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तपगच्छ कानन कल्पतरूपम, विजयदेव सूरि रायाजी; नाम दशोदिश जेहन चावू, गुणीजन द्वंदे गवायाजी. विजयसिंहसरि तास पटधर, कुमति मतंगज सिंहोजी; तास शिष्य सूरिपदवी लायक, लक्षण लक्षित देहोजी. १ संघ चतुर्विध देश विदेशी, मलिया तिहां संकेतेजी; विविध महोत्सव करता देखी, निज सूरि पदने हेतेजी. पाये शिथिलपणुं बहु देखी, चित्त वैरागे वासीजी; मूरिवर आगे विनय विरागे, मननी वात प्रकाशीजी. २. 'मूरिपदवी नवि लेवी स्वामी, करशु किरिया उद्धारजी:' कहे सूरि 'आ गादी छे तुमशिर, तुम वश सहु अणगारजी.' एम कही स्वर्ग सधाव्या मूरिवर, संघने वात सुणावीजी: सत्यविजय पंन्यासनी आणा, मुनिगणमां वरतावीजी. ३ संपनी साथे तेणे निज हाथे, विजयप्रभसरि थापीजी, गच्छनिष्ठाए उग्र विहारी, संवेगता गुण व्यापीजी. रंगीत चेल लही जग वंदे, चैत्य धजाए लक्षीजी; सूरि पाठक रहे सन्मुख उभा, वाचक जस तस पक्षीजी. ४ मुनि सवेगी गृही निर्वेदी, त्रीजो संग पाखीजी; शिव मारग ए त्रणे कहीए. इहां सिद्धांत छे सांखीजी. . आर्यसुहस्तिमूरि जेम वंदे, आर्यमहागिरि देखीजो; दो तिन पाट रही मरजादा, पण कलिजुगता विशेखीजी. ५ ग्रहील जलासी जनतापासी, नृपमंत्री पण भलीयांजी.
अर्थ-तपगच्छ रुपी वनमां कल्पवृक्षनी उपमा पामेल श्री विजयदेवमूरि थया के जेतुं चावु ( मराठी 'चांगलं'-सारु) सुंदर नाम दशे दिशाए गुणीजनना समूहे गायुं छे तेना पट्टधर, कुमति रूपी हाथीओमां सिंह जेवा विजयसिंह मूरि थया अने ते. ना शिष्य, लक्षणथी लक्षित-अंकित थयेल देहवाळा (सत्यविजय) मूरिनी पदवीने लायक थया.
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