिव ते कह नणु इत्थ चागीयो॥९॥ सुकरो इच्छाचागो अभावओ वि अ तुम न किं कुणसि दीणुद्धरणाइ खमा तुज्झ विनोदी सएलच्छी ॥१०॥ नेवायरंति सक्कंपि जं च भणिअं तयपि निस्सारं ।।
आवस्सयाइं किं ते न कुणंति जमेवमुल्लवसि ॥११॥ ३ अहविगइचागमणु--खणमुस्सग्गं कप्पविहरणाई।
सक्कंपि नायरंती कह नजइ सक्रमेयमहो ॥१२॥
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सामस्थकालदोसा सक्कंपि कयाइ जायइ असक्कं । आयव्ययतुलणाए तदकरणे वि हु न तो दोसो॥१३॥ पासत्थाईसंगो नमणं च न संगयति जं वयसि । तं पिहु मिच्छासिद्धंत-वयणओ तप्पवित्तीए ॥१४॥ नणु सिद्धंतनिसिद्धं बालवणाई वि किं पुणो नमण।। ओसन्नो पासत्थो इच्चाई भूरि भणणाओ ॥१५॥ सव्वमिमं ता सुत्ते वायनमोक्कारमाइ किं वुत्तं । परियायपरिसपुरिसा द[दे]विक्खओ अ हतयं मूढा॥१६॥
जइ ते फुडं अजोगा ता--तन्नमणाइकीसाणुनायं । * कारणमवि हु इहरा पासंडीणं पि तं होउ ॥१७॥
यह ते नो जिणलिंगे का तदविक्खा हु भावसारत्ते । * अणुअत्तणा य भणिआ तेसिं पि हु जेण वुत्तमिम॥१८॥
अग्गीयादाइन्ने खिते अन्नत्थ ठिइअभावम्मि। भावाणुवघायणुवत्त-णाए तेसिं तु वसिअव्वं ॥ १९ ॥ इहरा सपरुवघायो उच्छोभाईहिं अत्तणो लहुआ। तेसिं च कम्मबंधो दुगंपि एवं अणिट्ठफलं ॥ २० ॥ ता दवओ उ तेसिं अरत्तदुहेण कन्जमासज। अणुवत्तणस्थमेसिं कायव्वं किंपि उण भावाओ॥२१॥ न परुवंति य सुद्धं एअंपिय दूसणं जहाजोगं ।। पन्नवणं चिअ वुत्तं इहरा दोसो तिज भणियं ॥ २२ ॥
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tattottarttituttitutetitutterstutetstatutatutottatutetstate आमे घडे निहित्तं जहा जलं तं घडं विणासेइ। इय सिद्धंतरहस्सं अप्पहारं विणासेइ ॥ २३ ॥ जोग्गाजोग्गमबुज्झिय धम्मरहस्सं कहेइ जो मूढो। संघस्स य पवयणस्स य धम्मस्सय पचणी यो सो॥२४ न पमाणजुत्तमुवहिं धरति एमैं पि तुच्छमाभाइ । असढोवदंसिअत्तेण तविहस्सुवहिनिवहस्स ॥२५॥ इहरा बाहुठिअं पत्तं एमं तु पडलयच्छन्नं । पत्ता बंधकयं पुण बीअं मत्तं अगोबर उ ॥२६॥ एगमि अ रयहरणं भवे न इण्हिं विसिट्ठमुणिणो वि। तो एत्थपयत्थम्मि य पुब्वमुणिणो च्चिअ पमाणं॥२७॥ सेवंति य अववायं दूसणमेअंपि घडइ नो सम्म। तविहसंघयणाई विरहा सुत्तुत्ति उ तह य ॥ २८ ॥ सवत्थ संजमं संजमाओ अप्पाणमेव रक्खिजा। मुच्चइ अइवायाओ पुणो विसोही नयाविरई ॥२९॥ किञ्च-काहं अच्छित्तं अदुवाअहीयं तवोवहाणंमि
