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इति हवे जो सामुदायिक पक्ष ग्रहण करना होतो, वर्तमान साधुपण केटलाक साधुओने विषे शय्यावर अभ्याहृत गजपिंड ग्रहणादिरूप दोषनो अभाव होवाथी, देशथी पासन्था पण केवी रीते कही शकाय ? एवी रीते अवसन्नादिपणानो पण निषेध जाrat, शास्त्रकार प्रतिवादीने शिखामण आपता कहे छे के - हे सौम्य ? सम्यक् सिडान्तना रहस्यने नहि जाणता छर्ता पासत्या आदिना दोषोनुं आरोपण करीने वर्तमान साधुओने तुं फोगट शामा दूषित करे छे ? जेने माटे निशीथसूत्रमां कछु छे केसंतगुणछायणा खलु परपरिवाओ अ होइ अलियं च । धम्मे अरजमाणो साहु पउसे य संसारो ॥ १ ॥
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भावार्थ:- विद्यमान गुणोने ढांकनाथी अछता दोषो प्रगट करवाथी असत्य बोलवाथी धर्मने विषे अप्रेम उत्पन्न करवाथी साधु प्रत्ये द्वेष राखवाथी संसारनी वृद्धि थाय छे, माटे जो मोक्षनी अभिलाषा होय तो मात्सर्यता दूर करीने सम्यक प्रकारे ववने सांभल ! शास्त्रमां पुलाक वकुश कुशोल निर्ग्रन्थ स्नातक ए पांच प्रकारना निर्ग्रन्थो का छे - संयमरूपसारनी अपेक्षाए जेतुं चारित्र निःसार होयते पुलाक, उपकरण अने शरीरने शुद्ध राखनारा परिवार प्रमुख ऋद्धि यशने इच्छनारा अने सुखनो आश्रय करनारा छेद योग्य सातिचार चारित्रवाला निर्ग्रन्थो ने बकुश का छे.
कुत्सित निन्दनीय जेतुं चारित्र होय ते कुशील पुरुषवेद स्त्री वेद नपुंसक वेद हास्य रति अरति भय शोक दुर्गंछा मिथ्यात्व कोधमान माया लोभ आ १४ प्रकारनी मोहनीय कर्मनी अभ्यन्तर ग्रन्थीनो जेमणे क्षय कर्यो होय ते निर्ग्रन्थ, ज्ञानावरणीय दर्शनाव रणीय मोहनी ने अंतराय ए चार घातिकर्म रूप मलना समूह