अउज्जमिस्सं गणव नीईइव सारइस्सं, सालंबसेवी समुवेइ मोक्ख३० सीलंगाण विभावो नाउं सबन्नुवयणओ चेव। कह भणिथमन्नहेमं बकुसकुसीलेहिं जा तित्थं ॥३१॥ कालानुसारिकिरियारयत्ति चारित्तिणो पवुच्चंति ।
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shetat tetntattattattoto.tattattatutotketstakntatrkattrinky जह कप्परुक्खविरहे रुक्खा भन्नंति निंबा वि ॥३२॥ अह सम्ममा मुणियंमि मुणिम्मि नमणाइ कीरइ कहं ति: वभिचार दसणाश्रो एअंपि न सुंदरं जम्हा ॥३३॥ छउमत्थसमयवजा ववहारनयाणुसारिणी सवा।। तं ववहारं कुव्वं सुज्झइ सव्वो वि समईए ॥३४॥ जइ जिणमयं पवजह ता मा ववहार निच्छए मुअह ववहारनउच्नेए तित्थुच्छेओ हवइ जम्हा ॥३५||तथा--: धम्मज्जियं च ववहारं बुद्धेहायरियं सया। तमायरंतो ववहारं गरिहं नाभिगच्छइ ।। ३६ ॥ ता दूसमाए दोसं-विउं जत्थ जं पलोएज्जा । नाणे व दंसणे वा चरणे वा तमुववूहेज्जा ॥ ३७ ॥ किश्चन विणा तित्थं निअंढेहिं नातित्था य नियंठिआ। छक्कायसंजमो जाव ताव अणुसजणा दुहं ॥३॥ तहा-जा संजमया जीवेसु ताव मूला य उत्तरगुणा य इत्तरिअश्वसंजम-निग्गंथबउसा य पडिसेवी ॥३९॥ वीरपुरिसपरिहाणिं नाऊणं मंदधम्मिा केइ । संविग्गजणं हीलंति ताण पयडा इमे दोसा ॥४०॥ संतगुणछायणा खस्नु परपरिवायो अ होइ अलिथं च धम्मे य अबहुमाणो साहुपउसे य संसारो ॥४१॥
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( ५२ )
जइ संपुन्नं एवं हविज्ज सिद्धी विना न वुच्छिज्जा एपिनो मुणिज्जइ हो महामोहमाहप्पं ॥ ४२॥ देवगुरुधम्मकिरि पुण्वं जुतो विआणि ते वि । हीलिज्जती जइणो हीही कयनु (न्नु) खो लोगो४३ इय नरवर! किविर-मबुहजीवदुब्विलसि निसामिहिसि साहूहिं तो वि परो मोक्खोवायो धुवं नत्थि ॥ ४४॥ आगमतत्तं च नरिंद! मुणेसु गयरागदोसमोहाणं । एगंतपरहिआएं जिलाण वयणं हिअं अमियं ॥ ४५ ॥ दिइंतजुत्तिहे गंभीरमणेगभंगनयनिउणं ।
झवणे सुदूरपरिचत्तवभिचारं ॥ ४६ ॥ सिव हरयणपर्व च कुमयपत्रणष्पणोल्लणासज्यं । सज्झव बहुविहाई सयतारतारानिवहजणणं ॥ ४७ ॥ इय देवम्म गुरुम्मि अ यागमविसए य जायबोहस्स संकाइदोस रहिआ पडिवत्ती होइ सम्मत्तं ||१८|| एयम्मि पावियम्मि नत्थि तयं जं न पावियं होइ । एयं मूलाउच्चिश्रमहलकल्लाणवल्लीओ ॥ ४९ ॥ यह नयणदत्तनरवइ -- सुएहिं संजायपरमतोसेहिं । भणियं भयवं ! साहुप्प - सायओ पत्तरिद्धीणं ॥५०॥
म्हाणं पि हु पुरओ को एसो साहु दूसणं कुणइ । अहवा होअव्वं एत्थ पुदुच्चरिअदोसेणं ॥ ५१ ॥
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( ५३ )
ता भयवं ! साहह को पुए एस पुव्वे भवम्मि तोत्ति । मुणित्रइणा जंपिक मेगमणसा भो ! निसामेह ॥ ५२ ॥ एसो सावत्थीए नयरीए गिहीवइस्स बंभस्त । पुत्त नाम कुबेरोति आसि पिउणो य सो दोसो ॥ ५३ ॥ संभूयगणिसमीवे पव्वइओ किञ्चिराणि वि दिणाणि । वियनएहिं वडिअ पच्छापरिवडि उच्छाहो ॥ ५४ ॥ आवस्सयाइएसुं लस्सं पइदिणंपि कुणमाणो । गुरुणा सासिज्जतो साहूहियको मुहइ ॥ ५५ ॥ एसिंपि साहुखलियां पिक्खित्ता भण्णइ निययदुच्चरित्रां रक्खति न थेवपि हु परस्स पुण दिति उवएसं ॥५६॥ बालगिलाणाईणं वेावच्च सया वि किञ्चति । गुरुणो वि परेसिंपन्नवंति न सयं पुण करंति ॥५७॥ एमाइ दूसणाई वागरमाणो किलिट्टमणत्रयणो । मरिउं सुरनिकाए किब्बिसिश्रासुं सुरिं पत्तो ॥ ५८ ॥ तत्तो चविऊं इहि सावयभावं गा वि एस इहं । पुव्वाणुवेह उच्चि पहुच्च मुणिणो इअ भणेइ ॥ ५९ ॥ इति । यदुक्तं कल्पभाष्ये
उस्सुतभासगा जे ते दुक्करकारगावि सच्छंदा | ताणं न दंसणं पि हु कप्पइ कप्पे जओ भणिअं ॥१॥
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( ५४ )
जे जिणवयन्तिन्नं वयणं भासंति जे अ मन्नंति । सम्महिद्वीणं तदसणं पि संसारबुडकरं ॥ २ ॥
इति साम्प्रतसमयोचितयतनया यतमानाः साधवः वंदनीया
एव
इति श्री सुविहितपूर्वाचार्य प्रणीता -
॥ गुरुतत्त्वसिद्धिः ॥
समाप्ता.
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न ॥ प्रतिमागुणदोषविचारः ॥
॥बिम्बपरीक्षाप्रकरणम् ॥ अतीताब्दशतं यत्स्याद् यच्च स्थापितमुत्तमैः। तद् व्यङ्गमपि पूज्यं स्याद् बिम्ब तनिष्कलङ्कवत् ॥१॥ धातुलेप्यादिकं बिम्ब व्यङ्गं संस्कारमर्हति । काष्ठपाषाणनिष्पन्नं संस्कारार्ह पुनर्नहि ॥ २ ॥ * गुंलीउंगुलीबाहुनासोऽहीणां भङ्गेऽप्यनुक्रमात्।
शत्रुभीर्देशभङ्गश्च बन्धः कुलधनक्षयः ॥ ३॥ पीठयानपरीवार-ध्वंसे सति यथाक्रमम् । जनवाहनभृत्यानां नाशो भवति निश्चितम् ॥ ४॥
आरभ्येकागुलाद बिम्बं यावदेकादशाङ्गुलम् । , गृहेषु पूजयेद् बिम्ब मूर्द्धपादनं ( ? ) पुनः ॥ ५॥ प्रतिमाकाष्ठलेप्याश्म-दन्तचित्रायसां गृहे। मानाधिकपीरवार- रहिता नैव पूज्यते ॥ ६ ॥ रौद्री निहन्ति कर्तारं अधिकाङ्गा तु शिल्पिनम् । नासा द्रव्यविनाशाय स्वल्पाऽऽस्या भोगवर्जिता ॥७॥ वक्रनासाऽतिदुःखाय ह्रस्वाङ्गा क्षयकारिणी ।
अनेत्रा नेत्रनाशाय दुर्भिक्षाय कृशोदरी ॥ ८॥ ३१ 'हस्ताङ्गुलि' इति पदं युज्यते ! - ---
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III.
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जायते प्रतिमा हीन-कटिराचार्यघातिनी । जवाहीना भवे भ्रातृ-पुत्रमित्रविनाशिनो ॥ ९॥ पाणिपादविहीना तु धनक्षयविनाशिनी । चिरं पर्युषिता वा तु नार्थतो व्यायतस्ततः॥१०॥ अर्थहृत् प्रतिमोत्ताना चिन्ताहेतुरधोमुखी। आधिप्रदा तिरश्चीना नीचोच्चस्था विदेशदा ॥११॥ अन्यायद्रव्यनिष्पन्ना परवास्तुदलोद्भवा। हीनाऽधिकाङ्गो प्रतिमा स्वपरोन्नतिनाशिनी ॥ १२ ॥ सर्वेषामपि धातूनां रत्नस्फटिकयोरपि । प्रवालस्य च बिम्बेषु चैत्यमानं यदृच्छया ॥ १३ ॥ ऊर्ध्वगूद्रव्यनाशाय तिर्यग् भोगस्य हानये। दुःखदा स्तब्धहक् चाधोमुखी कुलविनाशिनी॥ १४ ॥ प्रतिमायां दवरका भवेयुश्चेत्कथञ्चन । सदृग्वर्णा न दुष्यन्ति वर्णास्त्वन्ये तु दूषिताः ॥१५॥
॥ इति बिम्बपरीक्षाप्रकरणम् ॥
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॥ बिम्बपूजापरीक्षाप्रकरणम् ॥ पित्तलसुवन्नरुप्प--रयणाणं चंदकंतमाइणं ।। कुजाओ लक्खणजुआ सत्तंगुलजाव नो अहिआ ॥१॥
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gottotatottt.ttetstatutetotiotstattatutetntatatuttattatstatus गिहिपडिमाणं पुरओ बलिवित्थारो न चेव कायबो। निच्चनवणं तिअसज्झ-मञ्चणं भावओ कुजा ॥२॥ लेवोवलदंतयकट्टलोह-वत्थणं पंचपडिमाओ।
नो कुजा गिहपडिमा कुलधणनासाइथा जम्हा ॥३॥ १ वेउब्वियसासयं मंगलाओ आगासचित्तलिहिआओ।
वंदति सेसाओ जिणपडिमाओ जणकयाओ ॥ ४॥ दालिदं दोहग्गं कुजाइ कुसरीर कुगइ कुमइओ । अवमाण रोगसोगा न हुती जिणबिंबकारीणं ॥५॥ समयवलिसुत्ताओ लेवोवलकहदंतलोहाणं । परिवारमाणरहिअं घरम्मि नो पूअए बिंबं॥६॥
एकागुलं भवेत् श्रेष्टं यमुलं धननाशनम् । । व्यङ्गुलेन भवेसिद्धिवर्जयेच्चतुरङ्गुलम् ॥ ७॥ पञ्चागुलं भवेद्वित्तं उद्वेगं तु षडङ्गुले। सप्ताङ्गुले तु गोवृद्धिस्त्यजेदष्टाङमुलं सदा ॥ ८॥ नवाङ्गुलं तु पुत्राय अर्थहानिर्दशाङ्गुले । एकादशाङ्गुलं बिम्बं सर्वकामार्थसिद्धिदम् ॥ ९॥ नृपभयमत्यङ्गायां हीनाङ्गायामकल्पिता भर्तुः। कृशोदरायां क्षुद्भयमर्थविनाशः कृशाङ्गायां ॥ १०॥
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( ४ )
श्रायुः श्रीफलजयदा दारुमयी मृन्मयी तथा प्रतिमा लोकहिताय मणिमयी सौवर्णी पुष्टिदा भवति ॥ ११ ॥ रजतमयी कीर्त्तिकरी प्रजावृद्धिं करोति ताम्रमयो । भूलाभं तु महान्तं शैलप्रतिमाऽथवा लिङ्गम् ॥ ११ ॥ प्रासादतुर्यभागस्य समाना प्रतिमा मता । उत्तमायुः कृते सा तु कार्य केनाधिकाङ्गुला ॥ १३ ॥ अथवा स्वदशांशेन हीनस्याप्यधिकस्य च । कार्या प्रासादपादस्य शिल्पिभिः प्रतिमा मता ? ॥ १४ ॥ सर्वेषामपि धातूनां रत्नस्फटिकयोरपि । प्रवालस्य च बिम्बेषु चैत्यमानं यदृच्छया ॥ १५ ॥ प्रासादगर्भगेहार्थे भित्तितः पञ्चधा कृते । यक्षाद्याः प्रथमे भागे देव्यः सर्वा द्वितीयके ॥ १६ ॥ विनायक स्कन्ध कृष्णानां प्रतिमाः स्युस्तृतीयके । पद्मा तु तुर्यभागे च लिङ्गमीशां न पञ्चमे ? ॥१७॥
भागे तृतीयेऽविम्बं स्यात् द्वितीयेऽम्बिकादयः ॥ १८ ॥ सने वाहने चैव परिवारे तथा युधे । नखाभरणवस्त्रेषु व्यङ्गदोषो न जायते ॥ १९ ॥ नासामुखे तथा नेत्रे हृदये नाभिमण्डले ।
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Gettriksikutekat.kekat.kot.k.kitatutotottarankstakkartikakkar स्थानेषु व्यङ्गिताङ्गेषु प्रतिमां नैव पूजयेत् ॥ २० ॥ मण्डलं जालकं स्फोटं तिलकं शूलकं तथा । ... वजा तु सन्धिश्च महा-दोषः प्रकीर्तितः ॥ २१ ॥ वर्जयेदर्हतः पृष्ठिं पाश्व ब्रह्ममधुद्विषोः। चंडिकासूर्ययो दृष्टिं सर्वमेव च शूलिनः ॥ २२ ॥ विभज्य नवधा द्वारं तत्षट भागानधस्त्यजेत् । ऊर्वे द्वौ सप्तम तद्वद् विभज्य स्थापयेद् दृशम् ॥२३॥ विश्वकर्ममते प्रोक्तं प्रतिमा दृष्टि लक्षणम् । द्वादशास्वाष्टिभिर्भागैरधः पक्षा द्वितीयके ? ॥ २४॥ मुक्त्वाऽष्टमं विभागं च यो भागः सप्तमः पुनः। तस्यापि सप्तमे भागे गर्जाशस्तत्र सम्भवेत् ॥ २५॥ प्रासादः प्रतिमा दृष्टिः नियोज्या तत्र शिल्पिभिः । अस्थाने निहिता सा तु सद्यो रिष्टाय जायते ॥ २६॥ दृष्टयायत्तं फलं सर्वं प्रोक्तं श्रीविश्वकर्मणा । तस्मात् सर्व प्रयत्नेन तत्र यत्नो विधीयताम् ॥२७॥
॥ इति बिम्ब पूजा स्वरूपम् ॥
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. प्रतिमार्थ काष्ठपाषाणपरीक्षा
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निर्मसेनारनालेन विष्टर्या श्रीफले न वा। विलिप्तेऽश्मनो काष्ठे वा प्रकटं मङ्गलं भवेत् ॥ १॥ मधुभस्म गुण व्योम-कपोतसदृशप्रभैः। माजिष्टैररुणैः प्रीतिः कपिलैः शामलैरपि ॥२॥ चित्रैश्च मण्डलैरेभिरन्तज्ञेया यथा क्रमम्। खयोतो वालुकारक्तभेकाम्बुग्रहगोधिका ॥ ३ ॥
॥ इति काष्ठपाषाणपरीक्षा ॥
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________________ Katatatutattattato.tatt....ARREARRArtatt t. KRRIAtti श्रीसत्यविजयस्मारकजैनग्रन्थमाला तरफथी प्रसिद्ध थयेला पुस्तको अमारा भेटना पुस्तको मंगावनारे ते ठेकाणे लखेली। पोस्टनो टीकीट मोकलची. पोस्टनी टीकीट. 1 संयमणिगर्भित महावीर बन. भेट 0-0-6 2 जम्बूद्वीपम्पमास सटीक. भेट 0-0-6 3 उपधानविधि पत्राकारे. भेट 0-2-0 4 अन्ययोगव्यवच्छेदद्वात्रिंशिका अवचूरि स. भेट -1-0 5 पांडवचरित्र महाकाव्य प्रत्राकारे. रु. 1-4-0 6 षष्ठिशतक्रप्रकरण सटीक, मूल कर्ता भेट 0-6-0 नेमिचंद्र. टीकाकार महोपाध्याय / गुणरत्नगणि. 7 सत्यहरिश्चन्द्रप्रवन्ध पत्राकारे, भेट 0-3-0 जिनगुणस्त बनावली. सा० भेट. गृहस्थ -4-0 29 पोसहविधि. भेट 0-1-0 10 उपदेशरत्नकोषादि 0-0-6 11 अम्बडचरित्रपद्य 0-3-0 -: मलवार्नु ठेकाणु :श्री सत्यविजय जैनग्रन्थमालाना ओ० सेक्रेटरी शा. मोहनलाल डाह्याभाइ ॐठे. पांचकुवा कापडबजार पारसीचाल-अमदावाद. antatatutet.it.ttitutitutekutteke NAGAakankootket-tattattotokuttitutkuTRI-TARKARKAR R07 kekot.kotato Printed by Shah Vadilal Bapubhai at Jain Advocate Printing I Press Ghee Kanta. AHMEDABAD. E WA H0